शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

नदी और समय


नदी
रूकती नहीं
समय भी
ठहरता नहीं

नदी
रुकी सी लगती  है
समय भी कई बार
ठहर सा जाता है

समय का  ठहरना
आभासी है
नदी का रुकना भी

नदी चंचल है
समय भी चंचल है 
नदी होती है जिद्दी
रूकती नहीं,  
समय भी 

नदी किनारों से
प्रेम करती है
समय को बस स्वयं से प्रेम है

नदी स्वार्थी नहीं
समय स्वार्थी है

नदी में जो पुल है
वह समय है
समय में जो गति है
वह  नदी ही तो है


बुधवार, 25 अप्रैल 2012

सीधी रेखा और अपारदर्शी झिल्ली


एक रेखा है 
कुछ लोग
उसके नीचे हैं
कुछ लोग ऊपर
कुछ दायें
कुछ बाएं
रेखा सीधी है
इसके नाक कान, दिल सब हैं


रेखा मौजूद है
गाँव, घर देहात,
फैक्ट्री, मैदान,
नदी,  समुद्र,
पहाड़,  जंगल
हर जगह


वैसे रेखा तो
अदृश्य है
किन्तु रेखा के उस ओर रहने वालों को
इस ओर दिखाई नहीं देता
एक अपारदर्शी झिल्ली उभर आती है
दीवार की तरह
रेखा के ऊपर.
चढ़ जाती है
सोच पर , सरोकार पर
और मोटी हो जाती है
झिल्ली


झिल्ली  जो प्रारंभ में
थी रंगहीन गंधहीन
बाद में इसका रंग
कुछ हरा कुछ लाल
कुछ नीला तो कुछ नारंगी हो गया है
कुछ 'इज्म' जुड़ गए हैं
इस झिल्ली के साथ
जिसने  जकड लिया है 
 रेखा  के इस ओर उस ओर रहने वालों को


झिल्ली के बीच
होते रहते हैं  तरह तरह के संवाद
जबकि रेखाओ के बीच गहरी हो  जाती है
गहरी खाई


झिल्ली तय करती है
रेखाओं  की लम्बाई,  मोटाई, 
चौड़ाई और गहराई
इसके पास है
तेज़ तेज़ हथियार जिससे कतर देती है
रेखाओं पर उपजी  कोपलों को
रेखाओं को संज्ञा शून्य , विचारशून्य कर देती है

 रेखा सीधी है और झिल्ली अपारदर्शी .

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

औरत और सब्जी

रसोई में
औरत बनाती है
सब्जी
उसके मन में
होते हैं
पति,
बच्चे
वह खुद नहीं होती

पक रही होती है
वह खुद ही
कडाही में
जबकि
चला रही होती है
सब्जियां

स्वाद होता है
उसकी जिह्वा पर
पति का
होती है
बच्चो की जिद्द
और उनका मनुहार

आशंका होती है
मन के एक कोने में
पति  के चिल्लाने का
बच्चों   द्वारा थाली फेंक  देने का
और भूल जाती है
कब सट गई थी कोहनी
गरम कडाही से

फफोले थक कर खुद ही
शांत पड़ जाते हैं
औरत सब्जी भर रह जाती है  

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

बाबूजी खेत नहीं जाते



इधर कुछ दिनों से
बाबूजी को
लहलहाते  खेत
अच्छे नहीं लगते
डर लगता है उन्हें
पकी हुई  फसल देख
अचानक से रोने लगते हैं
दहाड़े मार मार
हो गया हो मानो
पुत्रशोक


बहुत संभालना पड़ता है उन्हें
पूछने पर बताते हैं कि
चाहते हैं वे
गेहूं कटने से पहले
आग लगा दें
लहलहाते खेतों में
या ओले पड़ जाएँ
प्राकृतिक आपदा आ जाये

बडबडाते हैं
खुद से बाते करते हैं
खुद को अभिमन्यु कहते हैं
जिसके लिए  चक्रव्यूह से बाहर निकलना
असंभव सा है
और समझ नहीं आती
किसी को भी
उनकी बातें


नहीं चाहते
फसल काटने के बाद
गिड़गिडायें
पान चबाते बिचौलियों के सामने
या फिर सरकार की ओर से नियुक्त
मोटे पेट और चश्मा लगाये अधिकारियों के सामने
टेक दें घुटने


हाल में बने
काले काले  बड़े और ऊँचे गोदाम 
कहते हैं शीतघर जिसे,
बाबूजी डरते हैं
उसकी परछाई से
दैत्य सा लगता है वह
जोर जोर से चिल्लाते हैं
शीतघर के दरवाजे पर खड़े हो
कालाबाजार का घर कहते हैं उसे
जला देना चाहते हैं  उस शीतघर को

कुछ लोग कहते हैं
बूढ़े और पागल हो गए हैं
कुछ लोग कहते हैं
आत्महत्या कर लेनी चाहिए उन्हें
गाँव से भगा देना चाहते हैं कुछ लोग


जिन खेतो की मेडों  पर
बचपन और जवानी   के पैरों के निशान हैं
आज उन्ही खेतो में
नहीं जाते हैं बाबूजी

(किस वैशाखी की शुभकामनाएं दे हम बाबूजी को)