गुरुवार, 18 नवंबर 2010

माँ रखती है देवउठनी एकादशी का व्रत

(यूं तो पूरे देश में देवोत्थान एकादशी का पर्व मनाया जाता है लेकिन बिहार के मिथिला अंचल  में इसे खास तरह से मनाया जाता है. आँगन में अरिह्पन (अल्पना- एक तरह की रंगोली) बनाया जाता है जिसमे औरतें घर की जरूरतों से लेकर जो कुछ भी जीवन में चाहिए, उनके चित्र उकेर देती हैं. एक तरह से ईश्वर से मौन अर्चना होती है यह. इसी परंपरा को समर्पित यह कविता. )  


माँ 
रखती है व्रत  

माँ
मानती है कि
ईश्वर 
विश्राम के लिए चले जाते हैं
हरिशयन एकादशी को
और जागते हैं 
देवउठनी एकादशी की रात्रि

इस रात 
पूरी होती है सभी जरूरतें
सच होते हैं सपने सबके
माँ को लगता रहा है
वर्षो से 

और लगता रहेगा 
उसके रहने तक 
नहीं बदलना चाहती है
माँ अपनी आस्था 
समय के साथ 


देवउठनी एकादशी 
की रात
माँ बनाती है अल्पनायें 
जिन्‍हें देख कर लगता है
उसके हैं 
कुछ सपने
मेरे लिए
हमारे लिए 
हम सबके लिए 
वरना माँ को नहीं देखा 
मांगते कभी कुछ 
किसी से भी 

बस इस एक रात 
माँ खोलती है
अपने सपनों की पोटली 
अपने भीतर बसी इच्छाएं 

बनाती है 
हल बैलहरवाहा 
बैलों के बिक जाने के बाद भी 
ढेर सारी मोटी मोटी 
किताबें बनाती है 
शायद चाहती है दुनिया पढ़ जाए 
हवाई जहाज /संदूक /गुल्लक
सब बनाती है माँ 
अल्पना में ही
भर देती है नदी को
पानी से 

और इस बार रेडियो पर 
जो सुन लिया है उसने 'ग्लोबल वार्मिंगके बारे में
बनाई है 
एक सुन्दर पृथ्वी 
गोल गोल और 
रोप दिए हैं उस पर 
अनगिनत पेड़.  

अपनी समस्त 
चिंताओं और सरोकारों के साथ 
माँ रखती है 
व्रत 
एकादशी का / 
देवउठनी  एकादशी का 

30 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद शानदार कविता………………भावों का सुन्दर संग्रह्।

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  2. मैं न जाने कितनी बार पढ़ गई ये कविता ..हर बार अलग अलग भाव समझ में आये बहुत कुछ कह जाती है यह कविता.
    बहुत सुन्दर.

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  3. बार बार पढ़ने योग्य रचना..दिल को छू गयी...बधाई स्वीकारें.

    नीरज

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  4. देवउठनी ग्‍यारस,मां,व्रत,सपने, इच्‍छाएं,ग्‍लोबल वार्मिंग इन शब्‍दों से गुंथी कविता अरूण लिख रहे हैं। पुरातन से लेकर आधुनिक जीवन का सुंदर मेल। यह कविता अपने चरम के नजदीक है। अगर आप अपनी कविता में लिए जा रहे विषय को इसी तरह केन्द्र में रखेंगे तो निश्चित ही सार्थक कविता की रचना कर सकेंगे। बधाई।

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  5. har ma ke dil me apane parivar ki khushhali ke liye bhagvan se mangne ko itna kuchh hota hai ki shabd chuk jaye mannt khatm nahi hoti ...bahut shandar post...

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  6. बहुत सुन्दर दिल को छू गयी...बधाई|

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  7. ओह ...लाजवाब !!!
    मुग्ध कर लिया आपकी इस भावुक प्रेरणादायी रचना ने..
    बहुत बहुत सुन्दर....आनंद आ गया पढ़कर !!!

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  8. कविता तो बेहद दिल के करीब हैं. मैं भी बनाती हूँ अल्पनायें पर एक बात से नाराज़ हूँ. माँ ने ग्लोबल वार्मिंग को ध्यान में रख कर पेड़ तो लगाये पर मेरे जल संचयन को अल्पना में जगह नहीं दी पर माँ तो माँ है उससे कौन नाराज़ हो सकता है

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  9. .

    माँ की आस्था और सादगी मन को छू गयी। नहीं बदलना चाहती हैं वे अपनी आस्था को। अरुण जी , आस्था और विश्वास ही तो फलता है। अब माँ ने ठान ही लिया तो निश्चित ही ग्लोबल वार्मिंग से हमारी रक्षा हो सकेगी। क्यूँकी वो माँ हैं और माँ की आस्था में ही मेरी आस्था है।

    .

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  10. माँ का व्रत पर्यावरण के लिये, वाह, सुन्दर भाव।

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  11. देव उठनी एकादशी तो धार्मिक संदर्भ हो गया, मुझे छू गया इस कविता की मॉं का रूप। मॉं जिसकी कल्‍पना में जो होता है, शुभ ही शुभ होता है।
    मेरे ऐ परिचित जो अब 90 वर्ष से अधिक आयु के ही होंगे, अपनी मॉं का स्‍मरण करते हुए बताते हैं कि किस प्रकार वो सुब्‍ह की प्रार्थना में 'चिड़़ी-चिरौंटे' की खैर से प्रारंभ होकर समस्‍त जैव जगत की खैर मॉंगते हुए पास पड़़ोस के बच्‍चों की खैर मॉंगकर अंत में अपने बच्‍चों की खैर ईश्‍वर से मॉंगती थीं। अद्वितीय उदाहरण है मॉं की सार्वभैमिक सोच का। आज आपकी कविता पढ़कर उसी सोच का स्‍मरण कर रहा हूँ।

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  12. जो सुन लिया है उसने ‘ग्लोबल वार्मिंग‘ के बारे में
    बनाई है
    एक सुन्दर पृथ्वी
    गोल गोल और
    रोप दिए हैं उस पर
    अनगिनत पेड़,

    राय जी, मां के प्रेरक चितन को आपने कोमलता के साथ कविता में रूपायित किया है।

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  13. बस इस एक रात
    माँ खोलती है
    अपने सपनों की पोटली
    अपने भीतर बसी इच्छाएं

    बहुत खूबसूरत भाव ....आस्था की बात है ...पर्यावरण से जोड़ कर एक सार्थक सन्देश दिया है ..

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  14. माता, धरती माता की तरह सब कुछ सहन और वहन करती अपनी निश्चित चाल से चलती रहती है, प्रकृति माता की तरह अपनी संतान का लालन पालन करती है… या फिर मिथिलांचल या किसी भी अन्चल की माता जो चित्रों के माध्यम से नींद से जगे देव से सम्पूर्ण समाज के लिए याचना करती है… अरुण जी आपकी लेखनी भी माता सरस्वती का वरदान है... मेरा नमन है उस माता को!!

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  15. धार्मिक संदर्भ के साथ आधुनिक युग की समस्याओं का सुंदर तालमेल। माँ की यह उदात्तता है कि वह पड़ोस के बच्चों तक की खैर माँगती है।

    बहुत सुंदर।

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  16. आप समय की ज़रूरत समझने वाले रचनाकार हैं। आप पाठक और रचनाकार के रिश्ते के लगाव को समझते हैं। इस रिश्ते से कुछ पा लेने की चाहत नहीं बल्कि आपके शिल्प में वह आस्वाद है जो पाठक को आपकी रचना के प्रति आत्मीय बना देता है।
    सिर्फ़ घर के गोबर से लिपे आंगन में ही नहीं हमारे हृदय के आंगन में भी अरिपन की चित्रकारी खिच/रच गई है।

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  17. अति सुन्दर, सार्थक कविता---आस्था के साथ सादगी, जिम्मेदारी, लोक कला का सुन्दर वर्णन...बधाई...

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  18. बनाई है
    एक सुन्दर पृथ्वी
    गोल गोल और
    रोप दिए हैं उस पर
    अनगिनत पेड़.

    sundar panktiyan!
    saargarbhit rachna!

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  19. माँ ऐसी ही होती है अरुण जी..माँ की आस्थाएँ और उनकी परिवार के लिए प्रेम दोनों के दूसरे के पूरक होते है जो कभी कम नही हो सकते और हर व्रत और त्योहार में सामने आते रहते है...बहुत बढ़िया पोस्ट..बधाई

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  20. देवउठनी एकादशी
    की रात
    माँ बनाती है अल्पनायें ,
    जिन्‍हें देख कर लगता है
    उसके हैं
    कुछ सपने
    मेरे लिए
    हमारे लिए
    हम सबके लिए
    वरना माँ को नहीं देखा
    मांगते कभी कुछ
    किसी से भी
    maa khud ke liye hoti kaha hai

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  21. बहुत खूब .. माँ के सपनों में भी तो हम ही होते हैं ... उसकी अल्पनाओं में कल्पनाओं में उसके अनेक रंगों को उकेर दिया है आपने इस रचना में ...

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