साँसों में जाने वाला धुंआ
कहीं अधिक खतरनाक है
भीड़ द्वारा पत्थर मारने के
या दंगा में दुकानों के जलाने के
या भीड़ द्वारा किसी की हत्या के
या कोई धार्मिक किताब ही जलाने के
लेकिन साँसों में जाने वाले धुंआ के लिए
कभी नहीं खौलता हमारा खून .
साँसों में जाने वाला धुंआ
कहीं अधिक खतरनाक है
भीड़ द्वारा पत्थर मारने के
या दंगा में दुकानों के जलाने के
या भीड़ द्वारा किसी की हत्या के
या कोई धार्मिक किताब ही जलाने के
लेकिन साँसों में जाने वाले धुंआ के लिए
कभी नहीं खौलता हमारा खून .
1.
बम्ब जहाँ गिरता है
गिनती तो होती है आदमियों के मरने की
नहीं गिनती होती है कि
कितनी तबाह हुई मिट्टी.
2.
बारूद के फटने से
खून से सने बच्चों को तो गिन लेते हैं हम
नहीं गिने जाते हैं
गिरे हुए पेड़ , झुलसे हुए पत्ते.
3.
राकेटो के धमाके से
इसकी खबर तो आती है कि टूट गए हैं बाँध
नहीं खबर आती है कि
मर गईं हैं सैकड़ों मछलियाँ.
4.
टैंको की धमक से
टूटी सड़कों की तस्वीरें छा जाती हैं
दुनियाँ भर में
अनखिची रह जाती हैं
चिड़ियों के घोंसलों से गिरे अण्डों की तस्वीरें.
हममें रावण
तुममे रावण
हम सब में
रावण रावण
ऊपर रावण
नीचे रावण
क्षितिज क्षितिज
रावण रावण
पूरब रावण
पश्चिम रावण
दशों दिशा में
रावण रावण
भीतर रावण
बाहर रावण
मन मानस में
रावण रावण
पल में रावण
क्षण में रावण
घट घट में
रावण रावण
कहां नहीं है
रावण रावण !
किसमें नहीं है
रावण रावण !
क्यों उसका हम
वध करें
पूछ रहा है यह
रावण रावण।
जितनी अधिक
संहारक शक्ति होगी
होगी उतनी ही अधिक पूछ
उतने ही अधिक होंगे दोस्त
संहार के जयघोष से
अखबारों के पन्ने होंगे भरे
उतना ही अधिक बढ़ेगा
बाजार में व्यापार ।
अहिंसा की समाधि पर
फूल चढ़ाने की परंपरा
शायद कभी खत्म न हो
इस सभ्य दुनिया में।
पकने लगे हैं धान
बजने लगा है
हवा में संगीत
घुलने लगी है
ठंढ, धूप में .
झड़ने लगी है
रातरानी
लदने लगे हैं
अमलतास ओस से
पकते हुए धान के साथ .
खलिहान की आतुरता
देखते ही बनती है
धान के स्वागत के लिए .
बनती हैं
प्रतिमाएं मिट्टी की
बड़े जतन से कुम्हार
गढ़ता है सबसे पहले पैर
और आखिरी में आँख ।
आँखों के खुलते ही
प्रतिमा में प्रतिष्ठित हो जाते हैं प्राण !
सचमुच ,आँखों में ही बसते हैं प्राण ।
पेड़ से पत्तों को
होना ही होता है अलग
नियम है यह प्रकृति का
लेकिन पत्तों को सायास
पेड़ से अलग करना
है प्रवृत्ति मानवीय !
समय से फलों को
होता ही है पकना
नियम है यह प्रकृति का
लेकिन फलों को
सायास पकाना
है प्रवृत्ति मानवीय !
समय से उम्र को
ढलना ही होता है
नियम है यह प्रकृति का
लेकिन रोकना उम्र को ढलने से
है प्रवृत्ति मानवीय !
वर्ष २०२३ के लिए साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता जॉन फ़ॉस की कविताओं का हिंदी अनुवाद
1 (THE MOUNTAIN HOLDS ITS BREATH)साँसें
रोक कर खड़ा पहाड़ उसने
ली गहरी साँस और
फिर वहीँ टिक गया पहाड़ और
पहाड़ वहीँ टिका रहा सदियों तक और
इस तरह पहाड़ बचाए रहा अपना अस्तित्व और
उसकी जड़ें नीचे धसती रहीं गहरी
और बहुत गहरी स्वयं
में लिपटी हुई और
थामें हुई अपनी साँसें स्वर्ग
और समुद्र जब
मचा रहे हाहाकार रोके
हुए हैं अपनी साँसें, पहाड़ . |
2 LIKE A BOAT IN THE FINE WINDतूफ़ान
में नाव की भांति मैं
और तुम तुम
और चाँद तुम
और हवा तुम
और ये झिलमिल सितारे शायद मिटटी
में दबकर सड़
रही लाशों की तमाम
दुर्गंधों के
बीच कई
लोग, मेरी तरह या
उनकी तरह जो दफ़न
कर देते हैं अपनी हतोत्साहित
आशाएं बिना
किसी पीड़ा के. हाँ!
किसी तूफ़ान में नाव की भांति मैं
और तुम . |
3 ONLY KNOWजो
केवल हम जानते हैं गीत, समुद्र
का गीत पहाड़
की चोटियों से निकलकर छा
जाता है आसमान के वितान पर नीले
क्षितिज पर, गुनगुनाते हुए साथ
साथ हैं हम और
जहाँ हम नहीं कहते कुछ भी एक दूसरे से और
अनकहा, जो
केवल हम जानते हैं ! |
न झूठी अब लिखाई चाहता हूं।
बदलना रोशनाई चाहता हूं ।। ।1।
कई खबरें हैं खबरों से परे जो,
मैं उनकी भी छपाई चाहता हूं। ।2।
हैं रंगों ने किये सब कैद झंडे,
इन्हें देना रिहाई चाहता हूं। ।3।
सभी पुर्जे निजामत के सड़े हैं
मैं इनकी अब सफाई चाहता हूं। ।4।
हवा, फल, फूल, छाया पेड़ देते,
तो क्यों इनकी कटाई चाहता हूं ? ।5।
आप जबसे हमारे सनम हो गए
क्या कहूं आप बेरहम हो गए
लूट हत्या दंगे हो रहे आए दिन
खून खौलता नहीं सब नरम हो गए
जंगल जल रहे, ढह रहे पहाड़
कुदरत के तेवर भी गरम हो गए
नफरत के झंडे हो रहे बुलंद
कैसे ये हमारे धरम हो गए
डूबते को मिलता तिनके का सहारा
कैसे कैसे ये मुझको भरम हो गए ।
ये दुनिया गोल है प्यारे
तेरा भी मोल है प्यारे
बिकेगा सब यहां देखो
तेरा भी तोल है प्यारे
भिंची हैं मुट्ठियां मेरी
अंगारा बोल है प्यारे
बिठाए पहरे होठों पर
खुली जो पोल है प्यारे
मिलाता क्यों नहीं नजरें
कहीं कुछ झोल है प्यारे
रंगों में बंट गई धरती
ये क्या भूगोल है प्यारे
ये जो आंचल है माता का
बड़ा अनमोल है प्यारे
बहुत दिनों बाद मिले
बीज बेचने वाले बाबा
पूछा कि कैसे रहे पिछले दिन
उन्होंने कहा सब ठीक है,
लेकिन कहां है सब ठीक?
पेड़ के नीचे बैठ कर
पुराने कपड़ों को ठीक करने वाले बाबा
बहुत दिनों बाद दिखे
थके हुए कदम और उदासी आंखों में भर कर
वे उसी पेड़ के नीचे खाली बैठे मिले।
पूछने पर बताया कि
वे भी ठीक है,
लेकिन कहां है सब ठीक?
वो चौंक पर बैठता है एक चाभी बनाने वाला
वह भी कहां दिखाई दिया साल भर से
उसका बोर्ड अब भी टंगा था
फोन मिलाया तो उसने भी कहा
सब ठीक है
लेकिन कहां है सब ठीक?
ऐसे ही ज़िन्दगी के आसपास
रोज़ दिखने वाले जब नहीं दिख रहे
या कमजोर या उदास दिख रहे हैं
फिर भी कह रहे हैं सब ठीक है
तो मत समझिए कि सब ठीक है।
हां
जब सब ठीक नहीं है
तब भी सब ठीक कहना
और कुछ नहीं बल्कि है
आदमी के भीतर बसी
जिजीविषा और आशा
यही उसे खड़ा करता है
हर बार गिरने पर
संबल देता है
लड़खड़ाने पर।
ठीक है कि अभी
सब ठीक नहीं लेकिन
कल होगा सब ठीक ।
ऐसा कौन है
जिसके घुटने में नहीं है दर्द
जिसे नहीं हो रही कठिनाई
सीढ़ियाँ चढ़ने या उतरने में
फिर भी क्या कभी सुना कि
किसी ने पूछा हो
आपके घुटने का हाल
या बताया हो
अपने ही घुटने का हाल ।
दरअसल जो जरूरी है
वह हो नहीं रहा दुनियाँ में
और गैर जरूरी संवादों से भरी दुनिया
होती जा रही है संवाद और संवेदना हीन ।
घंटों मोबाइल या लैपटॉप या कंप्यूटर की सकीं से
बुझी आँखों के पीछे जो दर्द होता है
घुटनों का , रीढ़ की हड्डी का या ढीली पड़ती पकड़ का
उसका जिक्र कहाँ करना चाहता है कोई
और करे भी कैसे जब कोई सुनना ही नहीं चाहता ।
थक रहे कदमों, बुझ रही आँखों
और आँगन के सूनेपन की अभिव्यक्ति के लिए
नहीं बन सकता पंद्रह बीस सेकेंड का कोई रील ।
पिता अब नहीं हैं
नहीं है मां भी अब
ऐसा तो कह नहीं सकते
क्योंकि वे हैं अब
अपनी वसीयतों में
दस्तावेजों में।
शायद रह जाता है
यही शेष
दस्तावेज
मैं रहना चाहूंगा शेष
अपनी कविताओं में।
मुझे लगता था कि
मेरे पास है समाधान
दुनियां भर की समस्याओं का
कि अगर मैं किसी देश के राष्ट्रपति से मिल लूं
तो रोक लूंगा उसे अपने पड़ोसी राष्ट्र पर बम गिराने से ।
मुझे लगता था कि
यदि कभी किसी दंगाई से मिला तो
उसकी तलवार के नोक पर
रख दूंगा एक गुलाब का फूल
और कहूंगा कि किसी को मारने से पहले देख ले अपनी जेब में रखी बेटी की तस्वीर एक बार
मुझे यकीं था कि वह दंगाई नहीं रहेगा फिर ।
मुझे यह भी लगता था कि
देश की वित्तमंत्री तक यदि पहुंच जाऊं मैं
तो समझा लूंगा उन्हें कि
सीमा पर तोप से कहीं अधिक जरूरी हैं
मेरे गांव के स्कूल में शिक्षक, पंचायत में अस्पताल
और वे थपथपा कर मेरी पीठ मान जायेंगे मेरी बात।
कितना गलत था मैं
जब मेरी कोशिशों के सब बीज खोखले निकले
अंकुरित नहीं कर पाया एक भी पौधा प्रेम और विश्वास का
भरोसे की कलम सूख गई नमी की कमी के कारण और
अपनी तमाम कोशिशों के लिए कहलाया मैं मसखरा ।
फिर कहूंगा, चाहे कोई सुने न सुने
मसखरों की बातें जो सुनती दुनियां
सीमाओं पर बाड़ नहीं होते
हाथों में हथियार नहीं होते
गुलाब की खेती होती
तलवारों की जगह हाथों में होते कलम
बस एक दिन किसी मसखरे के हाथों में दे दो दुनियाँ की बागडोर।
युद्ध अभी खत्म नहीं हुये
युद्ध अभी खत्म भी नहीं होंगे
फिर कब तक कोई रोये
इस युद्ध के लिए ।
युद्ध में अब नहीं है वह भेद
कि इसने किया है पहला प्रहार
युद्ध में अब नहीं है वह संयम
कि बैठ कर सुलझा लें मसले
अब वे पक्ष भी नहीं हैं जो कह दें कि
दोनों पक्ष को बैठा कर करा दें सुलह
फिर कब तक कोई रोये
इस युद्ध के लिए ।