समय नहीं
यह है शोक का समय।
नागरिक तो पहले मरे हैं
उनसे पहले मरी है
नैतिकता और मानवता
अस्पतालों में
दवाई की दुकानों पर
गोदामों और
धनकुबेरों के तहखानों में।
कौन कहता है कि
सांसे नहीं मिलने से मरे हैं लोग
वास्तव में मरी है
संवेदना सत्ता की, अधिकारियों की
या कहिए सम्पूर्ण प्रणाली की
नीतियों की और नियंताओं की।
यह व्यक्तिगत नहीं
सामूहिक शोक का समय है
अशेष संवेदनाओं के आत्महत्या का समय है यह।
सच में , ऐसे समय भी लोग स्वार्थ नहीं भूलते । आज साँसों की भी कालाबाज़ारी कर रहे हैं ।मन क्षुब्ध है । झकझोरने वाली रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया संगीता जी। बहुत भयावह दौर से गुजर रहा है देश।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी कोई रचना सोमवार 26 अप्रैल 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
ehasaas se bhari rachana - sadar naman !
जवाब देंहटाएंसच्ची अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंकटु यथार्थ उजागर करती अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी
हटाएंकडवा मगर सत्य । ऐसे समय में भी लोग कैसे इतने स्वार्थी हो सकते है ?
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शुभा जी
हटाएंहक़ीक़त बयाँ करती रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हिमकर जी।
हटाएंआदरणीय सर, आपकी यह रचना बहुत ही करुण है और एक कटु सत्य को उजागर करती है । स्वार्थी और भ्रष्टाचारी नेता इस संकट काल में भी अपना पेट भर रहे हैं और आम -आदमी आज भी वही पीड़ा भोग रहा है । हार्दिक आभार इस समसामयिक रचना के लिए ।
जवाब देंहटाएंहृदयाघाती अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंमार्मिक सत्य को उकेरती संवेदना शील रचना! निशब्द हूँ अरुण जी🙏
जवाब देंहटाएंजब व्यवस्था ही कोरोना ग्रसित हो तो नागरिकों की मौत का ताण्डव ही देखने को मिलेगा! आपकी अभिव्ययक्ति उचित और सामयिक है, जो एक लाचारी का बोध कराती है!
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