बुधवार, 24 जुलाई 2024

बूढ़ा होता अखबारवाला और घटती छोटी बचत


दो दशक से अधिक से

वह फेंक रहा है अखबार 

मेरे तीसरे मंजिल मकान के आंगन में 

सर्दी, गर्मी, बरसात में 

गाहे बगाहे नागा होते हुए। 


वह कब जाता था अपने गांव

यह उसके बेटे के आने से पता चलता

जो नहीं फेंक पाता था तीसरी मंजिल पर अखबार। 


समय के साथ 

अखबार मोटे होते चले गए

खबरों का स्थान ले लिया 

चमकीले विज्ञापनों ने 

श्वेत श्याम अखबार 

रंगीन होते चले गए

और खड़ा रहा अखबारवाला

अपनी जगह वहीं। 


देश की अर्थव्यवस्था बदली

उसे पता चला विज्ञापनों से 

जबकि उसकी अर्थव्यवस्था 

थोड़ी संकुचित ही हुई इस दौरान

घटते अखबार पढ़ने वालों के साथ। 


पहले वह अखबारों के साथ लाया करता था 

पत्रिकाएं 

अब न तो पत्रिकाएं हैं न पढ़ानेवाले

मालिकान दे रहे हैं एक दूसरे को दोष

और समझ में नहीं आ रहा है अखबारवाले को

कि कौन सही है कौन गलत

वह स्वयं को कटघरे में फंसा महसूस कर रहा। 


आज सुबह सुबह

वह कई बार कोशिश करके भी

नहीं फेंक पाया तीसरी मंजिल पर अखबार

साइकिल चढ़ते हुए थोड़ा लड़खड़ाया भी

थोड़ा हाँफता सा भी लगा वह

मैंने हंसकर कहा 

"चच्चा बूढ़े हो रहे हैं, अखबार नीचे ही रख दिया कीजिए!"

मुझ अपनी हंसी, स्वयं ही चुभ गई

अखबार खोला तो पता चला कि

बैंक में छोटी बचत बहुत घट गई है

नहीं मालूम इस घटती बचत में

अखबारवाले चच्चा शामिल हैं या नहीं !

मंगलवार, 16 जुलाई 2024

दोस्तों के बीच

 दोस्तों के बीच 

जब आप कहेंगे कि 

देश में कम हो रहे रोजगार 

तो वे आपको तर्क देंगे कि 

सरकार बना रही है लोगों को निकम्मा 

अपनी योजनाओं के जरिए । 


दोस्तों की बतकही में 

आप जब कहेंगे कि 

जितनी देर में चाय पी प्याली 

खत्म करते हैं हमलोग 

उतनी देर में एक फुटबॉल मैदान के बराबर जंगल 

हो रहा है खत्म 

तो वे आपको बताएंगे कि 

रील्स में कौन कर रहा है लीड 

या फिर किस यू-ट्यूबर के सबसे अधिक हैं फालोअर । 


दोस्तों के बीच 

इस बात पर चिंता करते हुए आप 

हो जाएंगे अकेले कि 

इस साल देश या कहिए दुनिया के कुछ हिस्से 

जलते रहे बढ़ते तापमान में 

या फिर जूझते रहे बाढ़ से 

या फिर बेमौसम बारिश से  कैसे

लाखों हेक्टेयर फसल कैसे खत्म हो गई !




रविवार, 16 जून 2024

पिता के कंधे

पिता के कंधे 
बने होते हैं 
इस्पात के ।

वे टूटते नहीं 
हवा, पानी या 
घाम से 
बल्कि बोझ के साथ
होते जाते हैं 
और अधिक पक्के ।

पिता के कंधे
बोझ से झुकते नहीं 
बल्कि और तन कर
हो जाते हैं खरे। 

बूढ़े होते पिता के कंधे
आश्श्वस्ति भरे हाथों को 
अपने कंधे पर पाकर 
चौड़े हो जाते हैं 
विशाल हो जाते हैं
आसमान हो जाते हैं। 

गुरुवार, 30 मई 2024

गजल


 (1)
वह यूं धीरे धीरे बदल रही है
 जिंदगी रेत सी फिसल रही है 

 (2)
बदला है मौसम कुछ इस तरह
रूह  बर्फ सी पिघल रही है 

(3)
हर बात पर हँसती भी वह कभी  
अब न किसी बात से बहल रही है 

(4)
बसंत जायेगा तो फिर आएगा 
कोयल है कह कर मचल रही है  

 (5)
जो दौड़ेगा गिरेगा भी दुनिया में 
इसी हौसले से दुनिया टहल रही है 

 (6)
हार जाएगी, नहीं छोड़ेगी हौसला 
यह जान बच्चों सी मचल रही है   

सोमवार, 20 मई 2024

मुझे क्या!


गर्मी
खूब गर्मी
जितनी गर्मी
उतने एसी
जितने एसी
उतनी गर्मी
और गर्मी
और एसी
और गर्मी
और एसी
मैदान में गर्मी
पहाड़ में गर्मी
रेगिस्तान में गर्मी
मैदान में एसी
पहाड़ों में भी एसी
रेगिस्तान में एसी
गाड़ी में एसी
रेल में एसी
जहाज में एसी
दफ्तर में एसी
होटल एसी
ढाबा एसी
बस में एसी
मेट्रो में एसी
और गर्मी
और एसी
और गर्मी
और एसी
........और फिर....
धरती की ऐसी की तैसी।