मंगलवार, 31 अगस्त 2010

घिसी हुई पैंट

पैंट
जो पीछे घिस गयी है
यह पहनी गई है
कई कई बार
कई कई लोगों के द्वारा
याद नहीं
पैंट को भी अब
लेकिन
जैसे जैसे
बदली है टाँगे
बदला है
इस पैंट की वजूद भी
इसके उपयोगिता का स्तर भी
और ज्यो ज्यो घिसी है
अनमोल होती चली गई है
पैंट पहनने वाले के लिए

घिसी हुई पैंट
अर्थशास्त्र के नियम के
बिलकुल विपरीत होती है
कि
खाने का पहला कौर
अधिक संतुष्टि देता है
आखिरी कौर की अपेक्षा
और
घिसी हुई पैंट
सबसे अधिक संतुष्टि देती है
आखिरी बार पहनने वाले को

पहली बार
जब पहनी जाती है
पैंट
देती है ख़ुशी
लेकिन उसमे
देह ढकने का
वह भाव नहीं होता
जो होता है
घिसी हुई पैंट को
पहनने के बाद

घिसी हुई पैंट
विम्ब है
संघर्ष का
जिजीविषा का
सद्यः

मैंने भी
पहन रखी है
पीछे से घिसी हुई पैंट
और शर्मिंदा नहीं हूँ
मैं
आखिरी कौर
देती है मुझे
अधिक संतुष्टि

रविवार, 29 अगस्त 2010

पूरक हो तुम

जब
थक जाती हैं आंखे
करते करते
तुम्हारा इन्तजार
भोली सूरत तुम्हारी
पलकों में आकार
स्वयं ही
ठहर जाती है
और
नींद नहीं आने
तक बनी रहती है
पूरक हो तुम सांसों की ।

सपने देखता हूँ
मैं और
पूरा करने को
आतुर रहते हो
तुम
क्यों ना कहू
पूरक हो तुम सपनों के ।

समंदर
शोभित है
लहरों से
तुम हो लहर
कैसे ना होऊं
मैं तुम्हारा समंदर
पूरक हूँ मैं भावों का ।

रिश्ता है
अपना जैसे
बादल और पानी का
मैं
पूर्ण करता हूँ तुम्हे
और तुम
नेह बरसा जाती हो
मुझ पर

पूरक हो तुम जीवन की ।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

आवरण

आवरण
के पीछे
रहता है सच

आवरण झुठलाता है
सच को
देता है
नया अर्थ
नया रूप

लेकिन कोई
आवरण नहीं
मेरा मुस्कुराता चेहरा
मेरी हंसी
मेरा उतावलापन
मेरे सपने
तेरे लिए

बिना आवरण के
मेरा प्रेम
सत्य है
जैसे
सूर्य का उदय होना
लेकिन
आशंकित होता है
मन मेरा
सूर्य की तरह ही
बादल कही ढक ना ले
अपने आवरण में

कहो ना
आवरण के हटने
बादलों के छंटने तक
तुम्हें रहेगा
मेरा इन्तजार

या फिर
सच को
झुठला कर
कर दोगे
ह्रदय के मध्य से
विस्थापित
ए़क आवरण का
लेकर सहारा
और लुप्त हो जायेगा
मेरा प्रेम ।

बुधवार, 25 अगस्त 2010

अकारण कुछ भी नहीं

अकारण ही
मन के आसमान में
बादल गहरा जाते हैं
और रौशनी छिन जाती है
कोई
खींचे लिए जाता है
तुम्हे
दूर बहुत दूर मुझ से
जिधर हो रहे हैं युद्ध
आसमान है लाल
बहुत लाल
क्रोध से तमतमाया है
और
धरती के गर्भ में लावा
निकलने को है आतुर


ए़क कोलाज सा
उभरता है
जिसमे
मैं
तुम
हम
सभी
बिना किसी रूप आकार के
प्रतीत होते हैं
पृथ्वी गोलाकार नहीं दिखती
और सूर्य का रंग
घोर काला दिखता है
वैसे ही जैसे
भय के क्षण में होता है मन का रंग
कहीं कोई तितली नहीं उडती
कहीं कोई नए पत्ते नहीं उभर रहे हैं
इस कोलाज में


मैं अकेला
नितांत अकेला
खड़ा
रोता
आँखों में आंसू का
सैलाब लिए
तुम्हारे तट पर
होता हू

बादल बरसता नहीं
गरजता बहुत है
अट्टहास करता है
मैं डर कर
तुम्हारी गोद में
छिप जाना चाहता हूँ
लेकिन तुम भी मुझे
उस ओर मिलती हो
जिस ओर
रौशनी बहुत है
लेकिन दिखता नहीं है
कुछ साफ़ साफ़
जिस ओर युद्ध है
तुम भी उसी ओर खड़ी हो


फिर
बादल बहुत बरसता है
नदी में उफान आ जाता है
मेरी नाव डूबने लगती है
मैं खुद को
बचाने की
कोशिश नहीं करता
छिन सी जाती है
मेरी शक्ति
मेरा सामर्थ्य
मेरा पुरुषत्व
मेरा पुरुषार्थ
असहाय सा मैं
बन जाता हूँ वस्तु

फिर कुछ देर बाद
अब
शांत हो जाती है नदी
छट जाते हैं बादल
धूप फिर से
खिल उठती है



स्वप्न कहें
या दुस्वप्न
या फिर कोई
अतृप्त इच्छा
अव्यक्त विचार
फिर से
रह जाता है अधूरा

अकारण मेरा डर
जाता रहता है
लेकिन
मन के कोने में
दबा भय
ख़ामोशी से कहता है
अकारण कुछ भी नहीं

अकारण कुछ भी नहीं

सोमवार, 23 अगस्त 2010

अदृश्य रक्षा कवच

कहते हैं
राखी पहली बार
कृष्ण को
द्रौपदी ने बाँधी थी
किसी और रूप में
किसी और प्रसंग में
जब जरुरत पड़ी
राखी ने रख ली लाज
द्रौपदी की

इस पर्व को
बहन भाई के दायरे से निकाल
करने दो मुझे
ए़क छोटा सा वादा
जब भी कभी
पड़े तुम्हे
किसी की भी जरुरत
खड़ा मिलू मैं तुम्हे
पुकारने से पहले


किसी की आँखों में
जो आये तेरे लिए
कोई अन्य भाव
मैं रहू तुम्हारे साथ
करने को सामना
देने तो प्रत्युत्तर

तुम्हारे आंसू
धरती पर गिरने से पहले
पहुँच जाएँ
मेरी हथेलियाँ
जो भी सपने हैं
तुम्हारी आँखों में
हो जाएँ मेरे अपने से
और तुम्हारे साथ मिलकर
रंग दू उन्हें हकीकत का

आओ
बाँध दू मैं
तुम्हारी कलाई पर
ए़क अदृश्य
रक्षा कवच
अपने नाम का
प्रेम से अभिसिक्त
अभिमंत्रित

रविवार, 22 अगस्त 2010

गीली चीनी

माँ की रसोई में
चीनी गीली रहती थी
और कह जाती थी
बहुत कुछ

चीनी का
गीला होना
ए़क अर्थशास्त्र की ओर
करता है इशारा
जहाँ मितव्‍य‍तता से
गुजारी है पीढ़िया
जिसकी मिसाल
होती हैं माएं

वर्षो से नहीं बदल सकी
चीनी वाली डिब्बी

जो अब
हवाबंद नहीं रह गए

हवा खाते चीने के डिब्बे
गवाह हैं
हमारे बचपन से
जवा होने तक के
और
कई मीठी स्मृतिया
उभर आती हैं
गीली चीनी से

जब माँ ने
बेचे थे अपने गहने
हमारे परीक्षा शुल्क के लिए
गीली चीनी की मिठास
कुछ ज्यादा ही हो गई थी
माँ के चेहरे के उजास से


वर्षों बाद अब
चीनी तो गीली नहीं रहती
लेकिन
गीली रहती है
माँ की आँखें
गीला रहता है
माँ के मन का आसमान

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सड़क

अब
सड़कें
अंतहीन नहीं होती
तय होती है
उनकी यात्रा
नियत होती हैं,
उनके चौराहे की दिशाएं भी
पहले से निर्धारित होती हैं
और
जगह जगह पर
होते हैं निर्देश
गति सीमा
तीखे मोड़
चढ़ान
उतरान
संकरा पुल के निशान


विस्तार तो हो रहा है
सड़को का
किन्तु
अतिक्रमित हो रहे हैं
वृक्ष
खेत
खलिहान
तालाब
ठीक वैसे ही
जैसे
जीवन के विस्तार के साथ
अतिक्रमित हो रही हैं
संवेदनाये

सड़क
जीवन है
सीमाओं में बंधा
और
बदलते जीवन का
प्रतीक है
तरह तरह के प्रभावों में
जीवन


सड़क
बनायी है
मैंने भी ए़क
अपने ह्रदय से
तुम्हारे ह्रदय तक
कई पगडंडियों को साथ ले
चलती है यह सड़क
जिसके दोनों ओर
हैं वृक्ष
भाव के,
संवेदनाओं के
खेत हैं


उस ओर
हो ना
तुम भी
जहाँ जाती है
यह सड़क
जहाँ है
भविष्य

बुधवार, 18 अगस्त 2010

सुस्ता रही धूप ओसारे पर

मन का पेड़
हरा हो गया है
नव पल्लव
आ गए हैं
इसकी शाखों पर
देखा जो तुमने
ए़क बार
नेह के जल से
सींचा इसकी जड़ों को

इन्द्रधनुष का रंग लिए
विस्तृत आसमान को देख
खुश हो रहे हैं
मन के पेड़ पर
खिले पुष्प
तुमने जो
निहारा इन्हें

हवा इसे
झुला रही है
और हिलोरें
ले रही है
मन की डाल
तुमने जो
झल दिया
अपना आँचल
इसके ऊपर

तुम जो
आयी आँगन
मेरे सावन
देखो धूप भी
सुस्ता रही
ओसारे पर

सोमवार, 16 अगस्त 2010

मजदूर औरतों की पीठ

मजदूर औरतों की पीठ
अक्सर दिख जाती है
पाथते हुए उपले
गढ़ते हुए ईट
उठाते हुए धान की बोरियां
हांकते हुए बैल , गाय
चराते हुए बकरी
एक्सपोर्ट हाउस में काटते हुए कपडे
सिलते हुए सपने
या फिर
गहराती रात में स्ट्रीट लाईट के नीचे
मजदूर औरतों की पीठ

शक्ति पीठ होती हैं
ये पीठ
जिन पर खुदा होता है
सृजन का इतिहास
तरक्की के राजमार्ग पर
नहीं होता कोई साथ
मजदूर औरतों की पीठ के लिए

अनुसन्धान होते हैं
सामाजिक और आर्थिक शोध
किये जाते हैं
इन पीठों के रंग पर

बनाई जाती हैं
नीतियां
लेकिन सब की सब
चली जाती हैं दिखा कर पीठ
मजदूर औरतों की पीठ को

जब दे रही होती हैं औरतें
धरने , ज्ञापन
लगा कर काले चश्मे
सनस्क्रीन लोशन
मजदूर औरतों की पीठ
दिखा रही होती हैं
सूरज को पीठ
और सूर्य का दर्प भी
पड़ जाता है मंद
मजदूर औरतों की पीठ के आगे

भले ही
दिख जाती हो
मजदूर औरतों की पीठ
कभी पीठ नहीं दिखाती हैं
ये मजदूर औरतें ।

रविवार, 15 अगस्त 2010

कतार के अंत में खड़े आदमी की अपील

साहब
सुनते हैं
चौसठ साल हो गए
आजादी के
लेकिन
कतार के अंत में खड़ा
मैं
आज भी
कतार के अंत में ही हूँ
अपनी बारी के इन्तजार में

लाल किले की प्राचीर से
हर साल
रौशनी चलती मेरे लिए
लेकिन
ना जाने कहाँ
गुम हो जाती है

रात तो अंधियारी थी ही
साहब
अब तो दिन दोपहरी भी
अंधियारी सी लगती है
हरे जो खेत थे
और हरे हो गए हैं
लेकिन
हम जो हाशिये पर थे
आज भी वही हैं
अपनी बारी के इन्तजार में

नदियों का जल
बाँट लिया है
राजधानी वालों ने साहब
और जो बचा है
हमारे लिए नहीं है
जंगल में लगा दिए गए हैं
बाड़ हमारे लिए
और जिन्हें
खदेड़ा जाना चाहिए था
जंगलों से
जंगलों की खातिर
वे साहब
बने हैं पहरेदार
जंगलों पर हक़ के लिए
कर रहे हैं
अपनी बारी का इन्तजार

संसद वाले
हमे भेजना चाहते हैं स्कूल
कि हम पढ़ लिख सकें
आत्मनिर्भर बन सकें
करोडो रूपये खर्च किये जा रहे हैं
फिल्मे चल रही हैं
विज्ञापन आ रहे हैं
हमे प्रेरित करने के लिए
बस स्कूल नहीं बन पा रहे हैं
हमारे घर के निकट

ए़क बात और साहब
मेरे साथ ही खड़े
कतार के अंत वाले लोग
पढ़ लिख कर भी
हस्ताक्षर करते हैं
सादे कागजों पर
पंचायत में
समाहरणालय में
फेक्टरियों में
कहाँ कुछ कर पाते हैं हम
कतार के अंत में खड़े लोग
कलम से भी लगाते हैं
अंगूठा ही
आपके प्रभाव में

साहब
बड़े बड़े शहर बनाये जा रहे हैं
बसने के लिए हमे
बाहर से
बिना रोक टोक पैसा आ रहा है
खेत का
नियमों के तहत अधिग्रहण हो रहा है
मुआवजा मिल रहा है
कुछ और नहीं
बस हमे

हाशिये से और नीचे धकेलने के लिए
हो रहा है सब कुछ

साहब
बहुत कुछ और कहना है
लेकिन आप सुन ना पाएंगे
बस ए़क अपील है
हमसे ना मांगे वोट
हमें लोकतंत्र का मोहरा ना बनायें
साहब
कतार के अंत में खड़े हम
अभी बस सो रहे हैं
लेकिन जब जागेंगे
साहब
क्या आप हिसाब दे पायेंगे
हमारे हिस्से के
पानी
धरती
जंगल
हवा का

शनिवार, 14 अगस्त 2010

सुख की कल्पना

सुख
ए़क भ्रम है
जो अपनी खोज में
गिरा देता है
मानव को उसकी
अपनी ही नजरों में


पाने की लालसा
कर देती है उसे
दिग्भ्रमित
और निर्णयहीन
पशु हावी हो जाता है
और मानव
पहुँच जाता है
अपने आदिम स्वरुप में
बुद्धिहीन विवेकहीन

ए़क ऐसा ही
बुद्धिहीन विवेकहीन हूँ
मैं
सुख की कल्पना में
तिरोहित कर दिया मैं ने
अपना सर्वस्व
स्वयं के पैरों के नीचे की धरा
मैंने स्वयं ही खींच ली है
और बना लिया है
पश्चाताप का दलदल


स्वप्न सारे
हो गए है गंदले
भविष्य लग गया है
दाव पर
मंत्र जो शक्ति थी
अभिशाप बन
उच्चारित हो रही है
प्रतीत हो रहा है
विष सा यह विश्व
अपना ही विश्वास
मार रहा है डंक

ए़क चीख
जो कि
मेरी है
तुम्हारी है
चक्रवात बन
उडा ले जा रहा है
मुझे स्वयं से दूर
तुमसे दूर
किसी निर्जन द्वीप पर
स्वयं को पा रहा हूँ मैं

हे मनु !
कैसा है यह सुख ।
श्रद्धा !
क्या मनु है तुम्हारा
अब भी !

बुधवार, 11 अगस्त 2010

मेरे साथ रोइए

ए़क अरसे से
नहीं रोया मैं
पता है मुझे
ना ही
रोये होंगे
आप

ऐसे नहीं है कि
रोने का समय नहीं है यह
लेकिन देखा है मैंने
इन दिनों
रोना छोड़ दिया है
हम सबने

याद है मुझे
गाँव में ए़क चाचा जी गुजर गए
और रात को सन्देश मिला
बहुत मन किया रोने का
लेकिन रो ना सका
फ़ुटबाल विश्व कप का
फ़ाइनल मैच जो आ रहा था
एक्स्ट्रा टाइम में जाने की वजह से
बहुत टेंशन में था मैं
भूल गया था
कैसे उनके कंधे पर चढ़ कर
जाया करता था हाट
तैरना भी
उन्होंने ही सिखाया था
बेमानी हैं
वे बातें

ऐसे ही
कई और भी मौके आये
लेकिन रोना ना आया
ए़क समय था
जब गली मोहल्ले क्या
अपने कसबे में
किसी भी उच नीच , मरनी-हरनी में
हो जाया करता था शामिल
खूब रोया करता था
सगे के लिए
पराये के लिए भी
लेकिन
अब कहाँ

पिछली बार
जब मुंबई दहली थी
सीरियल बम विस्फोट से
खूब रोया था मैं
देश की हालात पर
शिराओं में
बढ़ गया था रक्त संचार

सडको पर उतर आया था
धरने और ज्ञापन दिए थे
अपने कसबे में भी
कोई ऐसा हादसा ना हो जाये
खूब की थी मेंहनत
लेकिन
जब ताज में बंधक बनाया था
सैकड़ो लोगों को
मज़े से देखा था लाइव
चिप्स, चाय और काफी के
दौर पर दौर के साथ

इस बार
कहाँ आया रोना

बाबूजी ने
जब खरीद दी थी साइकिल
दसवी पास होने पर
खूब रोया था मैं
ख़ुशी से
माँ भी रोई थी
बाबूजी जिन्हें साइकिल चलानी नहीं आती
वे भी रोये थे
छुप छुप कर
साल साल में जब
बादल जाती है कार यहाँ
कहाँ से आयेगी वो ख़ुशी
कहाँ से आएगा रोना
हाँ , टी वी सीरियल के सिचुएशन पर
जरुर करता हूँ बहस
जरुर करता हूँ विलाप

इस गर्मी छुट्टी
आम खाने को माँ ने बहुत बुलाया
चिट्ठी भी भेजी
फ़ोन पर बहुत रोई
नहीं समझ आया
उनका रोना

लगा बूढी हो रही है
माँ



और
इसी बात पर आज
रोने का मन कर रहा है
आइये ना
मेरे साथ रोइए !

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

दीवाल पर टंगी घडी

दीवाल पर टंगी घडी
कलाइयों पर बंधी घडी से
भिन्न होती है

मौन होती है
सब कुछ देख कर भी
और नहीं करती कोई प्रतिरोध
कलाई घडी की तरह
नहीं उतर जाती हाथो से
जब चाहे तब

उसे पता है
रात कैसे
करवटों में गुजरी है

और कैसे चली है
मेरी साँसे
उसकी टिक टिक के साथ
मन के झंझावातों से
रूकती नहीं है
दीवाल पर टंगी घडी

तिल तिल जीने
और मरने के बीच

पुल का काम करती है
दीवाल पर टंगी घडी
और जब भी
निराश हुआ है मन
कह देती है
निकल जाएगा यह समय भी
धीरे धीरे

ब्रेकिंग ख़बरों और
बच्चों के कार्टून के बीच
उसके लिए नहीं है कोई भेद
क्योकि पता है उसे
सच दोनों में कुछ भी नहीं
हर खबर से ऊपर
समय की खबर लेती है
दीवाल पर टंगी घडी

युद्ध का समय है
बाहर भी और
भीतर भी
और ऐसे कठिन समय में भी
दीवाल पर टंगी घडी
बिलकुल वैसे ही
मौन और शांत है

जैसे शूली पर टंगे
यीशु

रविवार, 8 अगस्त 2010

दर्द बन जाता है प्रेरणा

दर्द
होता है
सबके जीवन में
अलग अलग रूप और रंग में
अलग अलग समय पर
होने वाले दर्द के अर्थ होते हैं
पृथक पृथक

दर्द
किसान के ह्रदय में होता है
जब मेड़ पर बैठा
देख रहा होता है
सूने आसमान में
और खेत निरीहता से
मांग रहा होता है
नन्हे पौधों के लिए जल
बहुत काला होता है
किसान के ह्रदय के दर्द का रंग

माँ
जब पहली बार
बेटी को स्कूल छोड़ कर
लौट रही होती है घर
उसके ह्रदय में भी
होता है उमंग का दर्द
और इस दर्द का रूप
नन्हे पत्तों सा होता है
और रंग
बिटिया के बालों में बंधे
रिबन सा टुह टुह लाल

किसी गाय की आँखों में
झांक कर देखो
वहां मिलेगा
असहाय दर्द
जब बछड़ा बिना दूध के
रम्भा रहा होता है
और बेच दिया जाता है
उसका थन
कई माओं की आँखों में भी
मिल जाता है
ठीक ऐसा ही दर्द

औद्योगिक परिसर में
सुबह सुबह समय पर पहुँचने की जल्दी में
भाग रही औरतों के दिलों में भी
होते हैं कई कई दर्द
बच्चे से अलग होने क़ा
दिन भर घूरती आँखों क़ा सामना करने का
और लौट कर वापिस आने पर
फिर से मसले कुचले जाने क़ा दर्द


ए़क दर्द
होता है जब
लौट रहा होता है
कोई याचना भरा खाली हाथ
मंदिर से

आस्था से भरे
ह्रदय में
देख कर दर्द
मुझे तुम्हारी स्मृति हो जाती है
जब तुमने कहा था
हँसते हुए
दर्द के बिना जीवन कैसा

इस दर्द से
झीनी झीनी रौशनी आती है

आशा की
और दर्द बन जाता है
प्रेरणा

शनिवार, 7 अगस्त 2010

ए़क पृथक ब्रह्माण्ड

देह के विज्ञान से परे
प्रेम का ए़क पृथक ब्रह्माण्ड है
जहाँ के ग्रह और नक्षत्र
परिक्रमा करते है
मन के भावों का

सितारे
अपने अपने स्थान पर
टिके होते हैं
दृष्टि के गुरुत्वाकर्षण से
और
साँसों के घर्षण से
होते हैं दिन और रात

हजारो आकाशगंगाएं
गेसुओं से
निकलती हैं
और अधरों के स्पर्श से
प्रकाश पुंज बन
विलीन हो जाती हैं

उस ब्रहमांड की
तुम हो
पृथ्वी
और मैं
सूर्य

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

धान रोपती औरतों का प्यार

खेतों के बीच
घुटने भर कीच में
धान रोपती औरतों से पूछो
क्या होता है प्यार
मुस्कुराकर वे देखेंगी
आसमान में छाये बदरा की ओर
जो अभी बरसने वाला ही है
और प्रार्थना में
उठा देंगी हाथ

धान रोपती औरतों का प्यार
होता है अलग
क्योंकि होते हैं अलग
उनके सरोकार
उन्हें पता है
बरसेंगे जो बदरा
मोती बन जायेंगे
धान के गर्भ में समाकर
और मिटायेंगे भूख

उन्हें कतई फ़िक्र नहीं है
अपनी टूटी मडैया में
भीग जाने वाले
चूल्हे, लकड़ी और उपलों की
हां , उन्हें
फ़िक्र जरुर है
जो ना बरसे बदरा
सूख जायेंगी आशाएं

जब प्रेमी की याद आती हैं उन्हें
जोर जोर से गाती हैं वे
बारहमासा
और हंसती हैं बैठ
खेतों की मेढ़ पर
गुंजित हो उठता है
आसमान
ताल तलैया
इमली
खजूर
और पीपल
दूर ऊँघता बरगद भी
जाता है जाग
उनकी बेफिक्र हंसी से

फ़िक्र भरी आँखों
और बेफिक्र हंसी के
द्वन्द में जीता है
धान रोपती औरतों का प्यार

चलो हम भी करते हैं
ऐसा ही प्यार
धान रोपती औरतों सा प्यार

बुधवार, 4 अगस्त 2010

लहर

लहर
ए़क बार
ऊपर उठती है
और
दूसरी बार
जितनी उठती है ऊपर
उतनी ही
जाती है नीचे भी

मन के भाव भी हैं
लहर के समान
जब तुम
होते हो पास
यह ऊपर उठती है
ख़ुशी के आवेग से
और जब
तुम्हारे दूर होने का
आता है ख्याल
मन में
यह उतनी ही
चली जाती है नीचे
अवसाद से

मन की
लहरों को
किसी 'लेम्डा' से
मापा भी नहीं जा सकता
ना ही है कोई
दूसरी इकाई

तुम्हारे सिवा

लहर
जो मन के भीतर है
तुम तक
पहुँच रही है क्या !

रविवार, 1 अगस्त 2010

कपडे सुखाती औरतें

बरसात के दिनों में
कपडे सुखाती औरतें
औरतें नहीं होती
प्रबंधक होती हैं

बाहर
जब धूप नहीं होती
कई दिनों तक
वे
घर के भीतर
खिडकियों और दरवाजे के बीच
बनती हैं पुल
पुराने बिजली के तार
या फिर
पुरानी नारियल या जूट की रस्सी की
और
फैला देती हैं
कपडे
मैनेजमेंट की भाषा में इसे
कहा जाता है
क्राइसिस मैनेजमेंट

औरतो को
होता है पता
कौन से कपडे पहले सुखाने हैं
कौन से बाद में
कौन से पहले सूख जायेंगे
और कौन से के सूखने में
लगेगा वक्त
वे कपडे
उसी क्रम में फैलाती हैं
स्कूल कालेजो में इसे
कई बार कहा जाता है
'इन्वेंटरी मैनेजमेंट' भी

वे बच्चों के कपडे
पहले सुखाती हैं
और सुखाते हुए
चिल्लाती भी हैं
बच्चों पर कि
बरसात के दिनों में
वे ज्यादा कपडे गीले करते हैं
फिर भी मुस्कुराती रहती हैं
औरतें


अपने अन्तरंग वस्त्रों को
छुपा के सुखाती हैं
घर के भीतर भी
कई बार
चुन्नी के
या फिर किसी और कपड़ो के नीचे
नहीं छोडती वें
मर्यादा की डोर
कपडे सुखाते हुए भी
बीच बीच में
वे अपना आँचल
ठीक करती रहती हैं
मानो
छत पर सुखा रही हैं कपडे और
कई आँखें कर रहीं हैं
उनका पीछा

कपडे सुखाने की कला
बहुत कुछ कह जाता है
औरतों के बारे में
लेकिन
कहाँ समझ पाए हैं हम
आज तक

जब
गीले मौजे मिलते हैं हमे
चिल्ला उठते हैं हम
बरसात के दिनों में भी
और कहा जाता है कि
औरतों का 'इमोसनल आई क्यू' ही
उनका दुश्मन है

फिर भी
औरतों को प्यार है
बरसात से
बूंदों से
हमसे
बच्चों से

तुम मेरे मित्र

जब तुम
आये थे
मेरे जीवन में
जानता नहीं था
मैं तुम्हे
देखा भी नहीं था तुम्हे
कुछ ठीक से
हां
धड़कता था जरुर
मेरा ह्रदय
तुम्हारी अदृश्य उपस्थिति से
आभासी मौजूदगी से

फिर
तुमने समर्पित कर दिया
अपना जीवन
मेरे लिए
पहले दिन से ही

अब
मेरी मुस्कराहट से है
तुम्हारी हंसी
मेरे सुख में है
तुम्हारा सुख
मेरे दुःख से
दुखती है तुम्हारी आत्मा
व्यथित होते हो तुम
मेरी व्यथा से

मेरी जिम्मेदारियों को
समझा तुमने अपना
मेरे सपनो को दिए तुमने पंख
अपने सपनो की तरह
थामा तुमने मेरा हाथ
जब भी
जहाँ भी
कमजोर पड़ा मैं
बल दिया तुमने
जब भी
निर्बल हुआ मैं
मेरे आंसू
निकले तुम्हारी आँखों से

तुम
परछाई की तरह
लगते हो
मेरे समीप
मेरे ह्रदय के मध्य
मणि बन कर
फिर क्यों ना हो
हर दिन
मित्रता दिवस