सोमवार, 26 जून 2017

कविता की पहली हार




आज जो चौकीदारी करता है 
मेरे मोहल्ले में 
वह जो चौक पर लगाता है 
पंक्चर की दूकान 
वही जो शाम को लगा जायेगा 
भुट्टे का खोमचा 
उबले हुए अंडे थी ठेली 
सब्ज़ियों की दूकान 
वह हमारी कविताओं में है , 

हाँ, सही जानते हैं आप 
उसे पढ़नी नहीं आती 
पढ़नी भी आती है तो 
कविता नहीं पढता वह 
किताबे देने पर कहता है 
सुना दो बाबूजी 

मैं कहता हूँ, 
कवि लिखता है 
सुनाता नहीं है 
वह हँसता है और गुनगुनाने लगता है 
किसी फिल्म का प्रसिद्द गीत
पहली बार कविता ऐसे ही हारी होगी 
जब किसी कवि ने सुनाने से मना किया होगा कविता
किसी कम पढ़े-लिखे को 

आओ , बैठो 
सुनाता हूँ मैं एक कविता।  

शुक्रवार, 23 जून 2017

जनकवि का शताब्दी वर्ष और मेरे मोहल्ले का चौकीदार


मुक्तिबोध हुए हैं 
हिंदी के बड़े कवि 
उनकी शताब्दी वर्ष मनाई जा रही है 
स्कूलों में , कालेजों में , विश्वविद्यालयों में 
संस्थानों में 
कुछ लोग कहते हैं कि 
उनसे भी बड़े कवि थे त्रिलोचन , नागार्जुन और कई अन्य नाम लेते हैं वे 

इनकी कविताओं से सरकारें हिल जाया करती थी 
सुनाते हैं विश्वविद्यालय के लोग मंचो से 
यह भी सुनाते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था डर जाती थी 
वे सब कहाये जनकवि , मजदूरों के कवि , लोककवि 

उनकी कविताओं से डरते डरते 
पूंजीवादियों ने लील ली जंगलें, पहाड़ और नदियां 
कब्ज़ा कर लिया सरकारों पर , संस्थानों पर , विश्वविद्यालयों पर 
उन्होंने खड़ी कर ली सामानांतर संसथान, विश्वविद्यालय, कालेज और स्कूल 
और उनके शिष्य करते रहे गोष्ठियां , सेमीनार, बहस 
निकालते रहे पत्रिकाओं के विशेषांक 

अपने मोहल्ले के चौकीदार जो कि आया है इन्ही कवियों के गाँव की तरफ से 
पूछता हूँ कवियों के नाम , उनका हालचाल तो अनमने ढंग से मुस्काता है 
जवाब में वह गाता है कबीर के दोहे और तुलसी दास की चौपाइयां।  

बुधवार, 21 जून 2017

तथास्तु



ईश्वर ने 
पत्थर बनाये और उनमे भर दिया दृढ़ता 
फिर उसने बनाये नदियां और उनमे भर दी चंचलता 
ईश्वर ने बनाया वृक्ष और उनके भीतर भर दिया हरापन 
उसी ईश्वर ने बनाया मिटटी और धीरज भर दिया उसके कण कण में 
ईश्वर ने ही बनाया अग्नि और उसमे भरा तेज़ 
फिर ईश्वर ने पत्थर से ली उधार दृढ़ता,
नदी से चंचलता,
वृक्ष से हरापन,
मिटटी से धीरज
और अग्नि से तेज़ 
और बनाया स्त्री
उसके रोम रोम में भर दिया करुणा और प्रेम 
फिर ईश्वर तथास्तु कहकर चला गया पृथ्वी से 

स्त्री के बाद कुछ और शेष नहीं सृष्टि में ! 

मंगलवार, 20 जून 2017

जीवन शून्य है





सैकड़ो बार कहे जाने के बाद भी 
हम दुहराते हैं कि 
जीवन शून्य है 
और आश्वस्त होते हैं 
माया मोह के बंधन से दूर हैं हम 

जितनी बार दुहराते हैं शून्य 
शून्य का  धागा  
मनोकामना के धागे की तरह 
मजबूती से लिपट जाता है 
हमारे चारो ओर 
कुछ  आशाओं के संग 

शून्य का यह डोर 
चलता रहता है हमारे साथ 
साँसों की डोर के सामानांतर 
और कहता है शून्य नहीं है जीवन 

सोमवार, 19 जून 2017

मिट्टी



नमी रखकर 
अपने भीतर 
बीज को देती है गर्मी 
बीज पनपता है 
देता है फल फूल 
और गिरकर 
मिट्टी बन जाता है 

मिट्टी 
न तो बीज के वृक्ष बनने पर 
इतराती है 
न उसके मिट्टी में मिलने पर 
करती है विलाप /रोदन 

मिट्टी गर्म होती है धूप से 
वह गीली होती है पानी से 
वह पक कर आग में ईंट हो जाती है 
कुम्हार के चाक पर ढल जाती है 

फिर से मिट्टी होने पर  उसे कोई गुरेज़ नहीं 
यही है मिट्टी की सबसे बड़ी पहचान।  


शुक्रवार, 16 जून 2017

समझ

समझना 
एक कला है 
किन्तु 
आज इसे 
विज्ञान के सिद्धांतों की तरह 
कसौटी पर जाता है 
कसा।  

मंगलवार, 13 जून 2017

किसान की व्यथा




खाली मेरी थाली 
भरा है तेरा पेट 
अन्न उगाऊं मैं 
खाऊन मैं सल्फेट 


मिटटी पानी से लड़ूँ 
 उसमे रोपूँ बीज 
पसीना मेरा गंधाये
महके तेरी कमीज़ 


खूब जो उगे मेरी फसल 
गिर जाए इसका मोल 
कोल्डस्टोरेज में भरकर 
पाओ तुम दाम अनमोल 


जो व्यापारी बन गए 
उनके खुले हैं भाग्य 
जो बैठे धरती पकड़ 
रोये अपने दुर्भाग्य 


गेहूं  न फैक्ट्री उपजे 
कंप्यूटर न बनाए धान 
जिसदिन देश ये समझे 
बढे किसान का मान 

सोमवार, 12 जून 2017

विश्राम




समय 
तुम कब रुके थे आखिरी बार 
याद है क्या तुम्हे 
विश्राम का कोई एक पल 

समय क्या तुम रुके थे 
जब सीता के लिए फटी थी पृथ्वी 
या फिर राम ने ली थी जल समाधि 
द्रौपदी के चीरहरण पर 
अभिमन्यु की मृत्यु पर ही।  

समाधिस्थ हो रहे बुद्ध को देख भी 
समय तुम नहीं ठहरे 
न ही ठहरे तुम नालंदा को जलते देख 
कलिंग के भीषण नरसंहार को देख भी 
तुम्हे वितृष्णा नहीं हुई 
 रुके नहीं तुम, समय 

हिरोशिमा और नागाशाकी में 
आधुनिक विज्ञानं के चमत्कारिक नरसंहार के 
बने तुम साक्षी 
समय, तुम क्यों नहीं करते विश्राम !

तुम रुक गए तो क्या होगा अधिक से अधिक 
गहन अन्धकार की सुबह नहीं होगी 
किन्तु क्या तुमने सोचा है कितना अन्धकार है 
इस रौशनी के पीछे ! 

समय, तुम्हे विश्राम की आवश्यकता है, जाओ, ठहर जाओ।  

बुधवार, 7 जून 2017

बर्फ




बर्फ बोलते नहीं 
पत्थरों की तरह 
वे पिघलते भी नहीं 
इतनी आसानी से 
वे फिर से जम जाते हैं 
जिद्द की तरह।  



बर्फ का रंग 
हमेशा सफ़ेद नहीं होता 
जैसा कि दिखता है नंगी आँखों से 
वह रोटी की तरह मटमैला होता है 
बीच बीच में जला हुआ सा 
गुलमर्ग के खच्चर वाले के लिए 
तो सोनमार्ग के पहड़ी घोड़े के लिए 
यह हरा होता है घास की तरह 


बर्फ हटाने के काम पर लगे 
बिहारी मजदूर देखता है 
अपनी माँ का चेहरा 
जमे हुए हाथों से 
बर्फ की चट्टानों को हटाते हुए 

बर्फ 
प्रदर्शनी पर लगे हैं 
इनदिनों 
जिसका सीना छलनी है 
गोलियों के बौछार से 
तो इसका मस्तक लहूलुहान है 
पत्थरबाज़ी से।