इन दिनों मैं
बनाना चाह रहा हूँ
एक चित्र
पूरी असफलता से
एक आदमी
बनाना चाह रहा हूँ
लेकिन बन नहीं पा रहा
जो बनाया इसका सिर
बन गया बहुत बड़ा विशाल
बनाना चाह रहा हूँ
एक चित्र
पूरी असफलता से
एक आदमी
बनाना चाह रहा हूँ
लेकिन बन नहीं पा रहा
जो बनाया इसका सिर
बन गया बहुत बड़ा विशाल
और अनगिनत वायरों में उलझ गया
इसके हाथ
आम आदमी के हाथ से
बन गए काफी बड़े और
उंगलियाँ बन गईं
मोबाइल के टावर सी
और नाखून उग आये
इस चित्र में
नाखून बढ़ने लगे
बेहिसाब और
कुरेदने लगे
धरती की आंतें
रक्त रंजित हो गया
वातावरण और आवरण
जो बनाने लगा पैर
वामन से बन गए
चट्टानों से पैर के नीचे
आने लगे पेड़ पौधे
पहाड़ और नदियाँ
रेगिस्तान
अचानक बढ़ने लगा
रेगिस्तान का आकार
उसमे उगने लगे नागफनी
हर तरफ
तूलिका से
जो खींचा कैनवास पर
आसमान की पृष्ठभूमि
रंग स्वयं बदल गया
नीले से स्याह
धुंए के गुबार से भर गया
आसमान
मशीन सा हो गया
मेरे चित्र का मानव
यंत्रों की तरह हो गई
संवेदनाएं उसकी
कृत्रिम सा हो गया
फूलों का रंग
उसके बगीचे में
डरी सी है चिड़िया
गुमसुम
गंध कुछ हो गई
पेट्रोल सी
बनाया जो
उसका ह्रदय
संकुचित सा बन गया वह
खुल ही नहीं रहे उसके कपाट
मानव जन्य भाव
उत्पन्न ही नहीं हो रहे
उसके चेहरे को
जो रंगना चाहा हल्के गुलाबी रंग में
कुछ ईंटों सा हो गया उसका रंग
सिलवटें भी आड़ी तिरछी नहीं बनी
बल्कि दीवार सी हो गईं सीधी सपाट
जो रंगना चाहा हल्के गुलाबी रंग में
कुछ ईंटों सा हो गया उसका रंग
सिलवटें भी आड़ी तिरछी नहीं बनी
बल्कि दीवार सी हो गईं सीधी सपाट
संज्ञा विहीन
मेरे कैनवास पर
बने इस चित्र का यह
असमानुपातिक मानव
कर रहा है हासिल
ज्ञान विज्ञान कला के क्षेत्र में
तरह तरह की उपलब्धियां
लोग पसंद कर रहे हैं इसे
विभिन्न गैलरियों में
पूछ हो गई है इसकी
लिया जा रहा है इसका साक्षात्कार
मेरे कैनवास पर
बने इस चित्र का यह
असमानुपातिक मानव
कर रहा है हासिल
ज्ञान विज्ञान कला के क्षेत्र में
तरह तरह की उपलब्धियां
लोग पसंद कर रहे हैं इसे
विभिन्न गैलरियों में
पूछ हो गई है इसकी
लिया जा रहा है इसका साक्षात्कार
जबकि
मेरा ही एक और चित्र
मेरा ही एक और चित्र
जिसमे उसकी आँखों मे झील है
और पानी इतना पारदर्शी कि
झील की तलहटी में
बसी मछलियाँ यूं ही दिखती हैं
करती अटखेलियाँ
उसमे एक बच्चा भी है
तितलियों के पीछे भागता
एक गौरैया पेड़ की डाल पर
खुश दिख रही है ,
उसमे एक बच्चा भी है
तितलियों के पीछे भागता
एक गौरैया पेड़ की डाल पर
खुश दिख रही है ,
उतार दिया गया है दीवार से
पड़ा है अकेला .
पड़ा है अकेला .
मेरे कैनवास पर
जवाब देंहटाएंबने इस चित्र का यह
असमानुपातिक मानव
कर रहा है हासिल
ज्ञान विज्ञान कला के क्षेत्र में
तरह तरह की उपलब्धियां
लोग पसंद कर रहे हैं इसे
विभिन्न गैलरियों में
पूछ हो गई है इसकी
लिया जा रहा है इसका साक्षात्कार yahi to vidambana hai aaj ke samay ki...na sirf aadmi samvedana rishte bhavnaye maryadaye sabhi to asmanupatik ho gaye hai ....bahut gahan peeda hai is abhivyakti me...
Achhi vyanjana ke sath likhi gai sundar kavita.
जवाब देंहटाएंतितलियों के पीछे भागता
जवाब देंहटाएंएक गौरैया पेड़ की डाल पर
खुश दिख रही है ,
उतार दिया गया है दीवार से
पड़ा है अकेला
bahut sundar bhavabhivyakti.
कविता में मुक्तिबोध के ’ब्रह्मराक्षस’ की झलक मिलती है। तथाकथित विकास की विभिषिका का ब्लू-प्रिंट ! साथ में अपनी संस्कृति और सरोकारों से दूर होने की व्यथा भी। कविता अपेक्षाकृत बौद्धिक बन गयी है... किन्तु यह विषय भी तो तथाकथित बुद्धिजीवियों के लिये ही है। धन्यवाद !!
जवाब देंहटाएंमशीन सा हो गया
जवाब देंहटाएंमेरे चित्र का मानव
यंत्रों की तरह हो गई
संवेदनाएं उसकी
sachchi rekhayen khinchi hain
विकास की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है हमें...इस सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें...
जवाब देंहटाएंनीरज
पन्ने की कहानी का महत्व हाशिये पर अंकित किया जाता है.
जवाब देंहटाएंnishavd hoo mai......
जवाब देंहटाएंati snder abhivykti man me chal rahe bhoochaal kee.......
जबकि
जवाब देंहटाएंमेरा ही एक और चित्र
जिसमे उसकी आँखों मे झील है
और पानी इतना पारदर्शी कि
झील की तलहटी में
बसी मछलियाँ यूं ही दिखती हैं
करती अटखेलियाँ
उसमे एक बच्चा भी है
तितलियों के पीछे भागता
एक गौरैया पेड़ की डाल पर
खुश दिख रही है ,
उतार दिया गया है दीवार से
पड़ा है अकेला .
....
आज जब मानव मशीन बन गया है तो यह सब तो होगा ही और मासूम बच्चे का तितली वाला चित्र किसे अच्छा लगेगा और इसका दीवार से उतरना तो इसकी नयति होगी ही..इतनी विभीषिकाओं के बाद भी मानव समझने के लिये तैयार नहीं है..बहुत भावपूर्ण उत्कृष्ट रचना..
आधुनिक मानव है यह तो, पुरानी परिकल्पनायें छोड़ इसका आकार रचें।
जवाब देंहटाएंयही है शायद आज का अभी का मानव, आपका चित्र सही है । बढिया प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसमाज के उद्योगीकरण और भौतिकतावादी स्वभाव के कारण मानव मूल्य में परिवर्तन आया है। जीवन धारा और सोच विचित्र हो गई है। अविश्वास, संत्रास, खालीपन, हतोत्साह, निराशा, कुंठा, अकेलापन आदि के कारण मनुष्य को यह बोध कराता है कि सब आधा है, अधूरा है। और जो चित्र बनता है वह पूरा नही हो पाता। उसे पूरा करने की तलाश ज़ारी है।
जवाब देंहटाएंअरुण जी,
जवाब देंहटाएंहैट्स ऑफ ......इस पोस्ट के लिए......शानदार व्यंग्यात्मक कटाक्ष........सुभानाल्लाह |
केनवास दे रचित कविता !
जवाब देंहटाएंcanvess pe aapne shabdo ke chitra uker diye...wah sir jee:)
जवाब देंहटाएंवर्तमान हालातों का और अच्छाई/बुराई का बड़ा सजीव चित्रण किया है आपने.
जवाब देंहटाएंअदभुत कैनवास के माध्यम से आपने कितने ही भावों को खूबसूरती से उकेर डाला है.अब समझ आता है कि ब्रह्मा जी को सृष्टि निर्माण के लिए कितना यज्ञ और तप करना पड़ा होगा.श्रीमद्भागवतमें ब्रह्मा की बनाई शुरू की सृष्टियों के सम्बन्ध में बड़ी निकृष्ट सृष्टियों का भी वर्णन किया गया है.
जवाब देंहटाएंआपसे एक बार फिर प्रार्थना है आप मेरे ब्लॉग पर आकर मुझे गुण दोष के आधार पर विवेचना से अवगत कराएँ.एक ब्लोगर को आपत्ति है मेरी पोस्टों से.आपका आभारी हूँगा.
कविता भी जन्मजात होती है ....क्या चित्र उकेरें हैं ...
जवाब देंहटाएंapne garbh me kitni bhavon ko sameti hui rachana...prabhavi...prasanshneey...badhai
जवाब देंहटाएंमशीन सा हो गया
जवाब देंहटाएंमेरे चित्र का मानव
यंत्रों की तरह हो गई
संवेदनाएं उसकी ...
विकास की इतनी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी ...
आज का सच लिखा है ...
बदलते पर्यावरण, सामाजिक सोच व रहन सहन का चित्रण करते हुए आपने अपने-हमारे मन के भावों को बहुत ही खूबसूरती से उकेरा है | आप का बनाया चित्र स्पष्ट नजर आ रहा है |
जवाब देंहटाएंnice कृपया comments देकर और follow करके सभी का होसला बदाए..
जवाब देंहटाएं