बुधवार, 6 नवंबर 2013

जब कोई मरता है



जब कोई मरता है 
मैं चाहता हूँ 
खा लूं भर पेट भात 
डरता हूँ मैं 
मरने से 

जब कोई मरता है 
मैं चाहता हूँ 
उतार कर फेंक दूं 
अपने सारे कपडे 
नंगा हो जाऊं 
डरता हूँ मैं 
भार से 


जब कोई मरता है 
मैं चाहता हूँ 
मुनादी करवा दूं 
गाँव गाँव 
शहर शहर 
डरता हूँ मैं 
कहीं लौट न आये वह 

किसी के मरने से 
बहुत खुश होता हूँ मैं 
क्यूँ कि 
मरने वाला नहीं लौटेगा 
वसूलने उधारी 
सलटाने बकाया हिसाब 




सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

वह कामरेड न हो सका




उसे 
बोझ ढोने से 
फुर्सत नहीं मिली 
जो बनाता 
मुट्ठियाँ
लगाता नारे 
उठता झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

उसके घर का चूल्हा
 दो वक्त 
जला नहीं कभी 
नियमित 
जो जा सके वह 
किसी रैली में 
सुनने किसी का भाषण 
ढोने पार्टी का झंडा 
वह कामरेड न हो सका 

वह कभी 
स्कूल न गया 
फिर कैसे पढ़ पाता वह 
दास कैपिटल 
वह सुनता रहा 
मानस की चौपाइयां 
कबीर की सखियाँ 
वह कामरेड न हो सका 

उसे 
बचपन से ही 
लगता था डर 
लाल रंग से 
प्राण निकल जाते थे उसके 
छीलने पर घुटने 
उसे प्रिय था 
खेतो की हरियाली 
वह कामरेड  हो न सका 

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

मुआवजा

उसने नहीं लगाईं  फांसी 
वह कर्जे में नहीं डूबा  
उसके खेत सूखे रह गये 
आसमान तकते तकते 
उसके हिस्से नहीं आयेगा 
कोई मुआवजा  

वह नहीं मरा 
रेल दुर्घटना में 
वह कभी मंदिर नहीं गया 
सो नहीं मरा 
भीड़ में 
उसे नहीं मिलेगा कोई मुआवजा । 

उसका नाम 
नहीं है किसी सरकारी खाते में 
वह किसी रेखा के ऊपर या नीचे नहीं है , 
नहीं मिलेगा उसे 
दाल, चावल, चीनी, किरोसिन 
रियायत दर पर।  


परिधि से बाहर हैं 
जो लोग  
उन्हें नहीं मिलेगा 
कोई मुआवजा !

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

कालेज की कैंटीन और ब्लैकबेरी पर इन्टरनेट सर्च

जरुरी नहीं कि
जो कविता मैंने पढ़ी हैं
अपने छात्र जीवन में
वह आपने भी पढ़ी हो
जैसे लव सांग आफ जे एल्फ्रेड प्रुफ्रोक
और जीवन को समझने के लिए
कविता आवश्यक हैं
यह भी जरुरी नहीं है
हाँ एक कैंटीन जरुरी है
जुगाली के लिए

ठीक है कि
मेरे कालेज की  कैंटीन
लगती थी मुझे
इस कविता के पात्र की तरह
गीला फर्श
जो कभी सूखा ही नहीं
जैसे नहीं सूखते हैं
देश में मुद्दे
और उन मुद्दों पर बहस करते हुए
मैं कवि टी एस एलियट सा लगता था
जिन्होंने लिखा था 'लव सांग ऑफ़ जे एल्फ्रेज़ प्रुफ्रोक '
उद्वेलित हो उठता था
और कैंटीन में आते जाते मेरे सहपाठी
मुझे बस पात्र से लगते थे, निर्जीव
लक्ष्य विहीन नपुंसक

उनके चेहरे कई अर्थ लिए होता था
उनका चरित्र कई रूपों में होता था
और मैं मानो
समझ रहा था सभी अर्थ
पहचान रहा था सभी रूप
मैं भी एक प्रेम गीत लिखना चाहता था
ज़े एल्फ्रेड प्रुफोक की तरह
कडाही से वाष्पित होते तेल की चिपचिपाहट के बीच

वही कैंटीन है यह
जहाँ कार्ल मार्क्स की पूंजी कई बार बांच गया
मन के उकताने पर
फाड़ डाली कई प्रतियां पूंजी की
इसी कैंटीन से खोला गया
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ मोर्चा
जंगल बचाने की मुहिम भी
यही से शुरू हुई
जो स्थानीय अखबार के पांचवे पन्ने से आगे नहीं बढ़ सका
यहीं थमाया कई मित्रो को
लाल झंडा, तीर कमान, बाद में जिन्होंने थाम लिया
ए. के. फोर्टी सेवन, 
कहते हैं  हताश होकर किया है
नहीं माफ़ी चाहता हूँ मैं
उन सभी कृत्यों कुकृत्यों के लिए

हमारे सिद्धांत बदले
समय के साथ, समय की सुविधा से
इस बीच नदी संकरी हो गई
शहर के भीतर से गुजरने वाला सीवर
बह गया इसी नदी से होकर
कैंटीन में आते रहे हमारे जैसे लोग
बरस दर बरस
कैंटीन अब भी वैसी  ही है
तटस्थ
अब भी जे एल्फ्रेड प्रुफोक आते हैं यहाँ
वेन्डिंग मशीन से लेकर चाय
पढ़ते हैं पूंजी, करते हैं बहस
होते हैं उद्वेलित, करते हैं आह्वान
रोते हैं, कोसते हैं, विलापते  हैं
रचते हैं एक प्रेम गीत,
जिसमे नहीं है प्रेम जैसा कुछ

इस बीच
पंखे पर झूलती  कालिख
गिर पड़ता है
चाय की प्याली में
टूट जाता है चिंतन का क्रम
मन करता है
चलो ढूंढ लेते हैं
'स्ट्रीम ऑफ़ कांससनेस' का अर्थ
अपने ब्लैकबेरी पर ही इन्टरनेट सर्च के जरिये !

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

फिर भी



तोड़ दो 
मेरे हाथ 
क्योंकि ये 
लहराना चाहते हैं 
मुट्ठी 
तुम्हारे विरोध में 
उन सबके विरोध में 
जो हैं मिटटी, हवा के विरोध में 

तोड़ दो 
मेरी टाँगे 
क्योंकि ये 
चलना चाहते हैं 
संसद के दरवाज़े तक 
और खटखटाना  चाहते हैं 
बंद दरवाज़े 
जहाँ बन रहे हैं 
मेरे खिलाफ नियम 

मेरी जिह्ह्वा 
काट लो 
क्योंकि यह लगाना चाहती हैं 
नारे तुम्हारे खिलाफ 
तुम्हारी कुनीतियों के खिलाफ 
जो छीन रही रही 
मेरी ज़मीन , मेरे जंगल 
मेरे लोग 

मेरी आँखे 
फोड़ दो 
जो देखना चाहती हैं 
सत्ता से 
पूँजी की बेदखली 

फिर भी 
लहराएगा हाथ 
भिन्चेगा मुट्ठियाँ, 
कदमो के शोर से 
हिल देगा संसद का परिसर 
और बिना जिह्वा भी 
नारे से गूँज उठेगा 
राजपथ।  

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

बैलो के गर्दन



बैलो के गर्दन से 
मिट गए हैं 
हल के निशान 
देखिये 
कितना सूखा हुआ है 
आसमान !

बैलों  के गर्दन  पर 
कम हो गया है 
अनाज का बोझ
देखिये कैसे बदल गया है 
मिजाज देश का 

बैलो के गर्दन की घंटियाँ 
बजती नहीं सुबह-शाम 
देखिये कैसे बदल गए हैं 
शहर और गाँव 


शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

दंगा



ए के ५७, छूरा, भाला 
बरछी, कटार, तलवार और त्रिशूल से 
जोते गए हैं खेत 
और रोप दिए गए हैं 
अलग अलग रंगों, नस्लों के बीज 
ताकि फसलें लहलहायें 
खेतों में  लाल लाल 

सींचे जा रहे हैं खेत 
लालिमा लिए पानी से 
जिस से आ रही है 
मानुषी-बारूदी गंध 

दिया जा रहा है खाद 
जिसमे बेसमय हुए मुर्दा की 
हड्डियों का चूरा है 
मिला हुआ

और लहलहा रही हैं फसलें 
खेतों में लाल-लाल 
जिनकी रक्षा के लिए 
बीचो बीच खड़े हैं 
तरह तरह के लिबासो में 
नरमुंड रूप में बिजूखा 


ये खेत साधारण खेत नहीं हैं 
इन्हें जाना जाता है 
विधान सभा, विधान परिषद्, 
लोकसभा, राज्य सभा के नामों से 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

अफगानिस्तान

(यह कविता २०१० में लिखी थी।  अफगानिस्तान के बारे में जो छवि है , बस इतनी भर यह कविता थी।  आज सुष्मिता बनर्जी की तालिबान द्वारा की गई हत्या इस कविता को पुष्ट करती है।  लेखिका सुष्मिता के श्रधांजलि स्वरुप यह कविता फिर प्रस्तुत है।  ) 










भूगोल की किताबों में 
जरुर हो तुम एक देश
किन्तु वास्तव में
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
युद्ध के मैदान से

दशकों बीत गए
बन्दूक के साए में
सत्ता और शक्ति
परिवर्तन के साथ
दो ध्रुवीय विश्व के
एक ध्रुवीय होने के बाद भी
नहीं बदला
तुम्हारा प्रारब्ध 
काबुल और हेरात की 

सांस्कृतिक धरोहर के
खंडित अवशेष पर खड़े
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
रक्तरंजित वर्तमान से

बामियान के
हिम आच्छादित पहाड़ों में
बसे मौन बुद्ध
जो मात्र प्रतीक रह गए हैं
खंडित अहिंसा के
अपनी धरती से
विस्थापित कर तुमने
गढ़ तो लिया एक नया सन्देश
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
मध्ययुगीन बर्बरता से

जाँची जाती हैं
आधुनिकतम हथियारों की
मारक क्षमता
तुम्हारी छाती पर
आपसी बैर भुला
दुनिया की शक्तियां एक हो
अपने-अपने सैनिको के
युद्ध कौशल का
देखते हैं सामूहिक प्रदर्शन
लाइव /जीवंत
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
सामरिक प्रतिस्पर्धा से

खिड़कियाँ जहाँ
रहती हैं बंद सालों  भर
रोशनी को इजाजत नहीं
मिटाने को अँधेरा
बच्चे नहीं देखते
उगते हुए सूरज को
तितलियों को
फूलों तक पहुँचने  की
आज़ादी नहीं
हँसना भूल गयी हैं
जहाँ की लडकियां
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
फिल्मो/ डाक्युमेंटरी/ रक्षा अनुसन्धान के विषय भर से 

सदियों से चल रहा
यह दोहरा युद्ध
एक -दुनिया से
और एक- स्वयं से

अफगानिस्तान
सूरज को दो अस्तित्व कि
मिटा सके पहले भीतर का अँधेरा
खोल दो खिड़कियाँ
तुम अफगानिस्तान
इस से पहले कि
मिट जाए अस्तित्व
भूगोल की किताबों  से 

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

गरम चाय




उसके पास है
एक केतली
केतली के नीचे
एक अंगीठी

जैसे ऊपर है
उसकी  कृशकाय  देह
अन्दर  है
भूख की आग से तपती 
पेट की अंगीठी

उसकी पैंट में पीछे
खुंसे होते  है
प्लास्टिक के कप  गिनती के
जबकि गिनती
नहीं आती है उसे

5 रूपये की चाय में
50 पैसे पुलिस के 
50 पैसे नगर निगम की कमेटी  के 
50 पैसे लोकल गुंडे के 
तीन रूपये पचास पैसे ठेकेदार के 
जो देता है उसे
केतली, चाय, अंगीठी


जब तक गरम रहेगी
पेट की आग
पिलाएगा कोई न कोई
गरम चाय
गाँव के नुक्कड़ से लेकर
इण्डिया गेट तक

शनिवार, 31 अगस्त 2013

बंध गयी है छोटी नदी

मेरे गाँव में 
हुआ करती थी 
एक नदी 
जो जाकर मिलती थी 
बड़ी नदी में 
वह सूख गई 
कहते हैं इस छोटी नदी को 
बाँध लिया गया है 
कहीं बहुत पहले ही 

सुना है कि 
बनेगी बिजली 
जो जाएगी दिल्ली 
करने को रोशन 
संसंद और उसके गलियारे 

कहने वाले यह भी कहते हैं कि 
संसद के सभी कक्षों की खिड़कियाँ 
बंद हो गई हैं हमेशा के लिए 
शीशे चिपक गए हैं 
चौखटों से 
क्योंकि आती थी 
देश की हवा पानी 
शोर शराबा 
इन्ही खिडकियों से 

वातानुकूलित हो गया है 
संसद का पूरा परिसर 
इसके लिए चाहिए और बिजली 
जिसके लिए चाहिए और बाँध 

पहाडी नदियों पर बाँध 
जमीनी नदियों पर बाँध 
ताकि जगमगाए दिल्ली की संसंद 
और उसके गलियारे 
और बंध गयी है छोटी नदी !

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

भक्त और वोट


ईश्वर 
नहीं बचाएगा 
अपने भक्तो को 

बचाएगा तो 
आपका चुना हुआ 
प्रधानमंत्री भी नहीं 

दोनों में से कोई भी 
नहीं करेगा 
कोई चमत्कार 

ईश्वर व्यस्त है 
नहीं देगा कोई 
वरदान वह 
या करेगा चमत्कार ही 
व्यस्त है 
आपका चुना हुआ 
प्रधानमंत्री भी
भक्तोंको वोटों में 
तब्दील करने में 

हमारे बचने की 
है केवल एक शर्त 
जो बच जाएँ
भक्त और वोट होने से 

सोमवार, 26 अगस्त 2013

इसी देश की महिलाएं



जब ढेरो महिलाएं मूंह अँधेरे 
जाती हैं झुण्ड बनाकर 
खुले में शौच,  
देश की राजधानी में 
पब से लौट रही होती हैं 
महिलाएं 
रात भर के जगरने के बाद 
बाँट कर दारु आदि आदि 

दोनों ओर महिलाएं 
इसी देश की हैं 

जब रेलवे यार्ड में 
एक बोरी कोयले के एवज में 
छूने देती हैं देह 
उसी समय 
किसी फैशन सप्ताह में 
रैम्प पर जाने से पहले 
कोई छू रहा होता है 
उनका देह भी 

दोनों ओर महिलाएं 
इसी देश की हैं 

जब इण्डिया गेट पर 
दे रही होती हैं 
कुछ महिलाएं धरना प्रदर्शन 
कुछ महिलाएं बिछी होती हैं 
इच्छा बे-इच्छा 
अशोक रोड, राजेंद्र प्रसाद रोड, 
जनपथ आदि सडको पर स्थित
काली गुफाओं में 

दोनों ओर महिलाएं 
इसी देश की हैं

महिलाएं 
अभी आकाश में हैं 
दफ्तरों में हैं, 
पांच सितारा होटलों में हैं 
हैं डाक्टर  इंजीनियर
लेकिन सबसे पहले देह हैं 
इस देश की महिलाएं 

बुधवार, 14 अगस्त 2013

तिरंगे का रंग




मेरे गाँव के बच्चे 
जो कभी कभी ही 
जाते हैं स्कूल 
आज 
घूम रहे हैं लेकर तिरंगा 
लगा रहे हैं नारे 
भारत माता की जय 

भारत माता 
उनकी अपनी माता सी ही है 
जो नहीं पिला पाती है 
अपनी छाती का दूध 
क्योंकि वह बनता ही नहीं 
मुझे वे कोरबा के आदिवासियों से लगते हैं तब 
जिनकी जमीन पर बनता है 
विश्व का अत्याधुनिक विद्युत् उत्पादन संयत्र 
करके उन्हें बेदखल 
अपनी ही मिटटी से , माँ से 

मेरे गाँव के बच्चे का तिरंगा 
बना है रद्दी अखबार पर 
जिसपर छपा है 
देश के बड़े सुपरस्टार का विज्ञापन 
जो अपील कर रहा है 
कुपोषण को भागने के लिए 
विटामिन, प्रोटीन युक्त खाना खिलाने के लिए 
सोचता हूँ कई बार कि 
क्या सुपरस्टार को मालूम है 
कैसे पकाई जाती है खाली हांडी और भरा जाता है पेट 
जीने के लिए, पोषण के लिए नहीं 
और कुपोषितों तक नहीं है पहुच 
अखबारों की 

हाँ ! मेरे गाँव के बच्चों का तिरंगा 
बना है रद्दी अखबार से 
ऊपर केसरिया की जगह 
लाल रंग है 
जो उसने चुरा लिया है 
माँ के आलता से 
उसे मालूम नहीं कि 
केसरिया और लाल रंग में 
क्या है फर्क 
फिर भी रंग दिया है 
अखबार को आधे लाल रंग से 
और स्याही से रंग दिया है 
आधे अखबार को 
हरियाली की जगह 

मेरे गाँव के बच्चे को 
नहीं मालूम कि 
हरियाली कम हो रही है देश में , गाँव में 
और कार्पोरेटों का सबसे प्रिय रंग है नीला 
नीला क्योंकि आसमान है नीला 
नीला क्योंकि समंदर है नीला 
कार्पोरेट को चाहिए 
आसमान और समंदर सा नीला विस्तार 
किसी भी कीमत पर 
ऐसा कहा जाता है 
उनके कार्पोरेट आइडेनटिटी मैनुअल और विज़न स्टेटमेंट में 

और हाँ 
बीच में श्वेत रंग की जगह 
अखबार के छोटे छोटे अक्षर झांक रहे हैं 
अब बच्चे को क्या मालूम कि 
अखबार के छपे के कई निहितार्थ होते हैं 
और श्वेत शांति का नहीं रहा प्रतीक 

मेरे गाँव के बच्चे 
आज फहरा रहे हैं तिरंगा 
जिसमे  नहीं है 
केसरिया, हरियाली या सफेदी ही 


(स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !)

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र



मेजें थपथपा कर 
हो रहे हैं 
निर्णय 
आप चुप रहिये 
काम पर है 
दुनिया का  सबसे बड़ा लोकतंत्र 

विरोधी दल 
उखाड़ कर माइके 
कर रहे हैं विरोध 
आप चुप रहिये 
काम पर है 
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 

वातानुकूलित कक्ष में बैठ 
तय की जा रही हैं रेखाएं 
भूख की सीमायें 
आप चुप रहिये 
काम पर है 
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 

पिछले वर्ष के आकड़ो में 
करके कुछ फेर बदल 
हो रहा है सर्वेक्षण 
आप चुप रहिये 
काम पर है 
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 

जनतांत्रिक हो गया है 
सब्सिडी की हिस्सा 
आप चुप रहिये 
काम पर है 
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 

आपको दी जा रही है 
भूख से सुरक्षा की गारंटी 
शिक्षा की गारंटी 
काम की गारंटी 
सूचना की गारंटी 
आप चुप रहिये 
काम पर है 
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 

रविवार, 4 अगस्त 2013

रेखाएं

(देश भर में मानसून अच्छा है , कह रहा है मौसम विभाग। नदियाँ उफान पर हैं।  मीडिया क्रिकेट , टमाटर और प्याज़ में व्यस्त है।  लेकिन आधे देश में बारिश अच्छी नहीं हुई है।  किसान के धान बारिश के पानी का बाट जोह रहे हैं।  धान की कोख में इन्ही बूंदों से मोती जमेंगे।  और किसान की इस चिंता को साझा करती कविता।  ) 


रेखाएं
न उभरे
तो ही अच्छा है
न चेहरे पर
न खेतो में 


बाबूजी के चेहरे पर
उभर आती हैं
तरह तरह की रेखाएं
आड़ी तिरछी
जब पानी बिना खेतो में
उभर आती हैं रेखाएं
दरारों के रूप में


आसमान का रंग
नीला नहीं काला होना चाहिए
सावन भादो में
पगडंडियों पर धूल नहीं
कीचड होना चाहिए
कहते हुए खेत की मेढ़ पर बैठा किसान
खींच देता है एक रेखा
अपने बूढ़े नाखून से 
धान की कोख से रिसने लगता है 
सफ़ेद खून
अच्छा नहीं है 
किसी किसान का 
रेखा खींच, फसल की कोख को 
लहूलुहान कर देना 

रेखाएं उभर आई हैं 
भालों और बरछों की तरह 
नीले आसमान में, सूखे खेतो में 




शुक्रवार, 3 मई 2013

 चीन लद्दाख में डेरा जमाये बैठा है. जब रक्षामंत्री प्रधान मंत्री के पास गए होंगे कि सेना को आदेश दीजिये कि चीन के साथ सख्ती दिखाएँ तो उन्होंने वित्त मंत्री से पूछा होगा. वित्त मंत्री जी के पास देश भर से व्यापारियों के फोन आये होंगे कि माई बाप, चीन के माल के बिना न तो प्लांट चलेंगे न खुदरा बाज़ार, न कपडा बाज़ार की रौनक रहेगी न इलेक्ट्रोनिक बाज़ार की . देश के अर्थव्यवस्था के लगभग दस प्रतिशत हिस्से पर चीन का परोक्ष कब्ज़ा है. हम चीन से लगभग 44 मिलियन यु एस डालर का माल आयात करते हैं और निर्यात केवल 15 मिलियन यु एस डालर। जिस देश में तमाम मन्युफेक्चारिंग गतिविधिया बंद हो गई हो चीन से इम्पोर्ट के भरोसे, वह देश कभी अपनी संप्रभुता की रक्षा नहीं कर सकता . हम बहुत कमजोर हैं और लगातार कमजोर हो रहे हैं चीन के मुकबले. चीन से इम्पोर्ट के कारण देश में बेरोज़गारी बढ़ी है क्योंकि लाखों निर्माण गतिविधियाँ बंद हुई हैं , रेडीमेड वस्त्र, छोटे कल पुर्जे, खिलौंगे, कपडे, प्लास्टिक के उत्पाद, बाल बियरिंग आदि आदि में चीन का कब्ज़ा है हमारे बाजारों पर. आर्थिक राष्ट्रवाद जरुरी है प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री जी ! प्रस्तुत है मेरी एक कविता :

 

रुपया


१. 
रुपया 
गिर रहा है
लगातार
होकर कमजोर 
वह रुपया जो
आम जनता की जेब में
नहीं है, फिर भी
रोटी आधी हो रही है
नमक कम हो रहा है
उसकी थाली से,
फिसल रहा है 
उसकी जेब से 
२.
रूपये  से
खरीदना  है
पेट्रोल, गाड़ियाँ
कपडे, घड़ियाँ
टीवी, इंटरनेट,
हवाई जहाज़ और उसकी टिकटें
ई एम आई और क़र्ज़ 
आत्मनिर्भरता नहीं
खरीद सकता 
अपना रुपया 

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

आज मजदूर दिवस है

आज मजदूर दिवस है. आज के ही दिन वर्ष 1991 में मेरी पहली कविता "मजदूर" धनबाद, झारखण्ड से प्रकाशित दैनिक जनमत में छपी थी . उसके बाद धनबाद में मजदूरों के बीच थोडा बहुत  काम किया . एशिया के प्रसिद्द मजदूर  कालोनी भूली में दोस्तों के साथ मिलकर निःशुल्क ट्यूशन पढाया, पुस्तकालय खोला, पानी बिजली की लड़ाई लड़ी और फिर एक दिन अचानक सब छोड़ मैनेजमेंट की पढाई करने धनबाद से जो बाहर निकला सो फिर लौटा नहीं . एक बोझ मन में अब भी है. शायद ही कभी उतरे। पिछले साल मई में ही नेशनल बूक ट्रस्ट द्वारा आयोजित शिमला पुस्तक मेला में अपने प्रकाशन के साथ पहली बार शिमला गया और वहां माल रोड पर कुलियों को देख शिमला का आनंद जाता रहा और एक कविता बनी। साहित्यिक पत्रिका हंस के मई अंक में ही यह कविता प्रकाशित हुई है . शिमला के साथ साथ पहाड़ो के तमाम कुलियों को मजदूर दिवस पर समर्पित कविता आपसे साझा करता हूँ 


माल रोड, शिमला



गोरखा युद्ध से लौटे
अपने सेनापति के लिए
ब्रिटिश साम्राज्य का
उपहार था शिमला
जिसे कालांतर में बनाई  गई
गुलाम भारत की  ग्रीष्मकालीन राजधानी

कहा जाता है
कालों को अनुमति नहीं थी
माल रोड तक पहुचने की
और गुलामी का प्रतीक
माल रोड शिमला में
अब भी पाए जाते हैं कुली
जो अपनी झुकी हुई पीठ पर
लादते हैं अपने से दूना वज़न तक
जीवन रेखा हैं ये
इस शहर की

पीठ पर
लाते हैं उठा
माल रोड की चमक दमक
रौनक
और किनारे पडी
किसी लकड़ी की बेंच के नीचे बैठ
सुस्ताते पाए जाते हैं
आँखों में सन्नाटा लिए


आँखे नहीं मिलाते हैं
ये कुली
क्योंकि झुकी हुई पीठ से
आदत हैजमीन को देखने की
ख़ुशी से भरे चेहरों के बीच
अकेले होते हैं
ये कुली

जब भी आता है 
जिक्र
माल रोड या  शिमला का
नहीं होता है जिक्र  पीठ पर वजन उठाये
इन कुलियों का
इस चमक के पीछे
घुप्प अँधेरा होता है
इनकी जिंदगी में

दासता के पदचिन्ह
और गहरे होते जाते हैं
जब भी उठाते हैं
अपनी पीठ पर वजन
और मापते हैं पहाड़ की ऊंचाई,
ये कुली.

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

बैंक मोड़

(कविता विकास, कवियत्री हैं, ब्लॉगर हैं, अंग्रेजी की शिक्षिका है। धनबाद में रहती हैं . डी ए वी में पढाती हैं . धनबाद मेरी भी पृष्ठभूमि में है, डी ए वी भी है. इसलिए कविता जी काफी स्नेह रखती हैं मुझसे . उनसे बात कर मेरा स्कूल याद आ जाता है.  एक दिन मैंने फोन किया तो पता चला कि वे बैंक मोड़ जा रही हैं . वही बैंक मोड़ जो धनबाद के इर्दगिर्द के कोयला खदानों के हजारो मजदूरों के लिए नहीं पहुच पाने वाला स्थान माना जाता था. आज बैंक मोड़ की चमक और भी बढ़ गई है, खदान वैसे ही काले हैं, मजदूर बस्तियों की कालिख और बढ़ गई है. एक कविता धनबाद के मजदूर साथियों के लिये. )


धनबाद शहर में
है एक बैंक मोड़

इस मोड़ के चारो और
फैले हुए हैं बैंक
तरह तरह के बैंक 
सरकारी बैंक निजी बैंक, 
सहकारी बैंक 
चमकते दमकते बैंक 
खनकते बैंक 

बैंक 
जिनके पेट भरे जाते हैं 
खदानों से निकले कोयले से 
उन कोयलो का रंग होता है काला 
जिसमे होता है 
भूख और पसीने गंध 
और इन्ही गंध से 
होता है रोशन 
बैंक मोड़ की शाम 

बैंक मोड़ से 
एक सड़क जाती है 
झरिया की और 
वही झरिया जो बसा है 
जलते कोयले पर 
धीमी धीमे मिटते हुए 

जो सड़क 
झरिया से कोयला लेकर आती है 
वह सडक बैंक मोड़ से नहीं ले जाती पैसे 
झरिया की जरूरतों के लिए 

बैंक मोड़ से 
एक सड़क जाती है 
महुदा के लिए 
कहने के लिए तो बस तीस किलोमीटर की दुरी है 
लेकिन यह दुरी आधी शताब्दी से अधिक है 
अब भी अर्धनग्न लोग 
चोरी करते हैं कोयला बोरियों में 
दो जून की रोटी के लिए 
लेकिन भर नहीं सका है उनका पेट 
जबकि खदाने हो चुकी हैं 
खाली 

बैंक मोड़ से 
एक सड़क जाती है 
वासे पुर की तरफ 
वही वासेपुर जिसपर बनी है फिल्म भी 
लेकिन यह वासेपुर तो है नहीं 
यहाँ अँधेरे में खिलती हैं रोशनी 
लाटरी की टिकट बेच/साइकिल की पंक्चर लगा
लोग पढाते हैं अपने बच्चे 
ताकि वे पहुच सके 
बैंक मोड़ 


बैंक मोड़ 
जगमगा रहा है 
जगमगा रहा है वहां के बैंको के खाते 
खदान खाली  हो रहे हैं 
और जिनकी जमीन पर थे खदान 
वे आज भी हैं 
बैंक मोड़ से दशको दूर 

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

बंद

(कोयल मजदूरों की कालोनी में हम पले बढे . बहुत करीब से शोषण देखा है. और देखा है हड़ताल में हिस्सा लेते मजदूरों को. सरकार पर अब कोई असर नहीं होता इन हडतालों का क्योंकि जनसरोकारों से दूर होती गई है सरकार. आज भारत बंद है. एक कविता  हडतालियों मजदूरों के नाम )

वे चाहते हैं 
 होठ सिले रहें
और बंद हो जाये
स्वर 
ताकि न लगे कोई
नारा कभी
शासन के विरुद्ध
 
चाहते हैं वे 
उँगलियाँ
न आयें कभी साथ
बनाने को मुट्ठी
जो उठे प्रतिरोध में


ठिठके रहे
 कदम
एक ताल में
न उठे कभी
सदनों की ओर

वे  चाहते हैं 
छीन लेना
हक़ जीने का
विरोध जताने का।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

मोक्ष




1. 
मृत्यु 
स्वयं मोक्ष है 
वह गंगा तट पर हो 
या हो 
किसी स्टेशन प्लेटफार्म पर 


भगदड़ में 
अनगिनत पैरों के नीचे 
कुचलकर 
मिलता है मोक्ष 
अवाम को 


2.
मोक्ष की चिंता 
उन्हें नहीं होती 
जिनके लिए 
खाली होते हैं 
रास्ते/प्लेटफार्म/हवाई अड्डे/गंगा का घाट भी 

3.
मोक्ष के लिए 
जरुरी है करना 
पाप

जितना अधिक पाप 
मोक्ष का आडम्बर उतना ही अधिक 


4.
मोक्ष का 
होता है उत्सव 
पूर्व नियोजित 
सुनियोजित 



5.
मोक्ष भी 
एक किस्म का 
बाज़ार ही 
हम सब 
उसके ग्राहक