अपने
१४ मंजिले फ्लैट की
बालकनी में खड़ा
वह आदमी
जो उड़ा रहा है
सिगरेट के धुंए का छल्ला
तेजी से चहलकदमी करते हुए
किसी फिल्म के किरदार की तरह
लगता है आकर्षक
सड़क से
भीतर उसके भी
चल रहा होता है ऊपापोह
क्योंकि ई एम आई का चक्र
ठेले और रिक्शे के पहिये के चक्र से
नहीं होता भिन्न
स्टाक के उतार-चढाव का बोझ
किसी कुली के माथे पर ६० किलो के बोझ से
कतई भी नहीं होता कम
जब सो रहा होता है
फुटपाथ पर कोई चैन से
आकर्षक लगने वाला वह आदमी
गिन रहा होता है तारों में
बढती हुई बच्चों की फीस
और आया हुआ बिजली का बिल
सुबह वह आदमी
एम्टास-ए टी की गोली लेगा
नियंत्रित करने को
अपना और देश का रक्तचाप
ब्रेक-फास्ट में
और खिल उठेगा
नए बढ़ते भारत का चेहरा
दिन भर के लिए
गरीबी रेखा के
ऊपर भी है अदृश्य गरीबी
जिससे चहल पहल है
बाज़ारों में
जहाँ गरीबी रेखा के
नीचे वाली गरीबी
पैदा करती है आज भी संवेदना
ऊपर की अदृश्य गरीबी
महिमामंडित हो
आकर्षित करती है
ऍफ़ ड़ी आई विश्वभर से .
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
शनिवार, 27 नवंबर 2010
फ़्लाइओवर के नीचे
तमाम शहर में
अब फ़्लाइओवर हैं
हमारे शहर में भी है
एक फ़्लाइओवेर
फ़्लाइओवर के नीचे
होती है एक अलग दुनिया
शहर के बाहरी आवरण से अलग
होती है उसकी प्रकृति
उसका चरित्र
सभी प्रकार के गुप्त रोगों के
शर्तिया इलाज करने वाले कई डाक्टर
एक का दो, दो का चार वाले खेल
सस्ते देह का सस्ता बाज़ार
होता है गुलजार यहाँ
चौबीस घंटे
कभी दिन के उजाले में
तो कभी सांझ के धुधंल्के में
और कभी पीले हलोज़न की पीली रौशनी में
बनती हैं योजनायें
शहर में शांति की
शहर में अशांति की
जो होते हैं अखबारों की सुर्ख़ियों में
अक्सर रात को
'डील' करते पाए जाते हैं यहाँ,
तनाव में जब होता है शहर
उत्सव होता है
इस फ़्लाइओवर के नीचे
शहर का असली चरित्र /असली परिचय
होता है फ़्लाइओवर
और उसके नीचे की दुनिया
गुरुवार, 25 नवंबर 2010
पुराने स्वेटर
आज
माँ उधेड़ रही है
पुराने स्वेटर
भीगी आँखों से
और एक चलचित्र चल रहा है
उसके भीतर
माँ उधेड़ रही है
पुराने स्वेटर
भीगी आँखों से
और एक चलचित्र चल रहा है
उसके भीतर
कैसे माँ बुनती थी
स्वेटर
जाग कर
स्वेटर
जाग कर
रात रात भर
सोच सोच कर
खुश हो रही आज
याद आ रहा है उसे
कैसे स्वेटर में
भर देना चाहती थी
कैसे स्वेटर में
भर देना चाहती थी
वो सब कुछ
जो नहीं दे पाती थी वो
जैसे चाँद - सितारे
हाथी घोड़े
गुड्डे-गुडिया
लेकिन नहीं बनाया उसने
स्वेटर में कभी
बन्दूक का डिजाईन
जो नहीं दे पाती थी वो
जैसे चाँद - सितारे
हाथी घोड़े
गुड्डे-गुडिया
लेकिन नहीं बनाया उसने
स्वेटर में कभी
बन्दूक का डिजाईन
उसे प्रिय था
नीला रंग
कहती थी
आसमान का रंग है यह
और प्रार्थना में
हिल जाते थे होठ
कि आसमान जितनी ऊँची हो
हमारी उपलब्धि
समंदर तो कभी देखा नहीं
फिर भी करती थी
नीले समंदर के सामान
विशाल ह्रदय की कामना
मेरे लिए
मैल पचने के लिए भी
अच्छा रंग हुआ करता है नीला
नीला रंग
कहती थी
आसमान का रंग है यह
और प्रार्थना में
हिल जाते थे होठ
कि आसमान जितनी ऊँची हो
हमारी उपलब्धि
समंदर तो कभी देखा नहीं
फिर भी करती थी
नीले समंदर के सामान
विशाल ह्रदय की कामना
मेरे लिए
मैल पचने के लिए भी
अच्छा रंग हुआ करता है नीला
पता था माँ को भी
आज माँ
उन्ही
पुराने स्वेटरों को
उधेड़ कर
बना रही है नया स्वेटर
अपने लिए
बना रही है
एक कोलाज अपने भीतर
अलग अलग समय के पुराने स्वेटरों से
जिस स्वेटर को पहन कर
एक कोलाज अपने भीतर
अलग अलग समय के पुराने स्वेटरों से
जिस स्वेटर को पहन कर
दी थी मैट्रिक की परीक्षा
बहुत प्रिय था माँ को
सहेज कर रखी थी उसे आज तक
बहुत प्रिय था माँ को
सहेज कर रखी थी उसे आज तक
ऐसे ही कई
मील के पत्थर स्वेटर थे
माँ की पेटी में
जिन्हें उधेड़ रही है आज
माँ
जी रही है
पुराने ऊन के माध्यम से
सुनहरे दिनों को
उनके फीके पड़ते रंगों में
ढूंढ रही है हमारे बचपन के
चटक रंग को
रिश्तो की गर्माहट को
सहेज रही है
पुराने ऊन को फिर से
बुन कर
जी रही है
पुराने ऊन के माध्यम से
सुनहरे दिनों को
उनके फीके पड़ते रंगों में
ढूंढ रही है हमारे बचपन के
चटक रंग को
रिश्तो की गर्माहट को
सहेज रही है
पुराने ऊन को फिर से
बुन कर
पुराने ऊन के स्वेटर में
जी रही है माँ
नया जीवन
नए सिरे से
मंगलवार, 23 नवंबर 2010
६० बरस दूर
शहर से
कोई पचास किलोमीटर होगा
मेरा गाँव
जहाँ तक पहुँचने में
यो तो लगेंगे
कोई तीन ही घंटे
लेकिन यकीन मानिये
यह दूरी है कम से कम
६० बरस .
६० बरस
क्योंकि
शहर से
जब बढ़ेंगे
मेरे गाँव की ओर
दिखेंगे आपको
सूखे खेत
सूखे चेहरे
बिन पानी की नहर
बिन पानी के चेहरे
६० बरस पुराने/खियाए चेहरे
६० बरस
क्योंकि
अभी नहीं पहुंची है
रौशनी यहाँ ,
बिजली के खम्भे
जो गड़े थे
शास्त्री जी के ज़माने में
खाकर जंग अब नहीं रहे
उनके अवशेष भी
नहीं है शेष.
६० बरस
इसलिए भी
क्योंकि
हर साल मरती हैं
कुछ बेटियाँ
कुछ भाभियाँ
प्रसव के दौरान
रेडियो पर
सरकार की तमाम
घोषणाओं के बावजूद .
६० बरस
इसलिए भी कि
योजनाओं को यहाँ पहुचने में
लग गए हैं
वाकई में
६० बरस.
अब भी पहुचेंगे
इसकी गारंटी के लिए
वैसे तो बनी हैं गारंटी नाम से कई स्कीमे
लेकिन स्कीमों का क्या !
रेल में सवार हो
जाते हैं जो
लौट कर नहीं आते
तय नहीं कर पाते
वापसी का सफ़र
क्योंकि
मेरा गाँव
अब भी
इंडिया से पीढ़ियों दूर है
प्रायः ६० बरस दूर.
सोमवार, 22 नवंबर 2010
हीरक रोड
आजादी के
साठ साल बाद
एक सड़क आयी
मेरे गाँव भी
जिस कम्पनी ने
बनाया इसे
उसी के नाम पर
हो गया इसका नामकरण
'हीरक रोड'
हीरक रोड
से चल कर
आया मेरे गाँव में
मोबाइल फ़ोन
पाउच वाले शैम्पू, तेल,
कोल्ड ड्रिंक और
इसी सड़क के किनारे-किनारे
उग आयी दारु के
कई भट्टियाँ
नहीं जो आया
इस सड़क से
वो था
हाई स्कूल
कालेज
प्राथमिक अस्पताल
बिजली के खम्भे
राशन, कैरोसिन तेल
खाद-पानी-बीज
हीरक रोड
आयी मेरे गाँव में
नहीं आयी
जिसे आना चाहिए था
वास्तव में
इसी सड़क से
पलायन हुए
संस्कार भी
शनिवार, 20 नवंबर 2010
चौखट
सूरज जब तक
चूमता है चौखट
माँ बुहार लेती है
आँगन ओसारा
ले लेती हैं बलैयां
दे देती है दुआएं
चूल्हा धुआंने लगता है
और खिलखिलाने लगती है ख़ुशी
माँ के चेहरे की तमाम झुर्रियों के बीच
जब सूरज चढ़ता है
दोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथ
होता है जब
सूरज जाने को
चौखट पर
रख देती है माँ
एक ढिबरी
कहती है
सूरज की मोहताज नहीं रौशनी
माँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की रौशनी में
भाई राजेश उत्साही जी के सलाह पर इस पद को कविता से अलग कर रहा हूँ...
"जब चौखट से लग कर खड़ी हो
प्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे."
चूमता है चौखट
माँ बुहार लेती है
आँगन ओसारा
ले लेती हैं बलैयां
दे देती है दुआएं
चूल्हा धुआंने लगता है
और खिलखिलाने लगती है ख़ुशी
माँ के चेहरे की तमाम झुर्रियों के बीच
जब सूरज चढ़ता है
दोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथ
होता है जब
सूरज जाने को
चौखट पर
रख देती है माँ
एक ढिबरी
कहती है
सूरज की मोहताज नहीं रौशनी
माँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की रौशनी में
भाई राजेश उत्साही जी के सलाह पर इस पद को कविता से अलग कर रहा हूँ...
"जब चौखट से लग कर खड़ी हो
प्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे."
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
माँ रखती है देवउठनी एकादशी का व्रत
(यूं तो पूरे देश में देवोत्थान एकादशी का पर्व मनाया जाता है लेकिन बिहार के मिथिला अंचल में इसे खास तरह से मनाया जाता है. आँगन में अरिह्पन (अल्पना- एक तरह की रंगोली) बनाया जाता है जिसमे औरतें घर की जरूरतों से लेकर जो कुछ भी जीवन में चाहिए, उनके चित्र उकेर देती हैं. एक तरह से ईश्वर से मौन अर्चना होती है यह. इसी परंपरा को समर्पित यह कविता. )
माँ
रखती है व्रत
माँ
मानती है कि
ईश्वर
विश्राम के लिए चले जाते हैं
हरिशयन एकादशी को
और जागते हैं
देवउठनी एकादशी की रात्रि
इस रात
पूरी होती है सभी जरूरतें
सच होते हैं सपने सबके
माँ को लगता रहा है
वर्षो से
और लगता रहेगा
उसके रहने तक
नहीं बदलना चाहती है
माँ अपनी आस्था
समय के साथ
देवउठनी एकादशी
की रात
माँ बनाती है अल्पनायें ,
जिन्हें देख कर लगता है
उसके हैं
कुछ सपने
मेरे लिए
हमारे लिए
हम सबके लिए
वरना माँ को नहीं देखा
मांगते कभी कुछ
किसी से भी
बस इस एक रात
माँ खोलती है
अपने सपनों की पोटली
अपने भीतर बसी इच्छाएं
बनाती है
हल बैल, हरवाहा
बैलों के बिक जाने के बाद भी
ढेर सारी मोटी मोटी
किताबें बनाती है
शायद चाहती है दुनिया पढ़ जाए
हवाई जहाज /संदूक /गुल्लक
सब बनाती है माँ
अल्पना में ही
भर देती है नदी को
पानी से
और इस बार रेडियो पर
जो सुन लिया है उसने 'ग्लोबल वार्मिंग' के बारे में
बनाई है
एक सुन्दर पृथ्वी
गोल गोल और
रोप दिए हैं उस पर
अनगिनत पेड़.
अपनी समस्त
चिंताओं और सरोकारों के साथ
माँ रखती है
व्रत
एकादशी का /
देवउठनी एकादशी का
मंगलवार, 16 नवंबर 2010
अपनी चिट्ठियों की चिंता में
हार कर नहीं
स्वेच्छा से चेहरे पर हंसी लिए
मरना चाहता हूँ मैं
आत्महत्या नहीं होगी यह
पता है मुझे
मेरे जाने के बाद
सब कुछ ठीक हो जायेगा
बेटियाँ चली जाएँगी
ससुराल
बेटे व्यस्त हो जायेंगे
अपने में
पत्नी भी
श्रंगार पेटी में रखी
शादी के समय की तस्वीर को
फिर से बनवा कर
दीवार पर टांग देगी
फिर रम जाएगी
भजन कीर्तन में
मर नहीं पा रहा मैं
क्योंकि
नहीं पता मुझे
क्या होगा
मेरे प्रेम पत्रों का
जिन्हें दशको से
सहेजा है मैंने
पत्नी, पुत्र और पुत्री की तरह.
जब भी अकेला हुआ हूँ
इन्ही पत्रों ने दिया है
मेरे अकेलेपन का साथ
जब भी चौराहे पर
पाया मैंने खुद को
इन्ही पत्रों ने किया मेरा
मार्गदर्शन
कई बार
नदी के ऊपर के पुल से
लौटा हूँ बस इनके लिए ही
हजारों जुगनू
चमकने लगते हैं
यदि रात में खोल दो इन्हें
दिन में तितलियाँ उडती हैं इनसे
महकती हैं ये चिट्ठियां
ताजे गुलाब की तरह
कई बार तो महसूस किया है
पत्नी के गजरे की खुशबू भी
अपने हर जन्मदिन पर
उपहार की तरह लगती हैं ये
सोचता हूँ
मरने से पहले
किसी नदी में
प्रवाहित कर दू
अस्थियों की भांति
इन चिट्ठियों को
लेकिन डरता हूँ
कैसे रह पाउँगा
अपने बचे-खुचे दिनों में
इनके बिना
जब तक हैं
ये चिट्ठियां
मर नहीं सकता मैं
कह रहा है
वर्षों का साथ
सोमवार, 15 नवंबर 2010
तुम्हारी बिंदी
१
होना चाहा था
मैंने तुम्हारी बिंदी
तुमने कहा
बन जाओ
उतार दिया तुमने
अगली सुबह
२
खुश थी तुम
जब मैं ने कहा था
बना लो
अपनी बिंदी मुझे
तुम्हारी हाँ से
खुश हुआ था
मैं भी कितना
आज जब
मिल नहीं रहा था
मेरा रंग
तुम्हारी साडी के रंग से
तुमने देखा भी नहीं
मेरी ओर
३
एक बार
तुमने कहा था
मुझे
अपने माथे की बिंदी
मैंने वादा किया
चमकने को चिरंतन
मैं चमकता रहा
सूरज की तरह
दिन भर
उतारती रही तुम
हर रात .
रविवार, 14 नवंबर 2010
डरता हूँ मेरे बच्चे
अभिनव और आयुष जिन्हें यह कविता समर्पित है. |
कार्टून चैनलों के
काल्पनिक पात्रों
और चरित्रों में
जब तुम्हारी
डूबी आँखों को देखता हूँ
भविष्य का रंग
मुझे काला दिखने लगता है
डांट नहीं पाता मैं
अपने पिता की तरह
क्योंकि स्वयं को
कमजोर पाता हूँ मैं .
तुम्हारे यूनिट टेस्ट के
सामान्य ज्ञान विषय के
प्रश्न पत्र में जब देखता हूँ
कुछ कारों के मॉडल,
टी वी चैनलों के लोगो
या फिर कार्टून के चित्र
जिन्हें पहचानना होता है तुम्हे
नाम लिखना होता है उनका
मैं खुद हल नहीं कर पाता
यह प्रश्न पत्र
असफल पाता हूँ स्वयं को
हताश हो जाता हूँ मैं .
जब चाहता हूँ
लिखो तुम एक निबंध
गाय पर
दिवाली पर
होली पर
नेहरु जी पर
गाँधी जयंती पर
बाढ़ की विभीषिका पर
या फिर किसी यात्रा वृत्तांत पर
तुम्हे तैयारी करनी होती है
डांस प्रतियोगिता की
या फिर स्केटिंग की
बदलते परिवेश में
तुम्हारे बदलते तेवर को देख
खुश होते हुए भी
खुश नहीं हो पाता मैं
तुम्हारी ख़राब होती
लिखावट को देख
चाहता हूँ थोड़ी और मेहनत करो तुम
अपने हैण्ड राइटिंग पर
तुम्हारी दलील कि आगे सब कुछ
लिखा जाना है कंप्यूटर पर
हार जाता हूं मैं लेकिन
ख़ुशी नहीं होती तुम्हारी जीत पर भी
जब तुम
सो रहे होते हो
तुम्हारे चेहरे पर
मंद मुस्कान तिरती रहती है
देवदूत से लगते हो तुम
जिन्हें देख
रोता हूँ
हँसता हूँ
एक अदृश्य भय से
डरता हूँ मेरे बच्चे
और तुम्हे गले लगा
सो जाता हूँ मैं भी
ना जाने कब तुम कहने लगो
'पापा अलग कमरा चाहिए मुझे भी !'
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
उम्र
बहुतों को
नहीं पता होती है
उनकी उम्र
नहीं पता मुझे भी
असंख्य बचपन
जब असमय ही
दब जाते हैं
तरह तरह के बोझ तले
कौन बता सकता है
उन बचपनो की उम्र
कुछ बचपन तो
नहीं हो पाते युवा
अनुभव बना देता है
उन्हें व्यस्क
अब इस असमय वय की
क्या है उम्र , कौन कहे ?
अब
लड़कियों को ही देखिये
वे बचपन से ही होती हैं
गृहस्थ
अब ऐसी लड़कियों की
कुछ भी हो उम्र
क्या फर्क पड़ता है उन्हें
असमय ही
सफ़ेद हो गए
मेरे केश
पूछते रहे लोग
मेरी उम्र
हर मोड़ पर
हर नुक्कड़ पर
हर मौके पर
अब क्या उत्तर दूं मैं
स्कूल जाने की उम्र में
कभी धो रहा था
चाय की केतली
कभी बना रहा था
साईकिल का पंक्चर
कभी बेच रहा था
बस अड्डे पर नारियल
कभी कभी
जेब भी कतरे
सपने देखने की उम्र में
बजा रहा था
शादी ब्याह में बैंड
रंग रोगन कर रहा था
हवेलियों और कोठियों की दीवारें
ठेल रहा था ठेले- रिक्शा
धो रहा था बस-ट्रक
अब
कहते हैं लोग
निकल गई है उम्र
समझ नहीं पा रहा
ये उम्र
जब आई ही नहीं तो
निकली कैसे .
नहीं पता होती है
उनकी उम्र
नहीं पता मुझे भी
असंख्य बचपन
जब असमय ही
दब जाते हैं
तरह तरह के बोझ तले
कौन बता सकता है
उन बचपनो की उम्र
कुछ बचपन तो
नहीं हो पाते युवा
अनुभव बना देता है
उन्हें व्यस्क
अब इस असमय वय की
क्या है उम्र , कौन कहे ?
अब
लड़कियों को ही देखिये
वे बचपन से ही होती हैं
गृहस्थ
अब ऐसी लड़कियों की
कुछ भी हो उम्र
क्या फर्क पड़ता है उन्हें
असमय ही
सफ़ेद हो गए
मेरे केश
पूछते रहे लोग
मेरी उम्र
हर मोड़ पर
हर नुक्कड़ पर
हर मौके पर
अब क्या उत्तर दूं मैं
स्कूल जाने की उम्र में
कभी धो रहा था
चाय की केतली
कभी बना रहा था
साईकिल का पंक्चर
कभी बेच रहा था
बस अड्डे पर नारियल
कभी कभी
जेब भी कतरे
सपने देखने की उम्र में
बजा रहा था
शादी ब्याह में बैंड
रंग रोगन कर रहा था
हवेलियों और कोठियों की दीवारें
ठेल रहा था ठेले- रिक्शा
धो रहा था बस-ट्रक
अब
कहते हैं लोग
निकल गई है उम्र
समझ नहीं पा रहा
ये उम्र
जब आई ही नहीं तो
निकली कैसे .
सोमवार, 8 नवंबर 2010
दाढ़ी बनाते हुए घायल होना
नित्य
दाढ़ी बनाना
किसी के लिए
बहुत आम है तो
किसी के लिए
बहुत ही खास
हमारे गाँव में
कई तो ऐसे थे
जो इन्तजार करते थे
किसी के मरने या बरसी का
कटवाने को दाढ़ी- बाल
लेकिन वो अलग बात है
जिसकी चर्चा भी शहरों में नहीं होनी चाहिए
क्योंकि वह एक अलग भारत हैं
अलग भारत का अलग अनुभव है
यहाँ शहर में भी
लोग बचाते हैं
ब्लेड का पैसा
और दिन नागा करते हैं
दाढ़ी बनाने में
शनि मंगल और गुरु के नाम पर
लेकिन वे लोग
गाँव के उन लोगों से बहुत भिन्न नहीं हैं
जो करते हैं किसी के मरने या बरसी का इन्तजार
वैसे व्यक्तित्व को
परिभाषित करने लगी हैं दाढ़ी
लेकिन
जो बात समान है गाँव-देहात से शहर तक में
वो यह है कि
शीशे के सामने
दाढ़ी बनाना
एक दिनचर्या होने के साथ साथ होती है
एक आध्यात्मिक अनुभूति
अनेक विचार उपजते हैं
इस दौरान
और कई बार
लग जाता है ब्लेड
इसी उधेड़ बुन में
स्वयं से भी
और नाई से भी
बेटे की मार्कशीट
टीवी सीरियल के पात्र
सिनेमा के हीरो
पत्नी की फरमाईशें
राशन का हिसाब-किताब
स्टोक एक्सचेंज का उतार -चढ़ाव
क्रिकेट के स्कोर
और बीच बीच में
माँ का भावुक कर देने वाला चेहरा
सब एक एक कर
उभरते हैं शीशे पर
जब कभी
खो जाते हैं हम
ब्लेड कर जाता है अपना काम
छोड़ जाता है
अपनी निशानी
हफ्ते भर के लिए
वैसे
ब्लेड का लग जाना
बात आम है
लेकिन इतना आम नहीं भी है
क्योंकि
पिछली बार जब हुए थे
शहर में दंगे
हफ्ते तक बार बार
घायल हो जाता था मैं
दाढ़ी बनाते हुए
सैकड़ो
अनुतारित्त प्रश्न
आज भी
शीशे में उभरते हैं
घायल करते हैं मुझे
दाढ़ी बनाते हुए
आज
एक अजीब सा प्रश्न
घायल कर गया मुझे
कि दाढ़ी बनाने वाला
अदना सा यह ब्लेड
यदि ठीक से
डिस्पोज़ ना हो तो
कितनो को आहात कर देगा
साथ ही
कूड़ा उठाने वाले का रक्त रंजित हाथ
कूड़े घर में आवारा घूमती गाय का खून से सना थूथना
और ना जाने कौन-कौन से चित्र
उभर आये शीशे पर
सुबह-सुबह
दाढ़ी बनाते हुए
दाढ़ी बनाते हुए
घायल होने से लगता है
बची है संवेदना
हमारे भीतर
बुधवार, 3 नवंबर 2010
छद्म दीपोत्सव
राम
जब हुआ था तुम्हारा
राज्याभिषेक
दीप जले थे
अयोध्या में
रामराज्य के स्वागत में
रामराज्य ने
सरयू में
समाधि ले ली
तुम्हारे साथ ही
फिर यह कैसी
दिवाली
क्यों यह
दीपोत्सव
हे राम
तिमिर और भी
गहराता जा रहा है
मन के भीतर हमारे
ज्यो ज्यो
प्रकाशमान हो रहे हैं
उत्सव
लक्ष्य विहीन
वैभव विहीन
अयोध्या यह देश
कहो ना
कब तक मनायेगा
छद्म दीपोत्सव
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