सोमवार, 12 नवंबर 2012

माँ और दीपावली



माँ के लिए
दिवाली आ जाता है
हफ्ता भर पहले ही

घर के कोने कोने तक
पहुच जाती है माँ
जहाँ होती है
चूहों  का  बसेरा
सीलन
अँधेरा
माँ दिवाली कर आती है
घर के अँधेरे कोनो में

सबसे आखिर में
माँ निकलती है
अपनी सबसे पुरानी पन्नी
जिसमे कई गत्तो के नीचे
पड़ी होती है
कुछ पुरानी कढाई,
कुछ जंग लगी सुइयां
कुछ अधूरे चित्र
जिन्हें इस बरस पूरा करने को सोचती है
यह सिलसिला
दशको पुराना है

होती हैं
इन्ही गत्तों के बीच
कुछ सपने
जिन्हें माँ छोड़ आई होती हैं
जिंदगी के किसी मोड़ पर
दिवाली पर
उन सीलन भरे सपनो को भी
धूप और दीया दिखाती है


माँ  के लिए
दिवाली का मतलब
कुछ सपनो को
फिर से अँधेरे गत्तो के बीच सहेज कर
रख देना होता है
और फिर रोशन करना होता है
घर, आँगन, चूल्हा, चौका, छत।

माँ के जीवन का तिमिर
किसी दीप से नहीं गया
सदियों से

(दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं )

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

औसत लोग



जो होते हैं
औसत
उनका कुछ भी नहीं
न धरती, न आसमान,
न  हवा न पानी
न होते हैं वे वोट ही

क्योंकि
वे लड़ नहीं सकते
कोई युद्ध
वे बन नहीं सकते
किसी क्रांति का हिस्सा
उनमे जोश का
गुबार नहीं होता
वे इश्वर के
अनचाहे संतान की तरह
होते हैं
अपने ही भरोसे

चूँकि औसत लोग
तन या मन से विकलांग नहीं होते
नहीं बनती कोई विकलांग नीति उनके लिए
उनके हिस्से
नहीं आती कोई
राजकोषीय सहायता
कोई विशेष योजना
वे हिस्सा नहीं होते
तथाकथित 'इन्क्लूसिव ग्रोथ' के

औसत लोग
न हाशिये के ऊपर होते हैं
न होते हैं हाशिये के पार
उनकी न कोई मंजिल होती है
न कोई राह

मैं
एक औसत व्यक्ति हूँ
संज्ञाहीन