खाली मेरी थाली
भरा है तेरा पेट
अन्न उगाऊं मैं
खाऊन मैं सल्फेट
मिटटी पानी से लड़ूँ
उसमे रोपूँ बीज
पसीना मेरा गंधाये
महके तेरी कमीज़
खूब जो उगे मेरी फसल
गिर जाए इसका मोल
कोल्डस्टोरेज में भरकर
पाओ तुम दाम अनमोल
जो व्यापारी बन गए
उनके खुले हैं भाग्य
जो बैठे धरती पकड़
रोये अपने दुर्भाग्य
गेहूं न फैक्ट्री उपजे
कंप्यूटर न बनाए धान
जिसदिन देश ये समझे
बढे किसान का मान
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (15-06-2017) को
जवाब देंहटाएं"असुरक्षा और आतंक की ज़मीन" (चर्चा अंक-2645)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सही कहा
जवाब देंहटाएंसमझते हैं पर समझना नहीं चाहते ... आँखें बंद करने में ही इनक्सा सुख जो छुपा है ...
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