बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अधूरापन : कुछ हाइकू



१.
पूर्णता 
स्वप्न है
अधूरापन है
सत्य 

२.
पूर्णता 
मिथ है 
अधूरापन है
हकीकत 

३.
पूर्णता 
माया है
अधूरापन है
अध्यात्म 

४.
पूर्णता 
मोह है
अधूरापन है
मोक्ष 

५.
पूर्णता 
मृत्यु है
अधूरापन है
जीवन 

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

कैलेण्डर के पन्ने


पन्ने बदल जाते हैं 
कैलेण्डर के 
हर महीने और
आखिर में 
कैलेण्डर ही
बदल जाता है
उतार दिया जाता है 
दीवार से
मन के कोने से 

कितना साम्य है
कैलेण्डर

और जीवन में
जहाँ रिश्ते 

महज पन्ने हैं

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

प्रेम : कुछ क्षणिकाएं


१.

प्रेम से 
होता है पराजित 
विज्ञान 
अर्थशास्त्र भी 

२.

प्रेम 
गढ़ता है
नया 
भूगोल 

३.


प्रेम 
देता है 
जन्म 
नए विषयों को 
जो समुच्चय होता है
दर्शन शास्त्र और 
मनोविज्ञान का 


४.

प्रेम से
उत्त्प्रेरक है
जबकि रासायनिक नहीं है
इसका चरित्र 

५.

प्रेम पर
लिखी गई हैं
अनगिनत ऋचाएं 
फिर भी
हर कविता लगती है
नई सी 


सोमवार, 19 दिसंबर 2011

अदम गोंडवी से एक संवाद


(अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार के बाद किसी की  ग़ज़ल में यदि क्रांति थी तो वे थे अदम गोंडवी. वे नहीं रहे. उन्हें कई बार प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मिला.एक बार धनबाद भी आये थे एक कवि सम्मलेन में.रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी को समर्पित एक कविता. शायद कभी प्रत्यक्ष मिलता तो यही कहता जो कविता कह रही है.)




पता है 
तुम नहीं रहे 
और कोई खबर नहीं बनी 
किसी भी सर्च इंजन में
तुम्हारा नाम , परिचय 
तुम्हारी कवितायेँ, ग़ज़ल नहीं आती हैं
तुम किसी लेट्रेरी फेस्टिवल के अतिथि भी नहीं बने
कहो फिर क्यों बनती कोई खबर 

तुम मंच से कविता कहते थे
तो सच लगता था
रोये खड़े हो जाते थे
मुट्ठियाँ भिंच जाती थी
लेकिन क्या उस से बदल जाती है 
लोकतंत्र की प्रणाली 
तुमने कहा था 
फाइलों के जाल में उलझी रौशनी
सालो साल नहीं आएगी गाँव में
चीख चीख कर गाते रहे तुम 
ग़ज़ल लिखने से बेहतर होता 
मांग लिया होता 
कोई लोकपाल 
कह दिया होता सरकार से 
बनाने को सिटिज़न चार्टर 
तुम भी रहते खबर में 
रोज़ मापा जाता 
तुम्हारा भी रक्तचाप
एम्बुलेस खड़ी होती 
तुम्हारे मंच के पीछे 
लेकिन तुम तो 
पीछे ही पड़ गए थे
विधायक के 
जो भुने हुए काजू और व्हिस्की  के जरिये
चाहता था रामराज लाना 

अदम साहब
तुम तो चले गए
वे विधायक अब भी हैं
 व्हिस्की  और भुने हुए काजू के साथ
तरह तरह के गोश्त परोसे जाने लगे हैं 
अब भी फाइलों में उलझी है रौशनी 
ठन्डे चूल्हे पर अब भी चढ़ती है 
खाली पतीली 
दीगर बात है कि
लोकसभा और विधान सभा क्षेत्रो के परिसीमनो के बाद
बढ़ गई है इनकी संख्या 
कुछ मंत्री बन गए हैं 
और जो मंत्री नहीं बन सके 
बना दिए गए हैं आयोगों और समितियों के सदस्य 
उधर ठन्डे  चूल्हों की संख्या भी बढ़ गई है

यदि आप लिखे होते 
अपने गाँव के पकौड़ो और जलेवियों के बारे में
या फिर अपने जीवन में आने वाली महिलाओं  के बारे में
थोडा सच थोडा झूठ 
आये होते लोग आपकी भी शोक सभा में 
छपी होती आपकी तस्वीर भी 
किसी अंग्रेजी अखबार में 
लेकिन आपकी गजले तो उतारू थी हाथापाई पर 
इस व्यवस्था के साथ 

एक बात कहूँगा फिर भी 
सिंह साहब
आपके जाने के बाद भी
गरजेंगी आपकी ग़ज़लें और 
डरेगी यह व्यवस्था  ! 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

गृहस्थी : कुछ क्षणिकाएं



१,
आटा 
थोडा गीला
फिर भी गीली
तुम्हारी हंसी

२.
मैं 
तुम 
बच्चे , 
गीले बिस्तर की गंध 
कितनी  सुगंध 

३.
न कभी 
गुलाब 
न कोई 
गीत 
फिर भी जीवन में 
कितना संगीत 

४.
सूखी रोटी
नून 
और तेरा साथ , 
आह ! कितना स्वाद 

५.
तीज 
त्यौहार पर 
तेरा उपवास 
गरीबी को छुपाने का 
अदभुत प्रयास