मंगलवार, 23 सितंबर 2014

पेड़



पेड़ 
कटते हैं 
बनते हैं 
खिड़की, किवाड़ 
कुर्सी पलंग 
और धर्मशास्त्र रखने के लिए 
तख्त 

दंगा नहीं करते 
पेड़ कभी
कि रोपा था उसे किसी और धर्म के व्यक्ति ने 
और रखा जा रहा है 
किसी और धर्म का शास्त्र 

फिर भी पेड़ नहीं छोड़ता 
अपना धर्म ! 

सोमवार, 15 सितंबर 2014

पीले पत्ते



क्या पेड़ को 
महसूस होता होगा 
पीले पत्ते की कमी 
जो झड़ कर
पड़े हुए हैं नीचे 

नीचे पड़े हुए पत्ते 
कभी सोखते थे 
सूरज से रोशनी 
जड़ो से पोषण 
पेड़ के होने में 
था छोटा सा योगदान 
इन पीले पत्तों का 

प्रतिरोध भी तो नहीं करते 
ये  पीले पत्ते ! 

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

हिंदुस्तान की राजधानी


हुज़ूर 
कहाँ है हिन्दुस्तान की राजधानी !

क्या कहा दिल्ली !
वही दिल्ली जहाँ देश भर से बिजली काट काट कर 
पहुचाई जाती है रौशनी 

वही दिल्ली न 
जहाँ तरह तरह के भवन हैं 
पूर्णतः वातानुकूलित 
करने को हिंदुस्तान और हिन्दुस्तानियों की सेवा 
हाँ उन्ही भवनो की खिड़कियों पर लगे हैं न शीशे 
जहाँ हिन्दुस्तान की आवाज़ न पहुचती है 

हुज़ूर यह नहीं हो सकती हिन्दुस्तान की राजधानी 

राजपथ पर चलते हुए जहाँ 
हीनता से ग्रस्त हो जाता है हिंदुस्तान 
लोहे के बड़े बड़े सलाखों से बने दरवाजों के उस ओर राष्ट्रपति 
अपने राष्ट्रपति नहीं लगते 
सुना है राजधानी में है कोई संसद
जिसकी भव्यता से हमारी झोपड़ी की गरीबी और गहरी हो जाती है 

ऐसी भव्य नहीं हो सकती हिन्दुस्तान की राजधानी 

यह वही दिल्ली हैं न 
जहाँ प्रधानमंत्री अक्सर गुजरते हैं 
और खाली कर दी जाती है सड़के 
ठेल ठाल कर उनके मार्ग से किनारे कर दिए जाते हैं हम 
कितना दूर है मेरा गाँव , देहात , क़स्बा 

क्या इतनी दूर हो सकता है हिंदुस्तान की राजधानी  ! 

सोमवार, 8 सितंबर 2014

विशेषण



यह समय 
विशेषण का समय है 

लिफ़ाफ़े पर शुद्ध लिखने से 
शुद्ध हो जाता है 
लिफाफे के भीतर का वस्तु 

प्रबुद्ध कहने से 
शहर के वे सब लोग प्रबुद्ध हो जाते हैं 
जो जुटते हैं तमाम समारोहों में 

नाम के पहले श्री लगा देने भर से 
"श्री" हो जाते हैं वे 
जिनके कुछ दांत खाने के हैं , कुछ दिखाने के 

आस्तीन में पाले होते हैं सांप 
वे महान कहे जाते हैं 
इन्ही विशेषणों के आधार पर ! 

शनिवार, 6 सितंबर 2014

सूई-धागा




वह 
अब नहीं डाल पाती है 
सूई में धागा 
आँखे कमजोर हो गई हैं 
उम्र के साथ 
दूर तक नहीं देख पाती 
पास का भी 
नहीं दीखता उसे स्पष्ट

उधड़े रिश्तो को 
कैसे सिले वह ! 




गुरुवार, 4 सितंबर 2014

हताश


दरवाज़े हैं 
बंद 
खिड़कियों पर 
मढ़ दिए गए हैं
शीशे 

हवाओं के लिए भी 
नहीं है 
कोई सुराख़ 

आसन्न है 
अंत !

बुधवार, 3 सितंबर 2014

नदी और पुल से फेंके गए सिक्के






एक छोटी नदी 
बहती थी मेरे गाँव  के  पास से 
कई नाम थे उसके 
मेरे गाँव में आने से पहले 
कमला थी वह 
मेरे गाँव से गुज़र जाने के बाद 
बलान हो जाती थी 
कोसी में मिलने के समय उसका नाम होता था 
करेह 

इस नदी में चलती थी नाव 
नहाती थी भैंसे 
विसर्जित होती थी प्रतिमाएं 
फेंके जाते थे जाल मछलियों के लिए 
और पुल से कूद जाती थीं लडकियां कभी कभी 
जो मिल जाया करती थी गंगा मैया से 

बूढ़ी औरते इस छोटी नदी को समझती थी 
सिमरिया वाली गंगा 
और पुल से फेंकती थी सिक्के 
पहले पांच के, दस के, बीस पैसो के  
फिर चवन्नी, अठन्नी, 
और इन दिनों फेंकती हैं 
रूपये, दो रूपये और कभी कभी पांच रूपये के सिक्के भी 
मन ही मन बुदबुदाती हुई कुछ 

मैं बचपन से सोचता रहा 
नदी कैसे बनती है 
कैसे बहती है 
कैसे अप ने  पेट मे रखती है 
मछलियाँ, कूदी हुई लड़कियों के राज़ 
और पुल से फेंके गये सिक्के 
प्रार्थनाओं के संग 

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

कलवर्ट



गाँव के बाहर 
हुआ करता था 
एक कलवर्ट 
जिसके नीचे से बहता था 
ऊंचाई से नीचे की ओर 
बारिश का पानी 
इसपर बैठ होती थी बहसें 
सुना जाता था कभी 
रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री 

यही बैठ जो कभी रटते थे 
रसायन विज्ञान के सूत्र 
अफसर बन चले गए 
राजधानी की ओर 
और लौटे नहीं फिर कभी 
कलवर्ट पर. 

कलवर्ट 
आज अकेला जोहता है बाट 
कोई आये 
करे बहस, सुने कमेंट्री 
रटे रसायन के सूत्र 
इसके नीचे से बहे 
ऊंचाई से नीचे की ओर पानी 

किन्तु क्या प्रयोजन है कलवर्ट का 
जब बह रहा हो पानी 
नीचे से ऊपर की ओर चारो तरफ 
कलवर्ट का एकाकीपन पसर रहा है 
गाँव गाँव घर घर !