इसी ट्रेन से
स्कूल पास कर दिल्ली गई थी
एक लड़की
जिसके पंखो में थे
सपनो के रंग
उसी डिब्बे में था
एक लड़का भी
लिए किताबो का गट्ठर
उनके थैले में भरा था
पठारों की सख्ती
मिटटी की गंध
जंगल का हरापन
और वे छा गए थे
राजधानी के अलग अलग आसमान में
बस वे लौटे नहीं दुबारा
इस ट्रेन से
जिसकी बोगियों में
फ़ैली होती है
मजदूरों की गंध !
कतरा करता पिघल के ढह जाते हैं ये लोग ... इनका निशाँ भी नहीं मिलता काल खंड में ... बहुत ही गहरी रचना हमेशा की तरह अरुण जी ...
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ खो जाता है यूँ ही आते जाते। ट्रेन अपनी जगह पटरियों पर इधर उधर आती जाती रह जाती हैं । सुन्दर।
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