दुनिया में कुछ भी
अजेय नहीं
वह जो अजेय है
मात्र है एक दंभ
धूल में मिल जाएँगी
ये सभ्यता
पीछे भी मिल गई हैं
कई कई सभ्यताएं
जो कर रहे हैं हत्याएं आज
समाप्त हो जायेंगे वे भी स्वयं
सेनायें जो फहरा रही हैं पताकाएं
सब ध्वस्त हो जायेंगी
बची रहेगी
नदी, हवा, पानी और मिटटी
अजेय हैं ये।
सुन्दर।
जवाब देंहटाएंप्राकृति को शायद इतना ज्यादा मान इसीलिए दिया है हमारी संस्कृति ने ...
जवाब देंहटाएंगहरी रचना ...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (26-07-2017) को पसारे हाथ जाता वो नहीं सुख-शान्ति पाया है; चर्चामंच 2678 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती. सुंदर शब्दों के साथ..
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