शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

एक बेफिक्र दिखने वाली लड़की


वह जो
३०  वर्षीया लड़की
हाथ में कॉफ़ी का मग लिए
किसी बड़े कारपोरेट हाउस के
दफ्तर की बालकनी की रेलिंग से 
टिकी है बेफिक्री से 
वास्तव में 
नहीं है उतनी बेफिक्र
जितनी रही है दिख .

भय की कई कई परतें 
मस्तिष्क पर जमी हुई हैं 
जिनमे देश के आर्थिक विकास के आकड़ो से जुड़े
उसके अपने लक्ष्य हैं
जिन्हें पूरा नहीं किये जाने पर
वही होना है जो होता है 
आम घर की चाहरदीवारी में 

एक भय है 
उन अनचाहे स्पर्शों का 
जो होता है 
हर बैठक के बाद होने वाले 'हाई टी' के साथ
वह बचना चाहती है उनसे 
जैसे बचती हैं घरेलू औरते आज भी

एक भय 
परछाई की तरह 
करता है उसका पीछा 
लाख सफाई देने पर भी कि 
नहीं है उसका किसी से 
कोई अफेयर 

तमाम भय के बीच 
जब सूख जाते हैं उसके ओठ 
एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा 
तैयार हो जाती है वह 
एक और मीटिंग के लिए 
उतनी ही बेफिक्री से. 
वास्तव में 
जितनी बेफिक्र नहीं है वह. 

53 टिप्‍पणियां:

  1. dikhne aur hone ke beech ke antar ko yah kavita kitni bebaki se zahir kar rahi hai...vastav men ..dikhna to paristhitijanya hai...par ham hote hai waheen hain kaheen na kaheen ..tabhi to itna befikra dikhne ke baawazood chinta se honth sookh jaate hain..aur fir wapas befikr dikhne ke liye lagaani padti hai lip glass kee ek parat...adbhut kathya...
    life in a metro ko sahi pakad rakha hai aapne....

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  2. तैयार हो जाती है वह
    एक और मीटिंग के लिए
    उतनी ही बेफिक्री से.
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह.
    जी हाँ! यही तो जिन्दगी है. जो कुछ हम हैं वह दिखना नहीं चाहते और जो दिख रहे हैं वह हैं नहीं.

    बहुत सुन्दर रचना

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  3. जब सूख जाते हैं उसके ओठ
    एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा
    तैयार हो जाती है वह
    एक और मीटिंग के लिए
    उतनी ही बेफिक्री से.
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह.
    जो दिखता है वो हमेशा होता नही। आज की सच्चाई पर एक लडकी के मनोभावों को दर्शाती सुन्दर रचना। बधाई ।

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  4. बहुत ही लाजबाव अभिव्यक्ति हैँ। आज की जीवन शैली को बखूबी चित्रित किया है आपने । सादर आभार जी।

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  5. तल्ख सच्चाई से रूबरू करवाती आपकी रचना बेजोड है...बधाई स्वीकारें.

    नीरज

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  6. आपकी रचना का जबाब नहीं ....शुक्रिया

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  7. इतने शालीन और सभ्य तरीक़े से आप अपनी बात कैसे कह ले गए,मैं इस कविता को पढ़ते समय यही सोंच रहा था,तभी आपकी chat window खुल गई. मज़े की बात ये है की कविता में सम्प्रेषण १००% है मगर अश्लीलता कहीं नहीं.आपके लेखन के स्तर को देख के मन ख़ुश हुआ

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  8. आपके ब्लोग के वापस आने की आपको हार्दिक शुभकामनायें।

    यही ज़िन्दगी की सच्चाई है कि इंसान जो होता है वो दिख नही पाता और जीने के लिये मुखौटे लगाये घूमता रहता है…………द्वंद का खूबसूरती से चित्रण किया है।

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  9. bahut shaleen tareeke se aaj ko ughada hai aapne......
    badhaee........

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  10. उतनी ही बेफिक्री से.
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह.
    yah samajhna bhi kahan sabke vash me
    fursat kise ?
    arth kya ?
    jisne yah dekha , wah aam nahi

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  11. एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा
    तैयार हो जाती है वह
    एक और मीटिंग के लिए
    उतनी ही बेफिक्री से.
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह

    सूक्ष्म अवलोकन ....बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  12. अरूण भाई 30 साल की आयु की स्‍त्री की लड़की नहीं कहा जाता।

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  13. कहते न हर उम्र की अपनी प्राथमिकताये होती है ....ओर कामकाजी औरत की उसमे कुछ ओर एड हो जाती है .... कविता अपना अर्थ पूरा करती है !!!

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  14. क्या मन के बाद पढ़ें हैं आपने। पढ़कर आनन्द आ गया।

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  15. आदरणीय राजेश भाई..
    लम्बे अरसे बाद मेरे ब्लॉग पर आना हुआ आपका.. कुछ तो बाबूजी के नहीं रहने के कारण हुआ होगा कुछ मेरी कवितायें योग्य नहीं रही होंगी.. आप ब्लॉग पर आकार कुछ कहे यानि कविता ठीक सी बन गई है.. जहाँ तक ३० वर्ष की स्त्री को लड़की कहने का सम्बन्ध है .. वह जान बूझ कर कहा गया है.. लड़की होने का अर्थ मैंने उसके चेहरे, उसके हाव-भाव, उसके भीतर नई सी ऊर्जा.. उसके भीतर जिजीविषा को कहने की कोशिश की है... मुझे लगता है कि ३० वर्षीया को लडकी कहने से बहुत कुछ शब्दों में कहने से बचने की कोशिश की है मैंने.. एक विम्ब की तरह है इसका उपयोग किया गया है.. यदि सफल नहीं हो पाया मैं तो शायद कोई कमी रह गई होगी.. कविता के ने पक्षों पर ध्यान दिलाईयेगा.. ब्लॉग पर आने के लिए फिर से धन्यवाद एवं आभार...

    अरुण

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  16. तमाम भय के बीच
    जब सूख जाते हैं उसके ओठ
    एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा
    तैयार हो जाती है वह
    एक और मीटिंग के लिए
    उतनी ही बेफिक्री से,
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह,

    बहुत खूब...क्या लिख दिया है आपने..
    एकदम नया शिल्प और नए भाव।

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  17. बहुत ही यथार्थवादी कविता है.....चेहरे के अंदर का छुपा कशमकश बयाँ करती हुई ...जिनसे लोंग या तो सचमुच अनभिज्ञ होते हैं या दिखावा करते हैं...जान कर भी ना जानने का..
    सशक्त अभिव्यक्ति

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  18. अरुण भाई, 30 वर्षीया को लड़की कहने से कवि के भाषा के प्रति असावधान होने का आभास होता है।
    *
    अब अगर कविता की बात करें तो -30 वर्षीया लड़की- पंक्ति की जरूरत ही नहीं। आप कविता में से उसे ह
    टाकर पढ़ें। कविता एक चरित्र के बारे में है। आपने जो वर्णन किया है उसमें उम्र अपने आप झलकती है। यह पंक्ति कविता को कमजोर करती है।
    *
    इसी तरह -आम घर की चाहरदीवारी में-
    और
    -जैसे बचती हैं घरेलू औरतें आज भी- पंक्तियों की भी आवश्‍यकता नहीं है। ये पंक्तियां भी कविता को कमजोर करती हैं।

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  19. किसी बड़े कारपोरेट हाउस के
    दफ्तर की बालकनी की रेलिंग से
    टिकी है बेफिक्री से
    वास्तव में
    नहीं है उतनी बेफिक्र
    जितनी रही है दिख aadhunik jamane ki mukhouta sanskriti ka yatharth...yaha har koi hai laparvah har koi hai bhaygrast...bahut sunder rachna...

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  20. अरुण जी!
    कविता पर बाद में लौटता हूँ, अभी जल्दी जल्दी में बस आपका बिछड़ा ब्लॉग वापस मिल जाने पर बधाई! हाँ आपकी तरफ से इस विषय पर कोई खुशी ज़ाहिर न करना या इस विषय पर कोई वक्तव्य न देना थोड़ा अटपटा लगा!
    बधाई एक बार फिर!!

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  21. सुन्दर रचना, आपका साधुवाद

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  22. अरुण जी आपके ब्लॉग पर टिप्पणी देख कर आश्चर्य होता है.. किसी ने ठीक ही कहा है कि कभी कभी इर्ष्या भी होती है. .. राजेश भाई ने ठीक कहा है कि '३० वर्षीया लड़की ' सही एक्सप्रेशन नहीं है... कविता थोड़ी कमजोर हुई है.. वैसे यह कविता आपकी पुरानी कविता..."गरीबी का मैग्नेटिज्म" बालकनी में सिगरेट पीता हुआ आदमी जैसी या उसी का विस्तार है..

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  23. सच बया करती एक बहुत अच्छी रचना |

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  24. बहुत सुन्दर कविता। बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  25. कुछ कही कुछ अनकही ..बहुत कुछ होता है जो नही दीखता और बहुत कुछ दिखावा ही होता है..
    सशक्त अभिव्यक्ति.

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  26. @अरुण भाई,
    कल ही आपके बारे में अविनाश वाचस्पति जी से पता चला...आज इस एक कविता में ही आपकी प्रतिभा के दर्शन
    भी हो गए...साधुवाद...

    शीघ्र ही मिलते हैं...

    जय हिंद...

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  27. समसामयिकता के एक विरूप चेहरे को उजागर करती एक कारुणिक अभिव्यक्ति !

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  28. जब सूख जाते हैं उसके ओठ
    एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा
    तैयार हो जाती है वह
    एक और मीटिंग के लिए
    उतनी ही बेफिक्री से.
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह.

    फिर वही कहूँगी..... आपका अवलोकन बहुत ज़बरदस्त है.....
    बेहतरीन रचना ...

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  29. मेरे लिए इस माह की कविता। बहुत दिनों के बाद 'ऐसा कुछ' पढ़ने को मिला।
    आभार।

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  30. वंदना जी ने आपकी इस कविता का लिंक दिया, तो आपके ब्लॉग पर आज पहली बार आई. ऊपर के कमेंट्स भी पढ़े...कविता को पढ़ कर मेरे भाव एकदम अलग उभरते हैं, शायद कारण ये हो कि ३० पर पहुंची ऐसी कई स्त्रियों को करीब से भी जाना है...और कहीं न कहीं ऐसी स्थिति में रही भी हूँ.
    कविता चीज़ों को सिर्फ सतह पर लेती हुयी दिखती है, और तस्वीर का एक ही पहलु प्रस्तुत करती है, एक पुरुष का या कहें कि जैसा एक पुरुष देखना चाहता है. जैसी कि कोई पुरुष खुद को समझाना चाहता हो कि ३० पर पहुँच पर भी वो लड़की ही है, और अभी भी उसे परेशान करने को पुरुष वर्ग सक्षम है, कि वो सताई हुयी है. ३० पर पहुंची स्त्री इन चीज़ों से उतनी फिक्रमंद नहीं होती जितना कि कवि सोचता है. वो ऐसी हर छोटी परेशानियों को चुटकी में हल करने में पूर्णतयः सक्षम होती है, सबल होती है.
    स्त्रियों के प्रति बेहद पुरातन मानसिकता की उपज है ये कविता. मैं ऐसी सोच को सिरे से ख़ारिज करती हूँ.

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  31. पूजा जी आप हमारे ब्लॉग पर आयी और आपने ब्लॉग पर आपके कमेन्ट को पढ़ते हुए मैं आपके ब्लॉग पर पहुंचा.. वहां भी ३० की उम्र की लड़कियों के बारे में बात देखी तो एक बात साफ हो गई कि आप और मैं ३० की उम्र की स्त्रिओं के बारे में सोच रहे हैं.. लिख भी रहे हैं.. आपके कमेन्ट से मैं पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन शायद आपने मेरी कविता को जल्दीबाजी में पढ़ ली ... मेरी कविता बस इतना कहती है के वे बेफिक्र नहीं हैं.. इसका कतई मतलब नहीं निकलना चाहिए कि वे दबी, कुचली, डरी हुई हैं... मेरी पात्र अपनी सभी फिक्रों पर लिप ग्लोस लगा कर नई मीटिंग के लिए चल देती है.... वह हिम्मत वाली है.. स्वाभिमानी है... वह मैदान नहीं छोड़ रही है... बाकी मेरी स्त्री पात्र जिस परिवेश में रह रही है वह बहुत बहुत आम है.. और आप यदि सर्वेक्षण कर लें तो वही राय रखेंगी.. बाकी जब मैंने ३० की उम्र की स्त्रियों को लड़की कहा तो आपसे से पहले मेरे बड़े भाई राजेश उत्साही जी ने भी आपति जाहिर की थी और जो उत्तर मैं ने उन्हें दिया यदि आप पढ़ ली होती हो यह ना कहती कि लड़कियों का उपयोग मैंने परेशां करने की पृष्ठभूमि में किया है.. बल्कि मैंने लड़कियों में जो जिजीविषा, जो सपने .. जो हौसला होता है ... उस लिहाज से किया है... बाकी जहाँ था मेरी पुरुषवादी सोच.. जो आप देख रही थी मेरी कविता में वह सोच मेरी कविता 'गरीबी का मैग्नेटिस्म' शीर्षक से एक कविता है वहां मिल जाएगी.. देखिएगा जरुर...
    ....बाकी आपके आलेख में जो ३० की उम्र की स्त्रियाँ हैं वही स्त्रियाँ .. वही सोच ... मेरी ३० की लड़कियों की भी है.. please read between the lines... वंदना जी का विशेष आभार कि आपसे परिचय हुआ..

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  32. अरुण जी
    रचना भी पढ़ी और टिप्पणिया भी ...अपना अपना नज़रिया है ...मुझे रचना बहुत पसंद आई क्योंकि शायद मैं भी इसी वर्ग में आती हूँ ..और इस किरदार जैसे बहुत से चेहरों को जानती हूँ

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  33. ये भी विवाद का विषय है कि ३० वर्ष लड़की कहलाने की उम्र नहीं होती। नो कमेंट्स।
    इस कविता का उत्कर्ष ही यही है कि यह जीवन के ऐसे प्रसंगों से उपजी है जो निहायत गुपचुप ढंग से हमारे आसपास सघन हैं लेकिन हमारे तई उनकी कोई सचेत संज्ञा नहीं बनती। आपने उन प्रसंगों को चेतना की मुख्य धारा में लाकर पाठकों से उनका जुड़ाव स्थापित किया है। जब टिप्पणी के माध्यम से कवि ने अपनी भावभूमि स्पष्ट कर दी तो फिर कहने को कुछ रह नहीं जाता।
    नारी मन की गहराई, उसका अन्तर्द्वन्द्व, नारी उत्पीडन, मान-अपमान में समान भावुक मन की उमंगे, संवेदनशीलता, सहिष्णुता आदि पर काव्य में अभिव्यक्ति दी गई है, जो कि वस्तुतः सुलझी हुई वैचारिकता की प्रतीक है।

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  34. कविता का प्रस्तुतिकरण अच्छा है |पर एक बात जरूर है की क्या ३० साल की महिला को लड़की कहा जाय ?
    आशा

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  35. तमाम भय के बीच
    जब सूख जाते हैं उसके ओठ
    एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा
    तैयार हो जाती है वह
    एक और मीटिंग के लिए
    उतनी ही बेफिक्री से.
    वास्तव में
    जितनी बेफिक्र नहीं है वह.


    aapne badi bakhubi se ek aam sahri yuvti ka khakha khincha hai....jo beshak apne ko kaise bhi dhudh dhula sabit kare...lekin ek alag chasme se log usko dekhte hi hain...........fir bhi wo aise soch ko dhuyen me uda deti hai....:)

    bahut khub!!!

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  36. baat is kavita se sahmat ya asahmat hone kee nahi hai ... baat hai kavita ke prasangik hone kee .. aur is kavita par mahila varg kee sahmati batati hai ki kavita prasangik hai ya nahi...nischit roop se aaj kee nari kaafi aage hai...lekin abhi bhi is kavita kee nayikas si naari kee kami nahi hai..30 varsheeya ladkee ek aisa samodhan hai jo .. us chareetra ko jaanne kee utsukta paida karta hai ...sath hi sath wah kavita ko padhne par upyukt bhi lag raha hai...

    saadar

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  37. मनोभावों का सुन्दर विश्लेषण करती कविता!!!

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  38. कारपोरेट हाउस के दफ्तर के निर्धारित टारगेट और मध्यम /उच्च वर्ग की अपेक्षाओं के बीच तारतम्य बैठाती यह लड़की वास्तव में उतनी बेफिक्र नही है जितनी कि वह सजी धजी मुस्कान बिखेरती जीवन के हर मोर्चे पर अपनी क्षमता से ज्यादा कुशल होने की कोशिश करती हुई नजर आती है. बहुत बारीकी से एक कामकाजी लड़की की मनोदशा का चित्रण . शुभकामना.

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  39. काफी हद तक सच है, यही होता है कॉर्पोरेट लाइफ मैं . क्यूँकि हम भी इस लाइफ का हिस्सा रह चुके है

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  40. आपकी ज़्यादा कविताएं तो नहीं पढ़ीं पर जितनी पढ़ीं उनमें सबसे ज़्यादा प्रभावशाली यह लगी। कमेंटस् में कविता की जो व्याख्या आपने की, वही अर्थ मैंने भी लगाया।

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  41. इस कविता में आप अपना ही पुराना प्रतिमान तोड़ते नजर आते हैं।
    यह कविता लोक जीवन के यथार्थ-चित्रण के कारण महत्‍वपूर्ण है। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  42. वाह! सच्चाई को बयाँ क्या बेहतरीन तरीके से किया है आपने..
    बहुत ही सुन्दर रचना..

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  43. क्या सजीव चित्रण किया है!!! बधाई. एक सत्य को दर्शाती पोस्ट. बड़ी शालीनता से बहुत कुछ कह गए आप. हाँ ये काफी हद तक हमारे आज के समाज का नग्न सत्य है

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  44. अरुण कविता के विषय में ज्यादा नहीं जानता, लेकिन आपने जो चित्र खींचा है कामकाजी लड़की का, बहुत सटीक है | काफी गौर किया अपने ऑफिस की लड़कियों पर | वे केबिन्स के बीच तितली की मानिंद उड़ती फिरती हैं, लेकिन कोई उनके बगल से गुजरे तो एकदम चौकन्नी सी हो जाती हैं |

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  45. एक बेफिक्र लड़की पर लिखी गई इतनी सुन्दर कविता अब पढ़ पाया हूँ .एक ३० साल की लड़की को लड़की कहने में क्या आपतिजनक है -समझ नहीं पाया .उत्साह से लबरेज फतवे में एक बालक की अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की बचकाना कोशिश साफ़ देखी जा सकती है .

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