सोमवार, 27 अगस्त 2018

निसीम एजेकिल की कविता "आइलैंड"

भारतीय अंग्रेजी साहित्य के महत्वपूर्ण कवि  निसीम  एजेकिल की कविता "आइलैंड" , मुंबई के जीवन झोपड़पट्टी और गगनचुम्बी इमारतों के बीच चकाचौंध में उपजे अनमनेपन की कविता है।  इसका अनुवाद करने की असफल कोशिश की है।  


द्वीप
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किसी संगीत या समझ के लिए अनुपयुक्त
द्वीप में उग आती हैं झोपड़ियां व गगनचुंबी इमारतें, 
मेरे मस्तिष्क के विकास को ठीक ठीक 
प्रतिबिंबित करती हुई। 

मैं इसके भीतर ढूंढ रहा हूँ अपनी दिशा , अपना रास्ता। 

कभी-कभी मैं  रोता हूं मदद के लिए
लेकिन अधिकतर  मैं खोया रहता हूँ खुद  में ही ।
अपनी महत्वाकांक्षा  की चिंघार 
मानव होने का दावा करते दैत्यों की विकृत झंकार 
बजते हैं मेरी कानो में ।

द्वीप में बहती हैं 
सम्मोहित करने वाली भड़कीली हवाएं 
अतीत को करते हुए वर्तमान से अलग;
अपनी अज्ञानता की गंध में बेसुध सोते हुए मैं 
महसूस करता हूँ  फिर से वही हवा 
मानो मोक्ष की असीम भावना में लिप्त आत्मा का आनंद 
की इच्छा कैसे एक दिशा में लिए जा रहा है मुझे ? 

मैं इस द्वीप को नहीं त्याग सकता।  

यहीं  जन्मा था मैं और यही का हूँ।  
अब दैनिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं 
कई कई चमत्कार। 
मेरे जीवन की शांन्ति और कोलाहल की गति को 
नियंत्रित करते हैं पूरी तरह 
एक अच्छे बासिन्दे की भांति।  

- अनुवाद : अरुण चंद्र रॉय 
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मूल कविता 

Island 

Unsuitable for song as well as sense
the island flowers into slums
and skyscrapers, reflecting
precisely the growth of my mind.
I am here to find my way in it.
Sometimes I cry for help
But mostly keep my own counsel.
I hear distorted echoes
Of my own ambigious voice
and of dragons claiming to be human.
Bright and tempting breezes
Flow across the island,
Separating past from the future;
Then the air is still again
As I sleep the fragrance of ignorance.
How delight the soul with absolute
sense of salvation, how
hold to a single willed direction?
I cannot leave the island,
I was born here and belong.
Even now a host of miracles
hurries me a daily business,
minding the ways of the island
as a good native should,
taking calm and clamour in my stride. 
Nissim Ezekiel