मुक्तिबोध हुए हैं
हिंदी के बड़े कवि
उनकी शताब्दी वर्ष मनाई जा रही है
स्कूलों में , कालेजों में , विश्वविद्यालयों में
संस्थानों में
कुछ लोग कहते हैं कि
उनसे भी बड़े कवि थे त्रिलोचन , नागार्जुन और कई अन्य नाम लेते हैं वे
इनकी कविताओं से सरकारें हिल जाया करती थी
सुनाते हैं विश्वविद्यालय के लोग मंचो से
यह भी सुनाते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था डर जाती थी
वे सब कहाये जनकवि , मजदूरों के कवि , लोककवि
उनकी कविताओं से डरते डरते
पूंजीवादियों ने लील ली जंगलें, पहाड़ और नदियां
कब्ज़ा कर लिया सरकारों पर , संस्थानों पर , विश्वविद्यालयों पर
उन्होंने खड़ी कर ली सामानांतर संसथान, विश्वविद्यालय, कालेज और स्कूल
और उनके शिष्य करते रहे गोष्ठियां , सेमीनार, बहस
निकालते रहे पत्रिकाओं के विशेषांक
अपने मोहल्ले के चौकीदार जो कि आया है इन्ही कवियों के गाँव की तरफ से
पूछता हूँ कवियों के नाम , उनका हालचाल तो अनमने ढंग से मुस्काता है
जवाब में वह गाता है कबीर के दोहे और तुलसी दास की चौपाइयां।
बढ़िया।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (25-06-2016) को "हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी" (चर्चा अंक-2649) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लगता है अब ये बीते जमाने की बातें हो गयी हैं ... अब AC कमरों में बैठे लोग नहीं उबलते ... बहुत ही लाजवाब रचना है ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंSudhaa1075.blogspot.com
badhiya .......sundar
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