समय नहीं
यह है शोक का समय।
नागरिक तो पहले मरे हैं
उनसे पहले मरी है
नैतिकता और मानवता
अस्पतालों में
दवाई की दुकानों पर
गोदामों और
धनकुबेरों के तहखानों में।
कौन कहता है कि
सांसे नहीं मिलने से मरे हैं लोग
वास्तव में मरी है
संवेदना सत्ता की, अधिकारियों की
या कहिए सम्पूर्ण प्रणाली की
नीतियों की और नियंताओं की।
यह व्यक्तिगत नहीं
सामूहिक शोक का समय है
अशेष संवेदनाओं के आत्महत्या का समय है यह।