शनिवार, 30 जुलाई 2011

११ साल का मेहंदीवाला

एक मॉल के
चकाचौंध के नीचे पसरे 
अँधेरे में 
बैठा है यह 
११ साल का मेहंदीवाला 

जिस उम्र में 
सही सही अक्षर बनाना 
नहीं सीख पाया है
मेरा बेटा
उस उम्र में 
सभी उम्रों की हथेलियों में
उकेर देता है मनचाहे चित्र 
खूबसूरती से 
११ साल का मेहंदीवाला 

उसे नहीं पता 
क्या है सूरज, चाँद, तारे
फूल, पत्ते, मोर, कृष्ण और  राधा 
लेकिन मालूम  है 
किसकी हथेली पर 
जचेगा चाँद, तारे,मोर के चित्र
किसकी हथेली पर
राधा कृष्ण 
जानता है 
११ साल का मेहंदीवाला 

मेहंदी का तेल लगाते हुए
बड़ी मीठी बातें करता है 
अपनी उम्र से कही अधिक मीठी बातें 
जबकि जानता है वह स्वयं भी
कोई मिठास नहीं है
उसके जीवन में 
सुन्दरता से रचने को मेहंदी 
सहज कर लेता है
हथेलियों को 
११ साल का मेहंदीवाला 

है गुजरात या राजस्थान 
देश के किस हिस्से में 
कहाँ रहते हैं मारवाड़ी 
नही पता उसे
लेकिन उसे पता है
अलग अलग प्रदेश की मेहंदी कला
पूरे देश को हथेलियों में समेट देता है
११ साल का मेहंदीवाला 

व्यस्त रहता है
उत्सवो, तीज त्योहारों पर
सावन के सोमवार को 
राखी से पहले 
धनतेरस के दिन 
करवा चौथ पर रहती है
उसकी भारी पूछ 
पूछता है अपनी माँ से 
घर लौटने पर
क्यों नहीं होता हर दिन
त्यौहार कोई ना कोई 
उस समय अपनी उम्र से 
बहुत बड़ा लगता है
११ साल का मेहंदीवाला

31 टिप्‍पणियां:

  1. आँखों के सामने सब कुछ घटता हुआ, सुन्दर चित्रण।

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  2. जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देने की कला कोई आपसे सीखे। आपकी इस कविता में न तो जनवादी तेवर है और न प्रबल कलावादी आग्रह। किन्तु इस कविता के द्वारा आप निजी चित्तवृत्ति से लेकर समूची सामाजिकता में आवाजाही करते दीखते हैं।

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  3. जीवंत ...सब कुछ देख जाना सा.... बहुत सुंदर

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  4. परिस्थितियां उम्र से बड़ा बना देती हैं...
    यथार्थ चित्रण!

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  5. sundar varnan.sab kuchh laga ki jaise hamare samne hi ho raha hai.

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  6. बहुत जिवंत और सार्थक यथार्थ....

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  7. बाल श्रमिक कानून की जद में तो नहीं आ जाएगा, ११ साल का मेहंदीवाला.

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  8. पूछता है अपनी माँ से
    घर लौटने पर
    क्यों नहीं होता हर दिन
    त्यौहार कोई ना कोई

    आपकी कविताओं की संवेदना मर्मस्पर्शी होती हैं।

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  9. जिस उम्र में
    सही सही अक्षर बनाना
    नहीं सीख पाया है
    मेरा बेटा
    उस उम्र में
    सभी उम्रों की हथेलियों में
    उकेर देता है मनचाहे चित्र
    खूबसूरती से
    ११ साल का मेहंदीवाला .... main padhne ke darmyaan aksar kahi aapko thithka hua paati hun aur ek gahan chintan se udwelit hote hue

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  10. देखा है.. इसे भी देखा है, आपकी कविताओं के हर पात्र की तरह.. जीवन की तमाम जटिलताओं, समस्याओं और अंधेरी गलियों को ही उसने खूबसूरत आकार दिया है.. चिराग की तरह जलता है वह ११ वर्ष का बच्चा और उजाला बिखेरता है सुहाग का, सुंदरता का, त्यौहार का सबके जीवन में..
    बाल श्रमिक क़ानून तो बस देश के बाकी कानूनों की तरह माखौल है.. बस कागज़ पे लिखा हुआ.. और देखा है मैंने श्रम प्रवर्तन पदाधिकारियों को नकली रिपोर्ट बनाते!!
    छू गया यह कैरेक्टर भी अरुण जी!!

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  11. यथार्थ को जीवन्त करती सुन्दर रचना।

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  12. ११ साल का मेहंदीवाला ... ज़रूरतें बच्चे को कितनी जल्दी बड़ा बना देती हैं ... अच्छी रचना

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  13. बहुत जीवन्त चित्रण ....... जरूरतों के बोझ तले बचपन बड़ी जल्दी व्यतीत हो जाता है ....

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  14. वाह! पढते हुए चित्र बनते चले गये आँखों के समक्ष....
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
    सादर....

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  15. दिल की गहराईयों को छूने वाली एक खूबसूरत, संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  16. बहुत मर्मस्पर्शी रचना है!
    --
    पूरे 36 घंटे बाद नेट पर आया हूँ!
    धीरे-धीरे सबके यहाँ पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ!

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  17. बहुत जीवन्त चित्रण
    दिल को छूने वाली एक खूबसूरत....रचना

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  18. ज़बरदस्त ......झकझोर देने वाली पोस्ट है ........बचपन मर रहा है धीरे-धीरे इस देश में.......

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  19. विषय की ताजगी कविता में प्राण फूंक देती है ,कवि को एक अलग पहचान देती है बधाई

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  20. पूछता है अपनी माँ से
    घर लौटने पर
    क्यों नहीं होता हर दिन
    त्यौहार कोई ना कोई
    उस समय अपनी उम्र से
    बहुत बड़ा लगता है

    वक़्त ने उसे जल्दी ही दुनिया का दस्तूर सीखा दिया....इस उम्र के कितने ही कामगार बालक नज़रों के सामने घूम गए...बहुत ही जीवंत चित्रण.

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  21. kitni sehzta se uker diya yatharth. yahi sansas ka dastoor hai aur yahi us mehndiwale ki karmbhoomi.

    bahut bahut sunder abhivyakti dil ko chhoo gayi.

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  22. हर बार की तरह इस बार भी आपने बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर क़लम उठाई है| पिछले वर्ष इस बचपन को समर्पित मेरी कुछ पंक्तियाँ :-

    ठिठुरती ठंड में जब कोई बच्चा कुलबुलाता है|
    हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है||

    हमारे मुल्क का बचपन पड़ा है हाशिए पर क्यूँ|
    उसे विद्यालयों से, कौन है, जो खींच लाता है||

    कि जिन हाथों में होने थे खिलोने या क़लम-पुस्तक|
    उन्हें ढाबे तलक ये कौन बोलो छोड़ जाता है||

    सड़क पे दौड़ता बचपन, ठिकाना ढूँढ्ता बचपन|
    सिफ़र को ताकता बचपन फकत आँसू बहाता है||

    यही बचपन बड़ा हो कर जभी रीएक्ट करता है|
    जमाना तब इसे संस्कार के जुमले पढ़ाता है||

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  23. अपने आस-पास होने वाली यह घटना को बहुत खूब उकेरा है इस कविता में..
    संघर्ष मनुष्य को उम्र से पहले बड़ा कर देती है..

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  24. वाह! अब मेहंदी वाले के जज्बातों
    को भी आपने बहुत खूबसूरती से टटोल कर उकेरा है.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

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  25. उस अनाम मेह्न्दिवाले को रचना में समेट कर उसको जो मान आपने दिया है वो सच में उसका हकदार है ...

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