बुधवार, 20 जुलाई 2011

नंगे पैर

मुक्तिबोध
हिंदी के बड़े कवि हैं
जानते भी होंगे आप
और नहीं भी
कहते हैं
मुक्तिबोध के अंतिम संस्कार में
शामिल होने के बाद से
मकबूल फ़िदा हुसैन साहब ने
नहीं लगाया जूते चप्पल को
पैरों से
रहे नंगे पैर आजीवन
तब भी जब सुनते हैं कि
किसी बड़े क्लब हाउस ने
आमंत्रण के बाद भी
प्रवेश करने से कर दिया था मना
यह मुक्तिबोध का प्रभाव था
या उनकी कविता का
जिसने जगाया
हुसैन साहब के भीतर के फ़कीर को

कुछ और लोग भी
रहते हैं नंगे पैर
जैसे खेत में काम करते
अधिकतर किसान
आषाढ़ में कादो भरे खेतों में
धान रोपती औरतें
खेतों के मेढ़ पर
खेलते मजदूरों  के बच्चे
आजीवन
मुझे वे फ़कीर ही लगते हैं


अपने निश्छल भाव से उकेरते चित्र
आसमान की छाती पर.

इस बीच जब होते हैं
तरह तरह के सर्वेक्षण
सरकार के पास
कोई तंत्र और यन्त्र नहीं है
जो मापे कि
देश के कितने पैरो को
नसीब नहीं हैं
जूते चप्पल
रहते हैं नंगे
लेकिन इसकी फ़िक्र करने का
नहीं है कोई औचित्य आज
सरकार की कोई
नैतिक मज़बूरी भी नहीं है

हम नंगे तो हो रहे हैं
बड़ी तेजी से
दिल से
दिमाग से
नैतिकता से
रिश्तो में
समाज का  नेतृत्व
दिखा रहा है चारित्रिक नंगापन
लेकिन लोग नहीं रहना चाहते नंगे पैर
जबकि मिटटी से सने पैर
खुरदुरे तो हो सकते हैं
लेकिन वे नुकसान नहीं पहुंचाते किसी को 

हुजूर !
नंगे पैर
रह  कर तो देखिये
बदल जाएगी आपकी दृष्टि
दुनिया देखने की
बढ़ जायेगा आपका अपनापन
धरती से, मिटटी से
एक फ़कीर जाग जायेगा
आपके भीतर भी 
और
यदि किसी 'मुक्तिबोध' के मरने के बाद
कोई निर्णय करे रहने को नंगे पैर
तो हुजूर मैं तैयार हूँ
एक बार नहीं , बार बार !

38 टिप्‍पणियां:

  1. सरकार के पास
    कोई तंत्र और यन्त्र नहीं है
    जो मापे कि
    देश के कितने पैरो को
    नसीब नहीं हैं
    जूते चप्पल
    रहते हैं नंगे
    लेकिन इसकी फ़िक्र करने का
    नहीं है कोई औचित्य आज
    सरकार की कोई
    नैतिक मज़बूरी भी नहीं है

    बहुत ही गहरी पंक्तियाँ हैं सर। बहुत कुछ कहती हुई।

    सादर

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  2. बढ़ जायेगा आपका अपनापन
    धरती से, मिटटी से
    एक फ़कीर जाग जायेगा
    आपके भीतर भी

    भावमय करते शब्‍दों के साथ ...सटीक अभिव्‍यक्ति ।

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  3. आपकी आवाज़ संघर्ष की जमीन से फूटती आवाज़ है। वह ज़मीन जिस पर नंगे पैर आप चलते हैं, चलते रहना चाहते हैं। पर वहीं थमक कर रह जाना नहीं चाहते बल्कि आंखें खोलकर एक स्वप्न देखते हैं, और उन सपनों को देखने वाली आंखों की चमक और तपिश भी बनी हुई है।

    क्रूर और आततायी समय में आपके सच्चे मन की आवाज़ है यह कविता।

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  4. हुजूर !
    नंगे पैर
    रह कर तो देखिये
    बदल जाएगी आपकी दृष्टि
    दुनिया देखने की
    बढ़ जायेगा आपका अपनापन
    धरती से, मिटटी से
    एक फ़कीर जाग जायेगा
    आपके भीतर भी
    और यदि किसी 'मुक्तिबोध' के मरने के बाद
    कोई निर्णय करे रहने को नंगे पैर
    तो हुजूर मैं तैयार हूँ
    एक बार नहीं , बार बार !

    पता नही क्यों भाई जी आप मुझे हर बार भूल जाते हैं......अगर मेरे इस मांस पिंड के ना होने से किसी में फकीरी जगती है तो मैं भी तैयार हूँ भाई जी.....

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  5. बहुत सुन्दर रचना है बधाई स्वीकारें।

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  6. "हुजूर !
    नंगे पैर
    रह कर तो देखिये
    बदल जाएगी आपकी दृष्टि
    दुनिया देखने की
    बढ़ जायेगा आपका अपनापन"

    पूरी की पूरी रचना रेखांकित की जा सकती है - आपकी सोच और उसको शब्दों में ढालने की कला को सलाम

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  7. लाजवाब ! बधाई स्वीकार करें !

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  8. हम नंगे तो हो रहे हैं
    बड़ी तेजी से
    दिल से
    दिमाग से
    नैतिकता से
    रिश्तो में
    समाज का नेतृत्व
    दिखा रहा है चारित्रिक नंगापन

    अरुण जी .........कमाल का लिखते हैं आप..........शानदार |

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  9. MF Hussain ko dekh kar kabhi unki fakiri jhalki nahi..aur na hi ye gyan tha...!
    par ye sach hai, nange pair rahne wale log...jameen se jure hote hain...:)
    yani kahin na kahin unme fakiri/sant dikh jate hain..!

    जवाब देंहटाएं
  10. धरती से, मिटटी से
    एक फ़कीर जाग जायेगा
    आपके भीतर भी
    और यदि किसी 'मुक्तिबोध' के मरने के बाद
    कोई निर्णय करे रहने को नंगे पैर
    तो हुजूर मैं तैयार हूँ
    एक बार नहीं , बार बार ..

    नम में उठती हुयी टीस ही मुक्तिबोध का भाव जगाती है ... और प्रेरणा देती है उस दर्द को झेलने की उससे मुक्ति की ... बहन भाव लिए बेहतरीन रचना है अरुण जी ...

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  11. अनुपम प्रस्तुति अरुण भाई.
    नंगे पैर को आपने इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति दी है
    कि 'नंगे पैर' रहने को मेरा भी दिल कर रहा है.
    बहुत बहुत आभार.

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  12. नंगे पैरों को जमीन से जोड़कर बेहतरीन लिखा है आपने.

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  13. नंगे पैरों वाला फकीर बहुत अच्छा है ..पर मजबूरी में किसी को नंगे पाँव ना रहना पड़े ... आपकी कविता ने उस मेहनतकश नंगे फकीरी पाँव को कितने बिम्बो से देखा ..अद्भुत और विचारणीय ... बहुत सुन्दर

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  14. कविता मर्म को स्पर्श करती है। एक बार फिर आपने अपने सामजिक सरोकारों को संजीदगी से आवाज दिया है। धन्यवाद॥

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  15. ... बहुत ही गहरी अभिव्यक्ति आपके शब्द बहुत प्रभावित करते है
    यही बनती जा रही है तुम्हारी विशेषता खुशी होती है ऐसी रचनाओं को पढ़ कर |
    प्रेरणा देती है बेहतरीन रचना है ......अरुण जी

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  16. kaash ek aisa yantra hota
    ya koi tantra hota
    jisase logon ke nange man, nangi neeyta bhi maapi jaa sakti...
    bahut sundar rachna...
    aap hamesha hi yatharth ko chitrit kar dete hain...

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  17. shayad nange pairo ko seedha dharti maa se chhuan paa kar kuchh insan me insaniyat, vafadari aur apne desh ke prati, apni dharti ke prati koi farz yaad aa jayen.

    sunder kriti.aabhar.

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  18. मन का फकीर जग जाये तो जगत निरर्थक दिखने लगता है।

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  19. नंगे पैर रह ही माटी को महसूस जा सकता है ... और जिसके ह्रदय तक माटी की पहुँच नहीं,वह क्या रचेगा और क्या जियेगा...

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  20. अरुण जी! एक नई जानकारी मिली... हुसैन साहब के ननगे पैरों घूमने के पीछे की घटना यह थी पता नहीं था..
    आपकी कविता पढ़ने के बाद घंटों एक अजीब से भावों से भरा रहता है मन, सवाल पूछता रहता है खुद से, कुरेदता है, सवाल पूछता है.. पढ़ने वाला "वाह" तक नहीं कह पाता..
    आपकी यह कविता भी वाह की मोहताज नहीं.. अरुण जी उम्र में बहुत छोटे हैं आप लेकिन सिर झुकाने को जी चाहता है इस कविता को पढ़ने के बाद!!

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  21. इस कविता में 'नंगे पैर' को केंद्र में रख कर जहां एक ओर किसानों का ज़िक्र करते हुए सांकेतिक व्यंग्य को प्रस्तुत किया गया है वहीं साथ में नंगे पैर रहने की अंतर्निहित सार्थकता का भी समर्थन किया गया है| कविता अपना संदेश देने में कामयाब है|

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  22. क्या बात है , वाह.
    नंगे पैर-quite a new approach.

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  23. सुन्दर और दमदार कविता |बधाई |भाई अरुण जी आंच क्या है एक बार आपने मेरी कविता का जिक्र किया था कृपया लिंक देने का कष्ट करें |

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  24. हम नंगे तो हो रहे हैं
    बड़ी तेजी से
    दिल से
    दिमाग से
    नैतिकता से
    रिश्तो में
    समाज का नेतृत्व
    दिखा रहा है चारित्रिक नंगापन
    लेकिन लोग नहीं रहना चाहते नंगे पैर...

    बहुत लाज़वाब और सटीक प्रस्तुति...सचाई को बहुत सटीकता से उकेरा है..आभार

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  25. हम सब के अन्दर एक फकीर तो है थोडा कम या ज्यादा. सरकार को तो अपनों से ही फुरसत नहीं है.

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  26. कवि की कविता से उसकी संवेदना के स्तर का भान हो जाता है।
    आपकी संवेदनशीलता को नमन !

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  27. बेहद संवेदनशील और सारगर्भित रचना. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  28. पड़कर मजा आ गया, धन्यवाद अरुण जी, मुझे भी प्रेरणा मिली ---नंगे पैर --- पर एक कविता लिखने की, मैंने भी देखें हैं बहुत लोग, नंगे पैर, मजबूरी में, मैं कई बार चप्पल इंडेक्स के बारे में बात करता हूँ, चप्पल का अपना स्थान है, अपना प्रयोग है, परन्तु उनसे पूंछिये जिन्होने नंगे पैर रहना स्वीकार किया है, अपनी स्वयं की इच्छा से...
    बधाई इतनी सार्थक पंक्तियों द्वारा भावनाओं को व्यक्त करने के लिए...

    विजय

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