गुरुवार, 24 जून 2010

आंकड़े


यह समय
शब्दों के
खामोश होने का है
उनके अर्थ
ढूँढने का नहीं
क्योंकि
इन दिनों
बोलते हैं
आंकड़े


यह समय
भूखमरी का नहीं है
क्यों कि
आंकड़ों से
मापी जाती है
भूख की गहराई
और
आंकड़े दिनों दिन
चढ़ते ही जा रहे हैं
विकास की ओर


यह समय
बच्चों के खेलने का नहीं है
न ही समय है
दिल खोलने का
क्योंकि
खोले जा रहे हैं
पिटारों के मुंह
रहने के लिए चुप
साथ ही खेला जा रहा है
आंकड़ो का जादुई खेल


यह समय
प्रेमिका के रिझाने का नहीं है
ना ही उनसे
सम्मोहित होने का है
क्योंकि
रिझा रहा है
बाज़ार और आंकड़ो का
सम्मोहक गठबंधन


कैसा भी हो समय
नहीं बदलते
दिलों के आंकड़े
जो करते है
प्यार

बुधवार, 23 जून 2010

नदी और पुल


नदी
और पुल
के बीच है
अनोखा रिश्ता,
पुल खड़ा करता रहेगा
इन्तजार
नदी
यू ही बहती रहेगी
अनवरत


नदी
लगातार मारती रहेगी
हिलोर
पुल
यो ही शांत रहेगा खड़ा
शाश्वत
क्योंकि उसे पता है
दोनों का प्रारब्ध


पुल की ओर से
नदी लगती है
बहुत खूबसूरत
नदी की ओर से
पुल लगता है
असंभव
जबकि
पुल की जड़े
कायम होती है नदी में,
नदी समझ नहीं पाती कभी

सोमवार, 21 जून 2010

बंटवारा

चलो भाई
बड़े हो गए हैं
हम
अब कर लेते हैं
बटवारा

माँ के दूध का
हिसाब लगा लेते हैं
बड़े ने कितना पिया
मंझले ने कितना पिया
और छुटकी को
कितना पिलाया माँ ने दूध
जरुरी है इसका हिसाब
अगर कोई
कमी बेसी हो तो कह लेना
लगा लेना कीमत

पिता के
खेत खलिहान तो हैं नहीं
सो बांटने के लिए बस है
उनका प्यार
परवरिश
दिए हुए संस्कार
साथ ही परवरिश में किया गया फर्क
ठीक से हिसाब लगा लेना
कुछ छूट ना जाए
रात रात जो जाग कर
अपने कंधे पर झुला कर जो रखा था
उसकी कीमत लगा लेना
उन्हें भी बाँट लेंगे

याद है तुम्हे
ये दालान
जिस पर चौकड़ी जमा
हम सब सूना करते थे
क्रिकेट का आँखों देखा हाल
बी बी सी के समाचार
बतकही और
बहसबाजी
बाँट लो उन पलों को
हंसी के ठहकाओं को
उनसे उपजी ख़ुशी को

ये दो कमरे हैं
किसने कितना पसीना बहाया
किसने कितने ईटें ढोई
लगा लो इसका भी हिसाब
बहुत आसान हो जायेगी
जिंदगी

अंतिम क्षणों में
बहुत रोये थे पिताजी
सब बेटो और बहुओं के लिए
कुछ आंसूं के बूँद
मोती बन गिरे थे
मेरे गमछे में
बस मैं नहीं बाँट सकता हूँ इन्हें

रविवार, 20 जून 2010

बहुत याद आते हैं बाबूजी

बहुत याद आती है
कच्चे बांस की
पतली छड़ी
और अपनी पीठ पर
उधडे उनके निशान
जब
अपने बेटे को
ईडिएट बाक्स के आगे से
उठाने में रहता हूँ
असफल

अनुशासन की
पहली सीख
उसी छड़ी ने
थी सिखाई
और आज भी साथ है
पिताजी के
नहीं रहने पर भी

बहुत याद आती है
पिताजी का
मुहं अँधेरे उठाना
और उठाना
जब
नहीं उठा पाता हूँ
अपनी बिटिया को
जो कल रात देर से लौटी
किसी पार्टी से
और
आज भी सूरज
नारंगी दीखता है सुबह सुबह
नहीं पता
मेरे बच्चों को

नहीं कहा कभी
मैंने अपने बाबूजी को
हैप्पी फादर्स डे
लेकिन
बहुत याद आते हैं
बाबूजी
प्रायः रोज ही
और
अनायास ही
धन्यवाद में
उठ जाते हैं हाथ
ईश्वर की ओर

शुक्रवार, 18 जून 2010

भूख


कई प्रकार की
होती हैं
भूख और
कई आकार की भी
होती हैं
जैसे कहीं
आसमान के वितान सा
विस्तृत भूख
तो कहीं संतोष के भाव सा
लघु भूख

भूख के
रंग भी हैं
कई और
कई अर्थ भी
होते हैं
बदलते हुए स्थान और भाव के साथ
बदल जाते हैं
भूख के मायने

भूख का
इन्द्रधनुष
बीच दोपहरी में दीखता है
कभी
खेतों में
खलिहानों में
बस अड्डों पर
रेलवे स्टेशन पर
मेट्रो शहरों की लाल बत्ती पर
पसारे हुए हाथ

भूख
अपनी पूरी रंगीनियत में
है होती
जब वह होती है
पांच सितारा होटलों की लाबी में
कारपोरेट के बोर्ड रूम में
स्टॉक एक्सचेंज की रैलियों में

भूख का विज्ञान
अलग होता है
और
पृथक होता है
भूख का भूगोल

भूख
विस्तार लिए हुई है
कारखानों में दम फुलाते
मजदूरों से लेकर
स्वयं से समझौता करती
बालाओं तक

यही भूख
प्रयोगशालाओं में
सृजित कर रही है
जिंदगी
तो यही भूख
बेबस कर रही है
पेड़ पौधों और जंगलों को

आखों की भूख
पेट की भूख से
होती है विलग
और
देह की भूख
पर भारी पड़ती है
सपनो की भूख

और
ए़क अजीब सी भूख है यह
जब कहता हूँ मैं
तुमसे,
'सदियों से
भूखा हूँ मैं
तुम्हारी ए़क हंसी के लिए '

गुरुवार, 17 जून 2010

तुम्हारे कदम

पड़े जो
तुम्हारे कदम
मेरे आँगन में
फुदुकने लगी
सैकड़ो गौरैया और
कागा करने लगा
शोर

कोयल कूक कूक कर
बताने लगी
आम की बगिया को कि
बहार आयी हैं
मेरे आँगन
अमरुद की डाली
झुक गयी
तेरे क़दमों में और
रख दिया अपने फल
समर्पण के भाव से

खिड़कियाँ
खिलखिला उठी
और दरवाजे
हाथ जोड़
खड़े हो गए

दीवारों ने
शुरू कर दिया
मुस्कुराना और
खड़े कर दिए
अपने कान
सुनने को तुम्हारी
खनकती हंसी

तुलसी के पत्ते
लगे महकने
और
समा गए तुममे
और
लाल टुह टुह
उड्हुल
अपने रंग को
भर दिया
तेरी मांग में
और
पहले से कहीं अधिक
प्रिय लगने लगी थी
तुम

पड़े जो
तुम्हारे कदम
मेरे आँगन
मन मेरा
बन गया मंदिर
और
तुम उसके
ईश्वर

(यह कविता मैं ने अपनी पत्नी के लिए लिखी थी जब पहली बार मेरे संग मेरे आँगन आयी थी वह। उसे पुनः समर्पित )

बुधवार, 16 जून 2010

मैं

यह शब्द
है सबसे छोटा
लेकिन
सबसे
व्यापक,
यह है
'मैं '

इस मैं ने
जहाँ
बनाया है
दुनिया को
बेहद खूबसूरत
वही
बदरंग भी हुई है
अपनी दुनिया
इसी मैं की
जिद्द में

युद्ध के बीज
इसी मैं ने
बोये हैं जहाँ
वही मैं ने
दिया है
शांति का सन्देश भी

मैं ने
ए़क ओर पैदा किया है
द्वेष और हिंसा
वहीँ
प्रेम का सन्देश दे
समर्पित भी हुए हैं
मैं


मैं
समा जाना चाहता हूँ
तुम्हारे मैं में
कि बन जाएँ
हम

मंगलवार, 15 जून 2010

आंच

सही आंच पर
पकती है
रोटी नरम
और स्वादिष्ट
बताया था तुमने
जब खो रहा था
मैं
अपना धैर्य


जब तक
चूल्हे में रहती है
आंच
रहती है
मर्यादित


रिश्तों को
सहेजने के लिए भी
चाहिए
भावों की
सही आंच
समय समय पर


आंच
कई बार
शीतल होती है
जैसे
तुम्हारे
आँचल की आंच
जिसने
अपनी नरमाहट से
दिया ए़क नया जीवन

सोमवार, 14 जून 2010

पम्फलेट

मुस्कुराते हैं
अखबारों के पन्नों के बीच
फंसे, गुंथे , लिपटे
पम्फलेट
ख़बरों पर
और उनकी घटती
विश्वसनीयता पर

ख़बरों के
कानो में
जाके जोर से चिल्लाते हैं
पूरी रंगीनियत के साथ
कि ख़बरों से
पहले पढ़े जाने लगे हैं वो...
पम्फलेट

ख़बरों और
अखबारों के लिए
ए़क बड़ी खबर हैं
ये महत्वहीन
पम्फलेट

रविवार, 13 जून 2010

घर में जगह

ए़क घर
बनाया है
हमने भी
रख कर
सपनो को गिरवी

घर में जुटाई
जरुरत और
गैर जरुरत के
सामान
कुछ सुविधाएँ और
कुछ देखा देखी

ख्याल रखा
घर कैसा लगेगा
दोस्तों की नजरों में
फिक्र की
कैसा लगेगा घर
पडोसी की नजरों में

बच्चों के कोना का भी
रखा ध्यान कि
उनका घट न जाए
उनके दोंस्तों के बीच मान

सर्वेंट के लिए भी
कर लिया था इंतजाम
बस छूट गए तो
साल भर में इक बार आने वाले
माता पिता

और फिर
कर लिया समझौता
मन को समझा लिया
बस महीने भर की तो
होती है बात
सर्वएंट क्वार्टर में चल जाएगा
माता पिता का काम

घर में
नहीं थी बची
कोई जगह
अब


शनिवार, 12 जून 2010

तुम्हारा व्रत

(आज देश के बड़े हिस्से में वटसावित्री का त्यौहार मनाया जा रहा है। इसी सन्दर्भ में यह कविता )

तुमने
आज रखा व्रत
मुझे यमराज से
लौटा लाने के
हौसले के साथ
पूजा की
वट वृक्ष की

मेरे दीर्घायु होने की
कामना के साथ

भर ली
तुमने अपनी मांग
शाश्वत सिन्दूर से
लगा ली
बड़ी गोल बिंदी
और छुपा ली
बिंदी के नीचे का दाग

अपनी कामना को
बना लिया
तुमने जीवन का संबल
लेकिन
कहाँ बना पाया
मैं
तुम्हे एवं
तुम्हारे व्रत को
अपने मन का
आधार

शुक्रवार, 11 जून 2010

तुमने छुआ

तुमने छुआ
पाषण में हुआ
ए़क विस्फोट
और
ए़क नदी
बह निकली

बसती गई
नयी सभ्यताए
रचे गए
नए इतिहास
पनपी
नयी संस्कृतियाँ
और
स्थापित हुए
नए ईश्वर

तुमने छुआ
और हुआ
ए़क सृजन

गुरुवार, 10 जून 2010

जूता

जूता
पैरों में होता है
सभी जानते हैं
कोई नयी बात नहीं
लेकिन
जूता
पैरो की ठोकरों में
रहता है
सदैव
झेलता हुआ
तिरस्कार
अवहेलना

हां
मैं कर रहा हूं
जूते की बात
जो
पैरों में नहीं
हमारे बीच रहता है

बुधवार, 9 जून 2010

ए़क और भोपाल

आज
हुई है
ए़क और भोपाल त्रासदी
और
जो लोग बचे थे
गैस रिसाव में
हुई है उनकी
वैधानिक हत्या

और
इस बार रो नहीं रहा
भोपाल
सदमे में भी नहीं है
कोई आक्रोश भी
नहीं है भोपाल को

हां
हजारों हाथ
उठे हैं दुआ में
कि हो
ए़क और भोपाल
लेकिन
भोपाल में नहीं

न्यूयोर्क
वरजिनिया
फ्लोरिडा
ओकहामा
न्यू जेर्सी
या
कलिफोर्निया में
ए़क और भोपाल

मंगलवार, 8 जून 2010

तूलिका और तालिका

तूलिका
और तालिका
लगते हैं
ए़क जैसे
लेकिन हैं
नहीं

तूलिका
जहाँ भरती है
सपनों में रंग
तालिका
करता है
सच्चे झूठे
आंकड़ो का
भव्य प्रदर्शन

तूलिका के
रंगों में पाओगे तुम
किसी बच्चे की हंसी
या पत्तियों पर
ओस की नन्ही बूँद
आसमान का विस्तार
या समंदर का
फैला हुआ वितान

जबकि
तालिका के
'कौलम और रो'
तय किये जाते हैं
बाजार के रुख के हिसाब से
जिसमे
मजदूरों के मजूरी का
हिसाब तो होता है
लेकिन नहीं होता है
उसकी हंसी
उसके आंसू
उसकी भूख
उसके बेटी की किताबे

तालिका को
पता है
उसके बाजार में आने के बाद
क्या होगा सेंसेक्स का भाव
लेकिन
तूलिका को
नहीं मालूम
उसे कहाँ कर दिया जायेगा
'फ्रेम' में कैद


सोमवार, 7 जून 2010

मैं और जंगल

मन में
उग आये हैं
जंगल
जो
भरे हैं
कैक्टस से

कैक्टस
जिसे नहीं चाहिए
रिश्तों का जल
वो
फलता फूलता है
अकेला

मन में
उग आया है
अकेलेपन का
जंगल

अकेलापन
जो उपजता है
संबंधो को
खर पतवार की तरह
उखाड़ने से
और
बढ़ता जाता है
बेहिसाब
निजता की
छाव में

मन में
उग आयी है
निजता का
छाव

शनिवार, 5 जून 2010

हरी पत्तियों की सिसकियाँ


जब भी
हमने अपनी गाडी के
एक्सलेटर को
उत्साह से
पूरा वजन दे दबाया है
सिसकी है
नन्ही हरी पत्तियां
लेकिन
सुन नहीं पाए हम
इंजन के शोर में


जब भी
हमने वातानुकूलित रेस्तरा में
मनाया है आनंद
अपनी सफलताओं का
सिसकी है
नन्ही हरी पत्तियां
लेकिन
सुन नहीं पाए हम
ड़ी जे के शोर में

ताकि बच सके पर्यावरण


फाइलों में
दबी हुई है
वृक्षारोपण की योजना
और
नदी की सफाई पर
दिया जा रहा है
मीडिया के समक्ष
प्रेजेनटेशन

वर्षा जल के
संग्रहण पर
बन रहे हैं
नियम एवं
अधिनियम

बाघों को
बचाने के लिए
बन रही है
नई योजना
और
तय किये जा
रहे हैं
ब्रांड अम्बेसडर


जंगलों को
बचाने के लिए
चल रहे हैं
हस्ताक्षर अभियान
शहर शहर


आयोजित हो रहे हैं
संगीत संध्या
फंड रेजिंग कार्यक्रम
क्विज़
लोग जा रहे हैं
विदेशी दौरों पर
वातावरण के संरक्षण के लिए


अलग से
बन रही हैं फिल्मे
विज्ञापन
डोक्युमेंटरी
पर्यावरण को बचने के लिए


बोर्ड रूम
होटलों की लोबी
मंत्रालयों और
सचिवालयों के साथ साथ
स्वयं सेवी संस्थाओं के कक्षों का
तापमान
बहुत बढ़ गया है
और
वातानुकूलित किया जा रहा है
उन्हें
ताकि
बच सके पर्यावरण
कम कटे वृक्ष
जल संरक्षित हो
नदियाँ दूषित ना हो


बंद कमरों में
बचाया जा रहा है
पर्यावरण

आंच


सही आंच पर
पकती है
रोटी
नरम और
स्वादिष्ट
बताया था
तुमने
जब खो रहा था
मैं
अपना धैर्य


जब तक
चूल्हे में रहती है
आंच
रहती है
मर्यादित


रिश्तों को
सहेजने के लिए भी
चाहिए
भावों की
सही आंच
समय समय पर


आंच
कई बार
शीतल होती है
जैसे
तुम्हारे
आँचल का आंच
जिसने
अपनी नरमाहट से
दिया ए़क नया जीवन

शुक्रवार, 4 जून 2010

तुम और धर्म



धारण करने योग्य
जो भी है
जरुरी नहीं है
हो वह
धर्म ही

तुम्हे जो
धारण किया है
मैंने
अपने रोम रोम में
अपनी हर सांस में
हर क्षण
हर पल
तुमसे निर्देशित हुआ हूँ
निर्धारित हुआ हूँ
पोषित हुआ हूँ
मैं ,
धर्म नहीं हो
तुम
कुछ अधिक हो

ब्रहमांड हो
परमानन्द हो
व्योम हो
क्षितिज हो
निराकार हो
निर्द्वंद हो
चिरंतन हो
सनातन हो

धर्म से
कुछ अधिक हो
तुम

गुरुवार, 3 जून 2010

ईश्वर, तुम और द्वन्द


तुम
आस्था हो
आस्था से ही
है ईश्वर

तुम
हो ईश्वर


तुम
प्रेम हो

प्रेम से ही
है ईश्वर

तुम
हो ईश्वर


तुम
आनंद हो
आनंद से ही
है ईश्वर

तुम
हो ईश्वर


तुम
मोक्ष हो
मोक्ष ही
है ईश्वर

तुम
हो ईश्वर


तुम
आदर्श हो
आदर्श ही
है ईश्वर

तुम
हो ईश्वर


तुम
माया हो
माया
ईश्वर नहीं

तुम
नहीं हो
ईश्वर

द्वन्द हो
तुम

बुधवार, 2 जून 2010

वर्तमान

इतिहास
केवल दिग्भ्रमित
है करता
और
भविष्य
है भरमाता
तभी
मैं
केवल वर्तमान में
जीता हूँ
हर पल
हर क्षण

तुम्हारे आँचल में सजे
सितारों के संग
और चूड़ियों में गुंथे
जुगनूओं से
कल ली है
मित्रता

तुम से सुन्दर
क्या हो सकता है
वर्तमान !

मंगलवार, 1 जून 2010

तुम्हारे बिना

आज
अचानक लगा
फूलों की पंखुरियों से
गायब हो रहे हैं
रंग
और
बारिस में नहाई
पत्तियों का हरापन
धुल रहा है
तेजी से

आसमान में
लगा
चल रही है
तेज आंधी
और
दूर जा रहा है
उसका नीलापन

तुम्हारे
ना होने के
एहसास भर से
बदल जाता है
रंग
मन का
प्रकृति का