गुरुवार, 11 नवंबर 2010

उम्र

बहुतों को
नहीं पता  होती  है
उनकी उम्र 
नहीं पता मुझे भी

असंख्य बचपन
जब असमय ही
दब जाते हैं
तरह तरह के बोझ तले
कौन बता सकता है
उन बचपनो की उम्र

कुछ बचपन तो
नहीं हो पाते युवा
अनुभव बना देता है
उन्हें व्यस्क
अब इस असमय वय की
क्या है उम्र , कौन कहे ?

अब
लड़कियों को ही देखिये
वे बचपन से ही होती हैं
गृहस्थ
अब ऐसी लड़कियों की
कुछ भी हो  उम्र
क्या फर्क पड़ता है उन्हें

असमय ही
सफ़ेद  हो गए
मेरे केश
 पूछते रहे लोग
मेरी उम्र 
हर मोड़ पर
हर नुक्कड़ पर
हर मौके पर
अब क्या उत्तर दूं मैं


स्कूल जाने की उम्र  में
कभी धो रहा था
चाय की केतली
कभी बना रहा था
साईकिल का पंक्चर
कभी बेच रहा था
बस अड्डे पर नारियल
कभी कभी
जेब भी कतरे

सपने देखने की उम्र  में
बजा रहा था
शादी ब्याह में बैंड
रंग रोगन कर रहा था
हवेलियों  और कोठियों की दीवारें
ठेल रहा था ठेले- रिक्शा 
धो रहा था बस-ट्रक

अब
कहते हैं लोग
निकल गई है उम्र 
समझ नहीं पा रहा
ये उम्र
जब आई ही नहीं तो
निकली कैसे .

24 टिप्‍पणियां:

  1. अब
    कहते हैं लोग
    निकल गई है उम्र
    समझ नहीं पा रहा
    ये उम्र
    जब आई ही नहीं तो
    निकली कैसे .
    बिल्कुल सही कहा………………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    गहरी बात कह दी आपने। नज़र आती हुये पर भी यकीं नहीं आता।

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  2. सही आकलन करके आपने बहुत ही सटीक रचना को जन्म दिया है!

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  3. अरुण जी,
    ज़िन्दगी को देखने का आपका नज़रिया कमाल का है…………एक अलग ही दृष्टिकोण्…………शायद तभी आपकी कवितायें जन मानस को झिंझोडती हैं और सोचने को मजबूर करती हैं ……………आपकी आज की कविता ने हिला दिया……………शब्द विन्यास और भाव संप्रेषण गज़ब का है और आखिरी की पंक्तियों ने तो दिल चीर दिया ……………कुछ कहने लायक ही नही छोडा…………आप ऐसे ही लिखते रहें यही कामना है

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  4. कहते हैं लोग
    निकल गई है उम्र
    समझ नहीं पा रहा
    ये उम्र
    जब आई ही नहीं तो
    निकली कैसे .

    बहुत ही सुन्‍दर पंक्तियां ....भावमय करती हुई ....।

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  5. अब इस असमय वय की
    क्या है उम्र , कौन कहे
    असमय ... को कौन भांप सकता है भला
    बहुत सुन्दर रचना

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  6. हृदयस्‍पर्शी कविता।

    मैं हमेशा व्‍यस्‍त था चुपचाप अपने काम में
    उम्र मेरे साथ ही बढ़ती गयी, कब होश था।

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  7. कहीं तो मज़बूरी वश उम्र पता नहीं और कहीं तो उम्र होकर भी होती ही नहीं.

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  8. समझ नहीं पा रहा
    ये उम्र
    जब आई ही नहीं तो
    निकली कैसे .
    यही तो विडंवना है।
    बहुत गहरी भावमय रचना है। शुभकामनायें।

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  9. असमय ही
    सफ़ेद हो गए
    मेरे केश
    पूछते रहे लोग
    मेरी उम्र
    हर मोड़ पर
    हर नुक्कड़ पर
    हर मौके पर
    अब क्या उत्तर दूं मैं
    बहुत गहरी बात , सोच रहा हूँ कहीं अपने साथ भी ऐसा तो नहीं ...सही कहा ..किसको क्या जबाब दूँ ...शुक्रिया

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  10. बहुत ही भावपूर्ण कविता.... अपने बालों पर भी अब गौर करना पड़ेगा......

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  11. बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति....

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  12. मार्मिक कविता है भाई.

    कुँवर कुसुमेश
    ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com

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  13. dhanya hain ham, jo aapka saath hai, aur aapki kavita.........:)

    hamari umar bhi kab gujar gayee pata hi nahi chal paya sir............abhi bhi wo sach me kahta hai "dil to bachcha hai jee"..........:D

    shandaar rachna ke liye badhai...:)

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  14. ये उम्र
    जब आई ही नहीं तो
    निकली कैसे . yahi to vidambna hai.....is umra ke na aane aur nikal jane tak ka pata nahi chalta hai....bahut marmik arunji....

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  15. na jane kitne bachpan is umra ksmay nikal jaane se apna baalpan gawaa dete hai
    achcchi rachna

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  16. शापित जीवनों की उम्र का क्या मोल, जीवन तो अन्ध कूप से निकलने के बाद प्रारम्भ होगा।

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  17. सामाजिक सरोकारों को रेखांकित करती बहुत ही सुन्दर व्यंग्य है !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  18. विकास के जयघोष के पीछे इन्हें कम उम्र में ही ज़्यादा मिल गया ... उम्र। इनकी किस्मत की फटी चादर का आज कोई रफूगर नहीं है भाई ... अज बाल दिवस है!!!!!!!!!!!!!!

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  19. अपने ब्लोग का टाइम ठीक कर लें। अभी यह १३ नवम्बर दिखा रहा है, जबकि अभी १४.११.१० के ०४.४९ हो रहे हैं।

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  20. अब
    कहते हैं लोग
    निकल गई है उम्र
    समझ नहीं पा रहा
    ये उम्र
    जब आई ही नहीं तो
    निकली कैसे ...
    उम्र कभी नहीं निकलती ... किसी भी को करने के लिए इरादा चाहिए ... उम्र तो लम्बी हो जाती है मजबूत इरादों के पीछे ..... ...

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