शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

रिशेप्शनिस्ट


वर्षो से
सैकडों फोन
रोज सुनती है वो
लेकिन नही आया
वो एक फोन
जिसका था 
उसे इन्तजार


टेलीफोन के पैड पर
थिरकतीं हैं 
उसकी उंगलियाँ ऐसे
जैसे थिरका था 
उसका पांव
पहला प्यार होने पर .
३.
हंस कर जो
बोलती है वह 
हल्की लगती है
जो नहीं है 
हंसती
पड़ती है बदलनी
नौकरी   
 
४.
टेलीफोन हैं
उसके सबसे करीबी मित्र
जिन्हें पता है
क्यों भारी है 
उसकी आवाज़ आज
क्यों है आँखें गीली 
जबकि कहती नहीं वह किसी से
जब वह यंत्रवत रहती है 
नहीं कह सकते
कौन है यन्त्र
वो या टेलीफोन    



दफ्तर के पीछे वाली खिड़की पर
रहने वाली गौरैया
बहुत खुश थी आज
उसने जने थे अंडे
पहली बार 
इर्ष्या की आग में
जली थी वो .

37 टिप्‍पणियां:

  1. हूँ... भाव के अनुरूप बिम्बों का चुनाव इस कविता की प्रतिष्ठा है!

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  2. बड़ी सही तस्वीर दिखाई है आपने अरुण जी.. कहते हैं चेहरा दिल का आईना होता है... यानि रिसेप्शनिस्ट किसी भी ऑफिस का चेहरा होती है.. क्या वहाँ काम करने वाला हर आदमी कमोबेश इसी मानसिकता से नहीं गुज़रता... सब मशीनी हो गए हैं.. वो तो आप हैं जो इन मशीनों की धडकन सुन लेते हैं!!
    .
    पुनश्च: "उसने जाने थे अंडे" या "उसने जने थे अंडे".. ट्रान्सलिटरेशन की त्रुटि लगती है!
    (

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  3. सलिल जी सबसे पहले टंकण त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार... जितने मनोयोग से आप मेरी कविताओं को पढ़ते हैं मैं अभिभूत हूं... अरुण

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  4. वर्षो से
    सैकडों फोन
    रोज सुनती है वो
    लेकिन नही आया
    वो एक फोन
    जिसका था
    उसे इन्तजार
    Bahut bhaavpoorn!

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  5. आम जीवन से जुड़े चरित्र आपकी रचनाओं में खास बन जाते हैं..... बहुत सुंदर

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  6. आप अपने शब्दों द्वारा चरित्र को जीवंत कर देते हैं ,,समक्ष ला कर खड़ा कर देते हैं
    बहुत सुंदर !!

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  7. वर्षो से
    सैकडों फोन
    रोज सुनती है वो
    लेकिन नही आया
    वो एक फोन
    जिसका था
    उसे इन्तजार


    जीवन भी क्या विरोधाभास है .....!

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  8. वर्षो से
    सैकडों फोन
    रोज सुनती है वो
    लेकिन नही आया
    वो एक फोन
    जिसका था
    उसे इन्तजार
    bahut sundar prastuti arun ji.badhai.

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  9. mashin hote insanon ki bhavnaon ko samajh kar bahut badiya rachna ki hai aapne...

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  10. in vishyo pad padh kar ye baat charitarth hoti hai ki jahan na pahuche ravi vaha pahuche kavi...

    kavi ki soch kaha kaha tak pahuch sakti hai aur kis kis k liye vo samvedna mehsoos kar sakta hai yahi uska lekhan batata hai.

    acchhi rachna.

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  11. दफ्तर के पीछे वाली खिड़की पर
    रहने वाली गौरैया
    बहुत खुश थी आज
    उसने जने थे अंडे
    पहली बार
    इर्ष्या की आग में
    जली थी वो .

    अरुण भाई,इतना न उसे जलाओ आप
    हो सके तो उसे भी सुन्दर दुल्हा दिलवाओ आप
    कुआंरी ने बहुत खटखटाया टेलीफोन
    ब्याह के बाद 'दुल्हे'को रखेगी वह मौन
    फिर तो बस वही खट खट करती रहेगी
    गृहस्थी यूँ ही उसकी चट पट चलती रहेगी.
    रिशेप्शन पर फिर कोई नई कन्या होगी.
    जब तक वह भी न यूँ जलेगी
    रिशेप्शनिस्ट बनी रहेगी.

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  12. ईर्ष्‍या के बजाय आशा प्रबल होती तो शायद फोन आ भी सकता था, अब फोन भी आए तो जाने क्‍या हो.

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  13. to aaj aapka kavi man ...receptionist ke andar jaa kar uske haal chaal le aaya ...

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  14. waise uss Receptionist ke pahle pyar ke baare me aapko kaise pata??? batana jara sir:P:P:P

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  15. जब वह यंत्रवत रहती है
    नहीं कह सकते
    कौन है यन्त्र
    वो या टेलीफोn
    bahut sateek baat:)

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  16. शब्‍द यूं जैसे सजीव हो उठे हों ...बेहतरीन ।

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  17. ये होता है पारखी नज़र का कमाल जो अन्दर तक झांक लेती हैं।

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  18. क्या बात है....कितनी ही बखूबी से सभी क्षणिकाएं लिखी हैं ,कितना सब कुछ चंद पंक्तियों में लिख डाला!!
    bahut khoob!!

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  19. बहुत गहनता से लिखा है ..अंतिम वाली लाजवाब

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  20. टेलीफोन रिसेपश्निस्ट के चरित्र को लेकर बेहतरीन चित्रण...आनन्द आया.

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  21. शब्दों को चित्रों में बदल दिया है ... अलग अलग अंदाज़ लिए बेहतरीन क्षणिकाएं ...

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  22. अरुण जी कमल हैं आप.....खुदा ने आपको बहुत पारखी नज़र बख्शी है......ऐसे ही लिखते रहे........शुभकामनायें|

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  23. आदमी के मशीन में तब्दील हो जाने की यह एक त्रासद कथा है ,जिसे आपने बखूबी लिखा है -बधाई

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  24. हंस कर जो
    बोलती है वह
    हल्की लगती है
    जो नहीं है
    हंसती
    पड़ती है बदलनी
    नौकरी Ye bhee kaisee majbooree hai!

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  25. अद्भुत रमेश भाई अद्भुत...मैं आपकी रचनाएँ पढता जरूर हूँ लेकिन कभी कभी कमेन्ट नहीं दे पाता...आपको पढना हमेशा अच्छा लगता है...सोच के धरातल पर आप एक दम नयी बात कह जाते हैं...आपके लेखन की ये नवीनता ही मुझे आप के ब्लॉग पर लगातार आकर्षित करती है...इस बार भी टेलीफोन और रिशेप्श्निष्ट के माध्यम से जीवन की जटिलताओं,आशाओं,मजबूरियों का गज़ब वर्णन किया है आपने...कम शब्दों में गहरी बातें कर जाना कोई आपसे सीखे...बधाई स्वीकारें,

    नीरज

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  26. जब वह यंत्रवत रहती है
    नहीं कह सकते
    कौन है यन्त्र
    वो या टेलीफोन

    कविता के मुख्य पात्र के मन को टटोलती हुई सुंदर कविताएं।
    कवि जो कहना चाहता है, ये कविताएं उसे और अधिक स्पष्टता से अभिव्यक्त कर रही हैं।

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  27. नहीं कह सकते
    कौन है यन्त्र
    वो या टेलीफोन


    .....

    बस यही तो है वह एक जीवन....

    मर्मस्पर्शी ढंग से इस संक्षिप्त कलेवर में सम्पूर्ण जीवन का रेखाचित्र खींच दिया आपने...

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  28. टेलीफोन हैं
    उसके सबसे करीबी मित्र
    जिन्हें पता है
    क्यों भारी है
    उसकी आवाज़ आज
    क्यों है आँखें गीली
    जबकि कहती नहीं वह किसी से
    जब वह यंत्रवत रहती है
    नहीं कह सकते
    कौन है यन्त्र
    वो या टेलीफोन
    ....
    भाई इस कविता को मैं पहले पढ़ के चुपचाप वापस चला गया ..सोंच कर गया था कि अनुपस्थिति में जो भी छूटा है वो सब का सब जब तक पढने का टाइम नही मिलेगा आपके ब्लॉग पे नही आऊंगा... ३ दिन से सोंचते सोंचते आज देखो तो ....खुश किस्मत हूँ मैं.
    भाई कैसे देखते हो आप आम इंसान की इतनी छोटी से छोटी बातों को ..नमन है आपको.

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  29. टेलीफोन के पैड पर
    थिरकतीं हैं
    उसकी उंगलियाँ ऐसे
    जैसे थिरका था
    उसका पांव
    पहला प्यार होने पर
    दिल को छूते शब्‍दों के साथ ....बेहतरीन शब्‍द रचना ।

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