शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

लिखते हुए साल की अंतिम कविता


प्रिये  !
लिखते हुए
साल की अंतिम कविता
याद आए मुझे 
कुछ भयावह स्वप्न 
जिन्हें शब्द देना 
नहीं है वश में 

लग रहा है 
मानो किसी प्रार्थनाघर में हूँ 
मेरे चारों ओर हो रहे हैं 
धमाके 
चीख और उसकी ख़ामोशी की सिसकियों के बीच 
लहुलुहान देख रहा हूं 
कुछ अजीब से चेहरे जिनकी हंसी 
लिपटी है तरह-तरह के झंडों में

पृथ्‍वी जोरों से घूम रही है
अपने अक्ष पर, 
गति के ताप से 
पिघलती हुई धरती 
बहाए जा रही है 
शीशे सा चमकता
अपना लावा कानों में


सोचता हूं 
क्या बदलेगा इस विश्व में 
मेरे कुछ असहाय कमजोर शब्दों से 
जब गिरवी रखे जा रहे हैं ताकतवर शब्‍द  
महज हस्ताक्षरों के द्वारा 
जनहित के नाम पर

जिनके नाम पर 
हो रही हैं घोषणाएं 
वे नजर आ रहे हैं  
सलाखों के पीछे. 
उन चेहरों में 
एक चेहरा कुछ जाना पहचाना है 
शायद तुम हो
शायद मैं स्वयं हूं
शायद.....।


प्रार्थना में उठ गए हैं हाथ
छोड़ कर कलम 
सोचता हूं हाथ कब
परिवर्तित होंगे मुट्ठियों में 
लिखते हुए साल की अंतिम कविता . 

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कैलेण्डर

तैयारी है
पुराने वर्ष के कैलेण्डर को
विस्थापित करने की 
ऐसा नहीं है कि
पुराने वर्ष के कैलेण्डर में
नहीं बसी हैं
कुछ मधुर स्मृतियाँ
कुछ रक्तरंजित चेहरे
कुछ इतिहास
कुछ युद्ध
कुछ जीत
कुछ हार
कुछ अनकही
कुछ कहासुनी
फिर भी जगह देने के लिए
भविष्य  को 
होता ही है विस्थापित अतीत .
पुराने वर्ष का कैलेंडर भी. 

कई बार
दस्तावेज बन जाता है
पुराने वर्ष का कैलेण्डर
क्योंकि उसके कुछ तारीख
नहीं होते हैं महज तारीख
गड़े होते हैं उसमे
कई मील के पत्थर 
होते हैं दर्ज कई हस्ताक्षर
कुछ सुनहरी स्याही में
कुछ स्याही के रंग होते हैं काले
फिर भी कह रहा होता है
बहुत कुछ अपने अनुभवों से
पुराने वर्ष का कैलेण्डर

एक तारीख
उठा ली है मैंने
लगा दिया अपने नए कैलेण्डर पर
निकल आया हूँ मैं
नए और पुराने कैलेंडर के
संक्रमण काल से
मिट गया है
मेरा द्वन्द भी.

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

लौटते हुए

लौटते हुए
मेरे साथ
मैं नहीं  था
छूट गया था वह
वही आँगन में पसरे हुए
तुम्हारे कपड़ो के साथ
अमरुद के पेड़ से
लटक गया
और हरसिंगार के छाये में
सो गयी थी मेरी
आत्मा

लौटते हुए
मेरे साथ था
हारे हुए का इतिहास
चीत्कार से भरा
युद्ध का मैदान था
लहुलुहान मेरे भीतर ,
छोड़ आया था जीत
तुम्हारे देहरी

लौटते हुए
ज्ञात हो रहा था
क्षितिज
आभासी है कितना
पृथ्वी और व्योम का
सम्ममिलन सत्य नहीं
स्वप्न भर है

लौटते हुए
पूरी हो रही थी
जिद्द किसी की
अधूरी रह गई थी
किसी की प्रार्थना.

जब लौट रहे थे
पक्षी अपने घोंसले में
सूरज भी लौट रहा था
समंदर की गोद में
बच्चे माँ की आंचल में
बस अकेला था तो मैं
कुछ एकाकी पदचिन्हों के साथ.

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मटर छीलते हुए

छीलते हुए मटर
गृहणियां बनाती हैं
योजनायें
कुछ छोटी, कुछ लम्बी
कुछ आज ही की तो कुछ वर्षों बाद की
पीढी दर पीढी घूम आती हैं
इस दौरान.

सोचती हैं
गृहस्थी के सीमित संसाधनों के
इष्टतम उपयोग के उपाय
पति से साथ
कई बार करती हैं
वाद परिवाद
रखती है अपनी बात

छीलते हुए मटर
फुर्सत में होती हैं
गृहणियां
कई छूटे काम
याद आ जाते हैं उन्हें
जैसे मंगवानी है शर्ट के बटन
खत्म होने वाला है खाने वाला सोडा
कई और भी कभी-कभी वाले काम
स्मृतियों में आते हैं

धूप में जब
छीला जाता है मटर
अलसा जाती है
दोपहर
फिर याद आती है
ससुराल गई बेटी
-जो होती तो बाँध देती केश
और बेटी से मिल आने की
बना ली जाती है योजना
इसी समय.

मटर छीलना
कई बार रासायनिक प्रक्रिया की तरह
काम करता है
उत्प्रेरक बन जाता है
देता है जन्म नए विचारों को
दार्शनिक बना देता है
बुद्ध सा चेहरा दिखता है
गृहणियों का शांत, क्लांत रहित
जबकि स्वयं को छीलती सा
करती हैं महसूस

कई बार तो
तनाव-मुक्त हो जाती हैं
गृहणियां
गुनगुनाती हैं
स्वयं में मुस्कुराती हैं
अपने आप से करती हैं बातें
छीलते छीलते मटर
जब याद आ जाती है
माँ, बाबूजी, बहन

गृहणियां
समय से
चुरा लेती हैं
थोडा समय
छीलते हुए मटर
खास अपने लिए .

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

अर्थशास्त्र

कहा जाता है कि 
अर्थशास्त्र 
एक विज्ञान है 
जहाँ किया जाता है
उत्पादन, वितरण व 
खपत का प्रबंधन 
अंतिम उद्देश्य होता है
संसाधनों का इष्टतम उपयोग
लाभ के साथ 
केंद्र में नहीं होता
आम आदमी. 

मांग और 
आपूर्ति के बीच 
संतुलन बिठाने की कला है 
अर्थशास्त्र 
जबकि मांगें 
की जा रही हैं सृजित 
चाहे-अनचाहे 
और आपूर्ति हो रही है 
छद्म मांगों पर 

अर्थशास्त्र में 
मूल्य के निर्धारण का
आधार होता है 
लागत और मांग 
जबकि बदल गए हैं
मूल्य के आदान ही. 

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

विज्ञापन बनाते हुए


वातानुकूलित
सम्मेलन कक्ष में
बनायी जाती है रणनीति
कैसे छला जाना है
संवेदनाओं को
व्यापक रूप से,
कहा जाता है
उसे 'ब्रीफ'


पहुंचना
होता है
हर घर की जेब तक
कहा जाता है
छूना है
दिलों को


करनी है
संबंधों की बात
दिखानी है
रिश्तों की अहमियत
वास्तव में
लक्ष्य है
इस फेस्टिव सीज़न
जमा पूंजी में सेंध


संस्कृति
और परम्पराएं
तो बस साधन हैं
साध्य है
असीम विस्तार
नए बाज़ार
नए एम ओ यू
कुछ विलय
कुछ अधिग्रहण


विज्ञापन बनाते हुए 
करने  होते  हैं 
कई कई समझौते
हर बार स्वयं से

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

छोटे अखबारों के मार्केटिंग एक्जक्यूटिव

बाज़ार की चकाचौंध
मीडिया की बाढ़ के बीच
निकलते हैं
छोटे अखबार
देश भर से
स्थानीय भाषाओँ में
पूरी प्रतिबद्धता के साथ
या कहिये
अपेक्षाकृत अधिक प्रतिबद्धता के साथ

इनके मार्केटिंग एक्जक्यूटिव  
होते हैं कस्बाई विश्वविद्यालयों से
शुरू हुए नए जनसंचार पाठ्यक्रम में
मीडिया की रणनीति और राजनीति की शिक्षा लिए
दुनिया खरीद लेने /या बेच देने  का जज्बा लिए
लेते हैं लोहा बाज़ार से
चेहरे पर सुदूर अवस्थित किसी स्टील प्लांट से
निकलने वाले इस्पात का तेज लिए
इनके भीतर होती है
अपरिमित ऊर्जा/सम्पदा
जैसे धरती के गर्भ में हैं
प्रचुर  संसाधन
अयस्कों  की भांति होते हैं
ये अनगढ़

जैसे जैसे
निखरती  है इनकी प्रतिभा
मीडिया बाज़ार  की
नज़र पड़ती हैं इनपर
और हैक कर लिए जाते हैं
बड़े अखबारों के
नए संस्करण के लिए
ठीक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के
एम ओ यू के तर्ज़ पर
संसाधनों के इष्टतम उपयोग
और निवेश के नाम पर

छोटे अखबार के
मार्केटिंग एक्जक्यूटिव 
ब्रांड बन कर उभरते हैं
और अस्त हो जाते हैं
रौशनी के अँधेरे में
मीडिया हाइरार्की की सीढी पर
लुढ़का दिए जाते हैं
थोड़े दिनों बाद

जारी रहती है
छोटे अखबार की प्रतिबद्धता
अपेक्षाकृत अधिक प्रतिबद्धता
साथ ही, नए मार्केटिंग एक्जक्यूटिव  की खोज

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

एक बेफिक्र दिखने वाली लड़की


वह जो
३०  वर्षीया लड़की
हाथ में कॉफ़ी का मग लिए
किसी बड़े कारपोरेट हाउस के
दफ्तर की बालकनी की रेलिंग से 
टिकी है बेफिक्री से 
वास्तव में 
नहीं है उतनी बेफिक्र
जितनी रही है दिख .

भय की कई कई परतें 
मस्तिष्क पर जमी हुई हैं 
जिनमे देश के आर्थिक विकास के आकड़ो से जुड़े
उसके अपने लक्ष्य हैं
जिन्हें पूरा नहीं किये जाने पर
वही होना है जो होता है 
आम घर की चाहरदीवारी में 

एक भय है 
उन अनचाहे स्पर्शों का 
जो होता है 
हर बैठक के बाद होने वाले 'हाई टी' के साथ
वह बचना चाहती है उनसे 
जैसे बचती हैं घरेलू औरते आज भी

एक भय 
परछाई की तरह 
करता है उसका पीछा 
लाख सफाई देने पर भी कि 
नहीं है उसका किसी से 
कोई अफेयर 

तमाम भय के बीच 
जब सूख जाते हैं उसके ओठ 
एक ब्रांडेड लिप-ग्लोस का लेप चढ़ा 
तैयार हो जाती है वह 
एक और मीटिंग के लिए 
उतनी ही बेफिक्री से. 
वास्तव में 
जितनी बेफिक्र नहीं है वह. 

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कोरियर ब्यॉय

मिल जाता है
अक्सर ही
दफ्तर की
सीढ़ियों में
चढ़ते उतरते
हाथ में नीला सा बैग लिए
जिस पर छपा है उसकी कंपनी का
बड़ा सा 'लोगो'
कंपनी के कारपोरेट रंग का
यूनिफार्म पहने
स्मार्ट सा कोरियर ब्यॉय

दस मंजिल तक
चढ़ जाता है वह
किस्तों में
हाँफते हुए
भागते हुए
एक दफ्तर से
दूसरे दफ्तर
बांटते पैकेट
लिफाफे
जिसे गारंटी से डिलीवर करना होता है
दोपहर बारह बजे से पहले
कंपनी की कारपोरेट नीति और
प्रीमियम सेवा के लिए
प्रीमियम दाम के बदले

लगता है
कभी कभी
मुझे खेतों के बैल
बंधुआ मजूर सा
वह स्मार्ट सा
कोरियर ब्यॉय
जिसे नहीं पता कि
न्यूनतम मजदूरी क्या है
इस मेट्रो शहर में .

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

कल फिर आना प्रथम किरण के साथ

जाओ
घर भी अब
देखो सूरज
छिप गया है
कुहासे की चादर ओढ़
क्षितिज की ओट में
हरियाली भी
सो गई है
ओढ़ कर शीत का लिहाफ
ऐसे में
तुम्हारा देर तक
मेरे साथ रहना
ठीक नहीं

जाओ तुम
मैं भी चलता हूँ
कल ले आऊंगा मैं
कुछ फूल ओस के
भर कर अपनी मुट्ठी में
और सजा दूंगा
तुम्हारे केशों में
थोड़ी सी गीली धूप
ले आऊंगा तुम्हारे लिए
अपने गालों पर लगा लेना
गुलाबी हो जाओगी तुम
आज की तरह ही
या आज से भी अधिक

मसूर के फूल
नीले नीले से हैं
देखो सो रहे हैं कैसे
मानो आसमान सो रहा हो
ख़ामोशी से
सिहर उठते हैं
कभी कभी
हवा के झोंके से
डर कर
जैसे डर रहे हो हम तुम
किसी की आहट पर ,
दिन भर
चांदी सा झिलमिल करते
यह पोखरा भी
मौन हो गया है
बस कभी कभी
मछलियों के कूदने से
टूटता है इसका सन्नाटा
वैसे ही जैसे
धड़क उठती है
तुम्हारी साँसे
मेरे छूने भर से
सुस्ताने दो
खेतो और तालाबो को
लौट जाओ तुम
अपने घर

फिर लौट आयी तुम !
चलो जाओ भी
देखो परिंदों का दल भी
लौट आया है
अपने अपने घोंसले में
जुगनू फैला रहे हैं
अपने  पंख
तैयार हैं
दिखाने को तुम्हे रास्ता
साथ हो लेना इनके
ऊपर चाँद भी होगा
छोड़ आएगा तुम्हारे
ओसारे तक
डरना नहीं
मैं तो परछाई की तरह
रहूंगा  ही साथ साथ

जाओ तुम
कल फिर आना
प्रथम किरण  के साथ

रविवार, 5 दिसंबर 2010

लिख नहीं पाया कुछ तुम्हारे लिए

प्रिये 
आज दूर हो तुम लेकिन 
लिख नहीं पाया 
तुम्हारे लिए कुछ भी 

हर पल/ हर क्षण लगा
साथ बैठी हो तुम
मेरे कंधे पर
रख लिया है 
तुमने अपना सिर
तुम्हारे केश 
मेरे शर्ट की बटन से उलझ गए हैं
दिन भर मैं
सुलझाता रहा
तुम्हारे केश 
शब्द गए उलझ !

एक बार तो ऐसा लगा
मानो मेरे कानो में 
कुछ कह रही हो तुम
और तुम्हारी उंगलिया
मेरे महीनो से नही कटे बाल को
सहेज रही हो तुम
जैसे सहेजती हो तुम
अपना आँचल
अपनी किताबें
किताबों में पड़ी कुछ चिट्ठियाँ 
सूखे फूल 
पढता रहा फिर से
तुम्हारी किताबों में पड़ी पुरानी चिट्ठियों को और
सूखे फूलों को देखते देखते
सूरज उड़ गया
लगा कर पंख
धूप भी लौट गई
अपने घोसलें में
शब्द नहीं लौटे मेरे पास
साथ जो गए तुम्हारे 

लगा ही नहीं कि 
दूर हो तुम मुझे से किसी भी पल 
और लिखी जाए तुम्हारे लिए
कोई कविता. 

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

अफगानिस्तान










भूगोल की किताबों में 
जरुर हो तुम एक देश
किन्तु वास्तव में
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
युद्ध के मैदान से

दशकों बीत गए
बन्दूक के साए में
सत्ता और शक्ति
परिवर्तन के साथ
दो ध्रुवीय विश्व के
एक ध्रुवीय होने के बाद भी
नहीं बदला
तुम्हारा प्रारब्ध 
काबुल और हेरात की 

सांस्कृतिक धरोहर के
खंडित अवशेष पर खड़े
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
रक्तरंजित वर्तमान से

बामियान के
हिम आच्छादित पहाड़ों में
बसे मौन बुद्ध
जो मात्र प्रतीक रह गए हैं
खंडित अहिंसा के
अपनी धरती से
विस्थापित कर तुमने
गढ़ तो लिया एक नया सन्देश
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
मध्ययुगीन बर्बरता से

जाँची जाती हैं
आधुनिकतम हथियारों की
मारक क्षमता 
तुम्हारी छाती पर
आपसी बैर भुला
दुनिया की शक्तियां एक हो
अपने-अपने सैनिको के 
युद्ध कौशल का
देखते हैं सामूहिक प्रदर्शन
लाइव /जीवंत
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
सामरिक प्रतिस्पर्धा से

खिड़कियाँ जहाँ
रहती हैं बंद सालों  भर
रोशनी को इजाजत नहीं
मिटाने को अँधेरा
बच्चे नहीं देखते
उगते हुए सूरज को
तितलियों को
फूलों तक पहुँचने  की
आज़ादी नहीं
हँसना भूल गयी हैं
जहाँ की लडकियां
तुम अफगानिस्तान
कुछ अधिक नहीं
फिल्मो/ डाक्युमेंटरी/ रक्षा अनुसन्धान के विषय भर से 

सदियों से चल रहा
यह दोहरा युद्ध
एक -दुनिया से
और एक- स्वयं से
सूरज को दो अस्तित्व कि 
मिटा सके पहले भीतर का अँधेरा
खोल दो खिड़कियाँ
तुम अफगानिस्तान
इस से पहले कि
मिट जाए अस्तित्व
भूगोल की किताबों  से .