गुरुवार, 19 सितंबर 2013

बैलो के गर्दन



बैलो के गर्दन से 
मिट गए हैं 
हल के निशान 
देखिये 
कितना सूखा हुआ है 
आसमान !

बैलों  के गर्दन  पर 
कम हो गया है 
अनाज का बोझ
देखिये कैसे बदल गया है 
मिजाज देश का 

बैलो के गर्दन की घंटियाँ 
बजती नहीं सुबह-शाम 
देखिये कैसे बदल गए हैं 
शहर और गाँव 


शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

दंगा



ए के ५७, छूरा, भाला 
बरछी, कटार, तलवार और त्रिशूल से 
जोते गए हैं खेत 
और रोप दिए गए हैं 
अलग अलग रंगों, नस्लों के बीज 
ताकि फसलें लहलहायें 
खेतों में  लाल लाल 

सींचे जा रहे हैं खेत 
लालिमा लिए पानी से 
जिस से आ रही है 
मानुषी-बारूदी गंध 

दिया जा रहा है खाद 
जिसमे बेसमय हुए मुर्दा की 
हड्डियों का चूरा है 
मिला हुआ

और लहलहा रही हैं फसलें 
खेतों में लाल-लाल 
जिनकी रक्षा के लिए 
बीचो बीच खड़े हैं 
तरह तरह के लिबासो में 
नरमुंड रूप में बिजूखा 


ये खेत साधारण खेत नहीं हैं 
इन्हें जाना जाता है 
विधान सभा, विधान परिषद्, 
लोकसभा, राज्य सभा के नामों से 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

अफगानिस्तान

(यह कविता २०१० में लिखी थी।  अफगानिस्तान के बारे में जो छवि है , बस इतनी भर यह कविता थी।  आज सुष्मिता बनर्जी की तालिबान द्वारा की गई हत्या इस कविता को पुष्ट करती है।  लेखिका सुष्मिता के श्रधांजलि स्वरुप यह कविता फिर प्रस्तुत है।  ) 










भूगोल की किताबों में 
जरुर हो तुम एक देश
किन्तु वास्तव में
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
युद्ध के मैदान से

दशकों बीत गए
बन्दूक के साए में
सत्ता और शक्ति
परिवर्तन के साथ
दो ध्रुवीय विश्व के
एक ध्रुवीय होने के बाद भी
नहीं बदला
तुम्हारा प्रारब्ध 
काबुल और हेरात की 

सांस्कृतिक धरोहर के
खंडित अवशेष पर खड़े
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
रक्तरंजित वर्तमान से

बामियान के
हिम आच्छादित पहाड़ों में
बसे मौन बुद्ध
जो मात्र प्रतीक रह गए हैं
खंडित अहिंसा के
अपनी धरती से
विस्थापित कर तुमने
गढ़ तो लिया एक नया सन्देश
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
मध्ययुगीन बर्बरता से

जाँची जाती हैं
आधुनिकतम हथियारों की
मारक क्षमता
तुम्हारी छाती पर
आपसी बैर भुला
दुनिया की शक्तियां एक हो
अपने-अपने सैनिको के
युद्ध कौशल का
देखते हैं सामूहिक प्रदर्शन
लाइव /जीवंत
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
सामरिक प्रतिस्पर्धा से

खिड़कियाँ जहाँ
रहती हैं बंद सालों  भर
रोशनी को इजाजत नहीं
मिटाने को अँधेरा
बच्चे नहीं देखते
उगते हुए सूरज को
तितलियों को
फूलों तक पहुँचने  की
आज़ादी नहीं
हँसना भूल गयी हैं
जहाँ की लडकियां
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
फिल्मो/ डाक्युमेंटरी/ रक्षा अनुसन्धान के विषय भर से 

सदियों से चल रहा
यह दोहरा युद्ध
एक -दुनिया से
और एक- स्वयं से

अफगानिस्तान
सूरज को दो अस्तित्व कि
मिटा सके पहले भीतर का अँधेरा
खोल दो खिड़कियाँ
तुम अफगानिस्तान
इस से पहले कि
मिट जाए अस्तित्व
भूगोल की किताबों  से 

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

गरम चाय




उसके पास है
एक केतली
केतली के नीचे
एक अंगीठी

जैसे ऊपर है
उसकी  कृशकाय  देह
अन्दर  है
भूख की आग से तपती 
पेट की अंगीठी

उसकी पैंट में पीछे
खुंसे होते  है
प्लास्टिक के कप  गिनती के
जबकि गिनती
नहीं आती है उसे

5 रूपये की चाय में
50 पैसे पुलिस के 
50 पैसे नगर निगम की कमेटी  के 
50 पैसे लोकल गुंडे के 
तीन रूपये पचास पैसे ठेकेदार के 
जो देता है उसे
केतली, चाय, अंगीठी


जब तक गरम रहेगी
पेट की आग
पिलाएगा कोई न कोई
गरम चाय
गाँव के नुक्कड़ से लेकर
इण्डिया गेट तक