मंगलवार, 26 मई 2020

कोरोना

1.

यह युद्ध काल नहीं है 
आसमान में नहीं उड़ रहे 
बम वर्षक विमान 
या फिर सैनिक ही लड़ रहे 
सीमाओं पर 
फिर भी भयभीत हैं हम 
थमे हुए हैं कदम 

2. 

सूरज निकलता है पूरब से 
लेकिन दिन नहीं बदलता 
हमारी दिनचर्या से 
हटा ली गई है व्यस्तता 
और रुक गया है चक्का 

3. 
इन दिनों ईश्वर के चहरों की चमक 
पड़ गई ही फीकी 
अचानक बदल गए हैं 
प्रार्थनाओं के शब्द 
भय ने किया हमें स्तब्ध 

4. 
मनुष्य और मनुष्य के बीच
पहले से ही तरह तरह की दूरियां
वर्ग की, संघर्ष की
अब इसमें जुड़ गई है
एक और दूरी भय की।  


शुक्रवार, 15 मई 2020

महानगर

महानगर 
कोई गांव नहीं हैं
कि उसमें हो 
जानी पहचानी पगडंडियां
जिन पर आप अंधेरे में भी
चल सकते हैं सहजता से। 

महानगर 
कोई गांव नहीं है कि
इसके हर नुक्कड़ पर हो
कोई पुराना पीपल या बरगद
जिसकी छांव के लिए
नहीं चुकाना पड़े किराया या किश्त।

महानगर 
वाकई में गांव नहीं है
जहां सूखे होठों को देख
कोई भी पूछ ले हाल
पिला दे पानी, दे जाए खाना
बैठ जाए दो पल, बांट के सुख दुख। 

महानगर तो इस मामले में
बिल्कुल भी गांव नहीं है कि
यदि किसी आंगन से नहीं उठे धुआं
तो कोई दौड़ा आ जाए लेकर
आग चूल्हे के लिए
किसी के यहां कोई गमी हो जाए
तो पूरा गांव दो सांझ भूखा रहे
जबकि महानगर पटे हैं 
रंग बिरंगे व्यंजनों के लुभाते खबरों से
 लौट रहे हैं महानगरों को बनाने वाले
अपने अपने गांव, भूख और प्यास में डूबे हुए

भूख और प्यास से नहीं पसीजता 
महानगरों की छाती 
क्योंकि वे सचमुच गांव नहीं हैं ।


शनिवार, 9 मई 2020

आप क्या दौड़ेंगे सतीश सक्सेना जी !

(देश में स्वास्थ्य को लेकर बाजार तैयार किया जा रहा है . महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक नियमित रूप से मैराथन दौड़ आयोजित हो रहे हैं . युवा से लेकर बुज़ुर्ग तक इस बाजार का हिस्सा बन चुके हैं . स्वस्थ रहना एक और बात है और भीड़ का हिस्सा बनना एक और बात . खैर . इस लॉक डाउन में जिस तरह मजदूरों की घर वापसी हो रही है उसने व्यथित किया है . इनदोनो भावनाओं के घालमेल से उपजी है यह कविता . अपने मैराथन रनर मित्र और ब्लॉगर श्री सतीश सक्सेना जी से क्षमा सहित . ) 


सतीश सक्सेना जी
जानता हूँ आप दौड़ते हैं मैराथन
दस किलोमीटर , बीस किलोमीटर
चालीस किलोमीटर
लेकिन बता दूं कि
जो दौड़
दौड़ रहा है असोकबा, राकेसबा, अब्दुलबा या रहमनवा
वह न आप दौड़ सकते हैं
न आपके वे हजारों साथी
मेट्रो शहरों के हर हफ्ते होने वाले तमाम इवेंट्स में .

लगे हाथ पाठकों को बता दूं कि
मैं कोई दावा नहीं कर रहा कि
सतीश  सक्सेना कोई काल्पनिक नाम हैं
या काल्पनिक चरित्र है अशोक, राकेश, अब्दुल या रहमान ही .
मेट्रो  शहरों में होने वाले इवेंट्स वाले स्थान भी काल्पनिक नहीं हैं
न ही काल्पनिक वह दौड़ जो दौड़ रहे हैं अशोक , राकेश , अब्दुल या रहमान .
और इनका होना कोई संयोग भी नहीं है
बल्कि वह वास्तविक चक्र है जिनसे ये कभी निकल नहीं पाते और
जब स्थितियां सामान्य होती हैं
हमारे आसपास मौजूद होते हुए भी
हम भांप नहीं पाते हैं इनकी उपस्थिति .

ये जो दौड़ रहे हैं पैदल अपने गाँवों की ओर
ये वहीँ हैं जो बनाते हैं घर
चलाते हैं कारखाने
सिलते हैं कपडे
साफ़ करते हैं गाड़ियां
बुहारते हैं सड़कें
चमकाते हैं माल और थियेटर
आप नाम तो लीजिये
हर जगह मौजूद होते हैं ये
फिर भी आज दौड़ रहे हैं वापिस
अपने गाँव की ओर


यह दौड़ पहले शुरू होती थी गाँव से
और रूकती थी हजार दो हजार किलोमीटर जाकर
बसों, रेलों और पैदल की यह दौड़ अनवरत जारी थी
और यह पहली बार हो रहा है कि
दौड़ उलटी हो रही है
जैसे कई बार नदी बहने लगती है अपनी ही धारा के विपरीत
विषम परिस्थितयों में .

आज इस उलटी दौड़ के लिए जब उपस्थित नहीं है कोई साधन
हौसला देखिये कि ये दौड़ पड़े हैं पैदल ही
कोई हजार किलोमीटर का लक्ष्य लिए है
तो किसी का लक्ष्य डेढ़ हजार किलोमीटर है
सतीश सक्सेना जी एक बार गुना तो कीजिये कि
कितने फुल मैराथन समा जायेगे इस एक दौड़ में .

दौड़ना सबसे आदिम क्रिया है
जो भूल चूका था आदमी स्वयं ही
जो भूल चुकी थी सभ्यता
कंप्यूटर भी सोच नहीं सकता कि
कोई आदमी इस तरह आदम और असभ्य हो सकता है कि
हजार किलोमीटर पैदल दौड़ने का हौसला कर ले
जबकि विज्ञान और तकनीक ने जुटा दिए हैं
आधुनिक से आधुनिकतम साधन
क्या मानव सभ्यता फिर से ऋणी नहीं हो गई इनका
जो उठ चले हैं गाँवों की ओर पैदल ही धता बता कर
आधुनिक साधनों को . 

सतीश सक्सेना जी
देखा है मैंने कि जब आप दौड़ रहे होते हैं  मैराथन
जगह जगह पर खड़े होते हैं लोग
वे देखते हैं कि कितनी दूरी मापी है आपने
कितने समय में
समय और दूरी के इस अनुपात को आप गति कहते हैं
लेकिन ये जो  महानगरों को छोड़ कर जा रहे हैं गाँवों की ओर
इनकी गति की गणना क्या  संभव हो सकती है
क्योंकि महानगरों से जितनी दूर जायेंगे
विकास के गुणक उतनी ही तेजी से घटेंगे
शायद कोई कंप्यूटर इस उलटी गति की गणना करने में सक्षम नहीं
क्योंकि सभ्यताओं के विकास की नीव में पड़ा है इनका श्रम .

पैदल चलने वालों का एक जत्था चल पड़ा है
सूदूर दक्षिण से पूरब की तरफ
एक जत्था सुदूर पश्चिम से चल पड़ा है
उत्तर की तरफ,
उत्तर से कई जत्थे कूच कर दिए हैं  मध्य की तरफ
ये आपके  रनर्स कम्युनिटी की तरह नहीं हैं प्रतिस्पर्धी
इनका बस एक ही लक्ष्य है
जिसे कहते हैं घर
शायद घर ने ही आदिमों को पहली बार बनाया था सामाजिक
समाज की पहली इकाई ही कहते हैं न घर को परिवार को
और जब दुनिया घरों में बंद है
बंद है आपकी दौड़ , आपके इवेंट्स
ये सड़कों को माप रहे हैं 
और आप देख ही रहे होंगे कि इनके कदम
चालीस पचास किलोमीटर के बाद भी बिलकुल नहीं थके हैं
ये हांफ नहीं रहे हैं सतीश सक्सेना जी
बल्कि हांफ रही है सत्ता .


जब रोटी से बड़ी हो जाती है
मिटटी की जिजीविषा
दुनिया की हर दौड़ छोटी पड जाती है
और यदि आपको अपना नाम यहाँ पसंद नहीं  तो
सतीश सक्सेना जी क्षमा सहित  लीजिये
लिख देता हूँ अपना ही नाम -
तुम क्या दौडोगे अरुण चन्द्र रॉय
जो दौड़ रहा है तुम्हारे गाँव का असोकवा, राकेसवा, अब्दुलवा या रहमनवा ! 

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सोमवार, 4 मई 2020

लघुकथा - धर्म

यह उन दिनों की बात है जब समाज में धर्म के नाम पर खुल कर गोलबंदी होने लगी थी। वॉट्सएप के जरिए लोग खेमे में बांटने और बंटने लगे थे। 
मेरे कस्बे के कुछ लोगों ने निर्णय लिया कि वे अपने धर्म के लोगों से सामान खरीदेंगे, मजदूरी कराएंगे। यहां तक कि दर्जी, नाई, मोटर मैकेनिक भी अपने , दर्र्मधर्म विशेष का ढूंढने लगे। 
शहर भर घूम घूम कर सूची बना ली गई। विभिन्न वॉट्सएप समूहों के जरिए यह सूची मिनट भर में एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच गई। इतनी जल्दी तो जंगल की आग भी नहीं फैलती है।
कुछ दिनों में इसका फर्क दिखना भी शुरू हो गया। बाकी सब तो ठीक चल रहा था लेकिन धर्म विशेष का नाई इस कस्बे में एक ही था।
उसकी दुकान पर भीड़ रहने लगी थी। पहले पहल तो उसे बड़ा मज़ा आ रहा था । वह दुकान जल्दी खोलने लगा था। भीड़ इतनी होती कि दुकान बंद करते करते उसे रात हो जाती। घर देर से पहुंचता तो बीबी बच्चे नाराज़ मिलते। घर में कलह रहने लगा। वह तनाव में रहने लगा। उधर दुकान पर भीड़ की वजह से वह चिड़चिड़ा रहने लगा था। 
वह अपने दुकान पर एक और कारीगर रखने के बारे ने सोचने लगा। लेकिन उसे अपने धर्म विशेष का कारीगर मिल ही नहीं रहा था। तीन चार महीने में ही उसकी हालत खराब होने लगी। 

एक दिन उसने दूसरे धर्म के लड़के को समझा बुझा कर काम पर रख लिया। उसे सख्त हिदायत दी कि वह किसी से भी अपने धर्म के बारे में न बताए। एकाध महीना तो ठीक चला। उधर शहर में इस तरह के बंटवारे की वजह से समरसता खत्म हो रही थी। तनाव बढ़ता जा रहा था। 
एक रात वह नाई अपनी दुकान बंद करके घर लौट रहा था। साथ में उसके कारीगर भी था। एक मोड़ पर आकर नाई और उसका कारीगर अपने अपने मोहल्ले की तरफ चल दिए कि सामने शहर के बंटवारे के ठेकेदारों ने देख लिया और नाई की पोल खुल गई। 
अगले दिन वह नाई पास के नाले के किनारे मृत पाया गया। 
उस कस्बे में उस धर्म विशेष का अकेला वह नाई भी अब नहीं रहा। हारकर लोग दूसरे धर्म के नाई के पास धीरे धीरे जाने लगे।