सोमवार, 27 जून 2011

एक घंटे डाईकटिंग मशीन पर


मिठाई के डिब्बे  से
लिफाफे तक
किताब से लेकर
कैलेण्डर  तक
जो कुछ भी छपता है
अपने अंतिम आकर्षक रूप में
है आता डाईकटिंग मशीन से
गुज़र कर ही

भारी-भरकम  मशीन
मशीन का यांत्रिक शोर
और इसके दो पाटों के बीच
कुछ इंचो और पलों का अंतर
एक पाट पर डाई
दूसरे पाट पर ब्लेड
इन सबके बीच तेज़ी से चलने वाले हाथ
अदभुत  समन्वय के साथ
मशीन और मानव के तालमेल का 
अदभुत  नमूना
और कर रहा है कोई और नहीं
घर गाँव छोड़ कर आया
वह बारह साल का बच्चा
उम्र पूछने पर पहली बार में
सरकार की नीतियों से डर कर
करता है जोर से घोषणा
'अठारह का हूँ मैं'

डाई कटिंग मशीन से साथ
जागता है वह
सोता है मशीन के साथ ही
कभी अठारह घंटे के बाद तो कभी
चौबीस घंटे तक लगातार
थकता है वह तभी
जब थकती है मशीन

एक घंटा जो बिताया
इस डाई कटिंग मशीन के साथ
देखा मशीन का मानवीकरण
और मानव का मशीनीकरण
बिना बोले, बिना रुके
दो पाटों के बीच नज़र
किसी तपस्वी से कम नहीं साधना
चूके तो हाथ गया मशीन के बीच
और फिर जीवन भर के लिए
अपाहिज बिना किसी मुआवजे  के

जब थकती  है मशीन
वह भी लेता है एक लम्बी अंगडाई
और देख आता है अपने माथे तक लटके केशों को
मशीन के सामने टंगे २ इंच के गोल शीशे में
अचानक दिख जाता है उसे
माँ का गोल चेहरा
वह उदास नहीं होता
दुगुनी ऊर्जा से वापिस आता है
मशीन पर एक और लम्बी पारी के लिए
बारह साल में यह क्षमता
शारीरिक नहीं
लगती  है कुछ मानसिक सी 
किसी ज़ज्बे से भरी 

सौ प्रतिशत से कम परफेक्शन
इस उद्योग को मंजूर नहीं
इसके लिए रखनी होती है नज़र
कंप्यूटर से तेज़
करना होता है समन्वय
पल के सौंवे हिस्से से भी
और फिर प्रति सैकड़े के हिसाब से
जब मिलनी होती है दिहाड़ी
एक युद्ध होता है
डाई कटिंग मशीन और उसके बीच
क्योंकि पिता को
बीज के लिए चाहिए पैसे
माँ को लेनी है एक गाय
गोवर्धन पूजा से पहले
खरीदनी है कुछ ज़मीन
रोपने हैं उसमे आम की कई कलमी किस्मे
अगले आम से पहले
सब सपने निखरेंगे
इसी डाई कटिंग मशीन से गुज़र कर

बहुत बड़ा लगा
बारह साल का वह बच्चा
डाई कटिंग मशीन पर
एक घंटे क्या रहा उसके साथ
गुज़र गया मैं भी
कई सपनो से होकर
कुछ उसके सपने
कुछ मेरे

बुधवार, 22 जून 2011

खिड़की का टूटा हुआ शीशा


ठीक है
जो टूट गया है
खिड़की का शीशा
चली आती है
गोरैए कभी कभी
बैठ जाती हैं

किताबो के आलमीरे  पर
किताबें खुश हो जाती हैं
कवितायेँ कसमसाने लगती हैं
पढ़े जाने को
कहानियों के भीतर
एक लहर उठ जाती है
आत्मकथाओं की आत्माएं
फिर जीवित हो उठती हैं
गोरैए की चहक से

गौरैया उड़कर
बंद पंखे के डैने पर
बैठ जाती है
डैने हिल उठते हैं
गौरैया डर जाती है
जैसे डरती हैं लडकियां
अचानक कुछ हिलने से
फिर आश्वस्त हो
गोरैया फुर्सत में बैठ जाती हैं
पंखे का डैना
उसकी कानो में कुछ कहता है
गोरैया हंसती है
हंसती हुई
गोरैया अच्छी लगती है
इस बीच
पसीने से लथपथ हो उठता हूँ मैं
बहुत दिनों बाद
आया है इस तरह पसीना
पसीने से मैं
कुछ बरस पीछे चला जाता हूँ
याद आता है
मेरे शहर का
रिक्शेवाला
लेकिन उस से पहले
याद आती है माँ
पसीने से तर
छौंकती सब्जी
बेलती रोटी
रिक्शेवाला कुछ सुपरमैन सा लगता है
लेकिन नहीं देखा कभी
किसी सुपरमैन को आते पसीना
गोरैया उड़कर चली जाना चाहती है

उसे डर है
कहीं बदल ना दिया जाये
खिड़की का यह टूटा शीशा
गोरैया लौट जाती है
कवितायेँ सो जाती हैं
कहानियां उदास हो जाती हैं
आत्मकथाएं मृत हो
जाती हैं
आलमीरे में पड़े पड़े
हाँ एक इंतजार छोड़ जाती है
गोरैया
जो आई थी खिड़की के
टूटे हुए शीशे से

आज सब खिड़कियाँ बंद है

शनिवार, 18 जून 2011

मैं जंगल की महुआ : कुछ क्षणिकाएं



१.
पत्तों की थाली
कंकडों से भरा लाल मोटा भात
करेले का अचार
नदी का मटमैला पानी
और बन्दूक साथ
महुआ मेरा नाम,
खबर है कि
सरकार बना रही है
हमसे युद्ध की नीति

२.
महीनो में एक बार
माथे में तेल
चोटी में लाल फीता
हरा खाकी पहिरन
और कंधे पर लटकती  बन्दूक
आँचल की तरह
महुआ का यौवन और प्यार
सुना है कि
सरकार तैयारी कर रही है

हमसे करने आँखें चार

३.
भूख से
मरी थी बहिन
विस्थापन से बाबा
मलेरिया से
मरी थी माँ
एनकाउन्टर में भाई
और कुपोषित रही
मैं महुआ
खबर है कि
सरकार जुटी है
लेने को लोहा मुझ से


अपने लोग
अपना गाँव
अपनी नदी
अपने खान
को कहना अपना
सिद्ध हुआ है
मेरा जुर्म
खबर है कि
सरकार के वकील तैयारी कर रहे हैं
हमसे लड़ने को मुकदमा

गुरुवार, 16 जून 2011

वसीयतनामा


बाबूजी
लिख गए हैं
एक वसीयत
जिसमें नहीं है
माँ का नाम

वही माँ
जो तोड़ी है
चूड़ियां उनके मरने के बाद
सूनी भी की है
अपनी लाल टुह टुह मांग
तज कर
सभी इन्द्रधनुष
हो गई है कपास
उसी माँ का
नहीं है नाम
वसीयत में

जिनके नाम हैं
वसीयत में
लगा चुके हैं
अपना अपना हिस्सा
उसकी कीमत
और लौट चुके हैं
अपनी अपनी दुनियाँ में
देकर माँ को
एक समय सीमा

समय सीमा
बेदखल होने को
इतिहास से
स्मृतियों से
और पूर्व की भांति ही
चिर शांति में है माँ

सोमवार, 13 जून 2011

पुराना नोट



आज मिले  है
कुछ पुराने नोट
माँ की पेटी में

एक नोट वो है
जो मिला था उसे
मुंह दिखाई  में
एक नोट है जो
बाबूजी ने दिया था
अपनी पहली कमाई से
मूल्य में कम होने के बाद भी
अमूल्य हैं वे नोट
जिसे माँ देखती रहती थी
अक्सर उलट पुलट कर
जैसे हवा रौशनी दे रही हो उन्हें
चुपचाप मुस्कुरा उठती थी
झुर्रियां मिट जाती थी अचानक
माँ के चेहरे से 
उन पुराने नोटों  को देख  

उनमें  एक नोट
वो भी था
जो बचा था उसे
बेचने पर प्यारी बछिया
बहुत रोई थी 
माँ और गैया उस दिन

आज   भी उस नोट को देख 
याद आ जाती है माँ को
बछिया और गाय 
कहती है मन में 
घूम जाता है कोई वीडियो 

एक छोटा सा नोट 
उसकी पोटली में है
और ये वो है 
जो मिला था
मुझे अपनी पहली तनख्वाह पर 
और रख दिया था  मैंने     
अपनी माँ के आँचल में 
हल्दी के निशान अब भी हैं
इस नोट पर
जो माँ ने लगाये थे पूजा के समय
इस नोट को देख 

अक्सर गीले हो जाते थे
उसकी आँखों के कोर
 
पुराने नोट की अहमियत

ख़त्म हो रही है यों तो     
माओं की तरह    
अँधेरे में हैं माएं   
टटोल रही हैं
पोटली में रखे पुराने नोट   

प्लास्टिक करेंसी के इस युग में  

शनिवार, 11 जून 2011

छोडू राम का प्रेम पत्र

प्रिये
मैं छोडू राम
लिखना चाहता था
एक प्रेम पत्र
लेकिन
सदियों तक
अक्षर ज्ञान से
रहा जो वंचित
कैसे लिखता


कैसे कहता
तुम सबसे अच्छी तब लगती हो
जब पाथती हो उपले
उपले जब चूल्हे में जलते हैं
अंगारों से लाल तुम्हारा चेहरा
बड़ा दीप्त लगता है
अष्टमी की रात आरती के बाद
भगवती की तरह
अब कहता हूं
मैं तुम्हारा छोडू राम
जब छूट चुका है
गाँव, उपले
और चूल्हा

लिखना चाहता हूं  कि
जब मांगे थे तुमने
आम के नए टिकोले
मन हुआ था
दे दूं तुम्हे संसार
फिर लगा
मेरे संसार में है ही क्या
कर्जों का बोझ
कुचला हुआ मान सम्मान
आज फिर
मन कर रहा है
दे दूं तुम्हें
बस वही आम के टिकोले
खट्टे खट्टे
लेकिन वो दुनिया तो
पीछे छूट गई है


जब कच्चे बांस की
लपलपाती छड़ी से
उधेडी जाती थी
मेरी पीठ
मन करता था
जोर जोर से लूं
तुम्हारा नाम
लगता था
चोट का कम होगा असर
लिख देना चाहता हूँ
यह भ्रम भी

एक बात और कहूँ
कि मेरी माँ और तुम में
थी ढेर सारी समानताएं
मैं कभी तुमको बता नहीं पाया
क्योंकि लगता था
जब आओगी
मेरे आँगन तुम
खुद ही जान जाओगी
लेकिन तुम आई नहीं
सो मैंने लिख दिया है यहाँ
बुरा मत मानना

हाँ आज यह भी 

कहना चाहता हूँ कि 
मुझे बहुत बुरा लगा था 
उस दिन
जब मैंने अपने ऊपर 
पड़ने वाले चाबुक को
पकड़ लिया था और
मिला ली थी आँखें 
सदियों की दासता के विरुद्ध
लगा था मेरे कंधो से 
झूल जाओगी तुम
नहीं हुआ ऐसा
फिर मैं 
 भी भूल गया 
पहली बार रोया था
उस दिन ही
ना उस से पहले
ना उसके बाद

कभी जो
पढना मेरे प्रेम पत्र को
जरुर देना उत्तर
कहना कैसा लगा था उस दिन
जब पहली बार
हवा में लहराई थी
मेरी मुट्ठी जिसे बाद में
दिया गया था कुचल
जरुर लिखना 
अपने उत्तर में
किसे कहते हैं प्रेम  


(आदरणीय पाठक मित्र !
मेरी यह कविता वास्तव में मानवीय प्रेम और सामाजिक बदलाव के प्रति प्रेम की कविता है... समाज के बीच को खाई उपजी थी या हो है अब भी उस पर टिप्पणी करती कविता है... छोडू राम आज भी समाज के हाशिये पर.. आज भी व्यवस्था से आँखे मिलाने पर आंखे निकल ली जाती है... मुट्ठी भींचने पर कुछ दी जाती है मुट्ठी... काट ली जाती है उंगलियाँ ताकि कभी मुट्ठी बने ही ना.... कविता को इस सन्दर्भ में पढ़ें  तो  कविता सार्थक हो पायेगी... सादर)

मंगलवार, 7 जून 2011

छोडू राम



हुजूर मैं हूँ
छोडू राम
किसी को
छोड़ आना हो घर, दुकान, दफ्तर,
ससुराल, मायके
छोड़  आता हूं
जिसे पंहुचा आता हूँ
चौखट तक
पलट कर देखते नहीं
अलग बात है यह
और कोई नई बात भी नहीं

मैं छोडू राम
किसी को भिजवाना है
कोई जरुरी कीमती माल
शहर के
इस कोने से उस कोने
या इस शहर से उस शहर
भरोसे से छोड़ आता हूं
लेकिन जब भी
खोला है मुंह
वाजिब मेहनताने के लिए
कोंच दिया गया है
मेरे ही पसीने से तर
मेरा ही गमछा
मेरे ही मुंह में 

बच्चे जब शाम को
लौटते हैं अपने घर
मैं उनके साथ चल लेता हूँ
कदम दो कदम
बतिया लेता हूँ
अपना लड़कपन
छोड़ आता हूँ
उन्हें गली के नुक्कड़ तक
वापसी में
खींच लेते हैं मेरे बाल
मेरी बनियान
मेरा लड़कपन छूट जाता है वहीं
छोडू राम जो ठहरा मैं

इस दुनिया में
मेरे नाम से तो नहीं
लेकिन मेरे काम से हैं
हजारों छोडू राम 
दो बातें प्रेम से करो
कुछ भी कर दूंगा मैं
सिवाय  इसके कि
आस्मां से तारे नहीं ला सकता
लेकिन उठा लूँगा आसमान सिर पर
आपका काम होने तक

लोग बहुत प्रेम से
बतियाते हैं
जब तक छोड़ता नहीं मैं
उन्हें, उनका सामान, उनका सन्देश
उनके गंतब्य तक
कईयों को तो छोड़ आया हूँ
विधान सभा संसद तक
और फिर लौटते हुए
मेरे कानो में गूंजती  हैं
उपहास मिश्रित उनकी हंसी
अट्टहास भी


ठीक वैसे ही
महसूस करता हूँ
जैसे मतदान के बाद
ठगा सा
महसूस करते हैं आप

मैं बेबस, लाचार,
अपमानित छोडू राम
कभी सम्मान देना हो
तो कहियेगा मुझे
लोकतंत्र

शनिवार, 4 जून 2011

फ्रीडम टाउन सिएरा लियोन



काले लोगों के
स्याह इतिहास की कहानी हूँ
मैं, फ्रीडम टाउन
जिसे शर्मिंदा होना चाहिए
अपने नाम पर
हूँ मैं दुनिया के सबसे गरीब देशों में एक
सिएरा लियोन की राजधानी

प्रसिद्द हूँ मैं
दुनिया भर में
अपने हीरों की खानों के लिए
वैभव का यह प्रतीक
हमारे लिए नहीं ला पाया
सुबह और शाम की रोटी
पूरे तन पर कपडा और छत
जबकि जिसे पट्टे पर दी गई थी
हीरे की खाने वह 'ड़ी बीयर्स'
हैं दुनिया का सबसे मशहूर ब्रांड
ब्रांड तो हम भी हैं
भुखमरी, गरीबी और
तथाकथित हिंसा के, 
फ्रीडम टाउन हूँ मैं
जो अपने इतिहास में
कभी नहीं रहा 'फ्री'

दास रहे हम सदियों तक
जब भी कोशिश हुई
संगठित होने की
स्वतंत्रता पाने की
संगठित रूप से कुचल दिए गए हम
कहने को तो आज़ाद होकर आये थे
अमरीकी क्रांति के बाद
लेकिन वास्तव में वह
दासत्व की दूसरी पारी थी


आपको शायद याद ना हो
या फिर इतिहास में दर्ज ना हो कहीं
'हट टैक्स वार' जिसमे एक ही साथ
हमरे ९६ सेनानियों को धोखे से
चढ़ा दी गई फांसी
जिसमे शामिल थे 'बाई बुरेह'
जिनके हाथों में थी
आज़ादी के युद्ध की डोर,
था यह एक युद्ध
साम्राज्यवाद की लगान प्रणाली के विरुद्ध
लेकिन कहा गया इसे
श्रमिकों का उपद्रव
फ्रीटाउन मैं मूक रहा
हो न सका फ्री
उसके बाद कभी

हमारी जेल
विश्व प्रसिद्ध हैं
जहाँ एक छोटी सी कोठरी में
रहते हैं सौ-सौ बंदी
बंदी वे हैं जिन पर हैं
रोटी,ब्रेड , पाव चुराने का आरोप
बनी हैं हमारे जेल पर
कई फिल्मे, लिखी गई हैं कहानियाँ
और इन अमानवीय दृश्य के तस्वीरों को
मिले है दुनिया भर में पुरस्कार


फ्रीटाउन
सिएरा लियोन की राजधानी में
कभी आयेंगे तो
दूंगा मैं दमकते हीरे 
उपहार में
निवेदन है कि
साथ लाइयेगा आप
थोड़ी सी रौशनी
हमारे लिए
फ्रीडम टाउन के लिए 


(सभी चित्र  सिएरा लियोन के जेल के हैं और बर्सिलोन के प्रसिद्द छायाकार फ़र्नांडो मोलेरेस के हैं. www.livemint.com के सौजन्य से )

बुधवार, 1 जून 2011

मीडिया हाउस से सीधे रिपोर्टिंग


आज मौका मिला
तो कर लूं  रिपोर्टिंग
उन्ही के दफ्तर से
जो तय करते हैं
सीधे रिपोर्टिंग की नीति

भाग्यशाली रहा कि
पहुँच गया हूँ मैं यहाँ
वरना यहाँ पहुंचना
देश के प्रधानमंत्री आवास में
पहुँचने से कम भी नहीं
दोनों ही हैं
जनता के  लिए
और हैं जनता से उतने ही दूर

राजधानी के ह्रदय में बसे
इसके विशाल और अत्याधुनिक
परिसर को देख
कह नहीं सकते आप कि
आवाज़ हैं देश की जनता की
वही जनता जिन्हें तमाम दावो के बाद भी
मिली नहीं भर पेट रोटी, पानी,
तन भर कपडा
सर पर छत
घर पहुँचने के लिए सड़क

इसके विशाल लाउंज की
वातानुकूलन सुविधा को देख
लगता नहीं कि
कोई समानुपातिक सम्बन्ध है
देश और यहाँ के तापमान के बीच
क्योंकि अभी जब लपटों में थे
कुछ किसान, बचाने को अपनी पुश्तैनी ज़मीन
यहाँ पसरी हुई थी
पूरी शांति

हाँ अभी अभी
गुज़रा है पत्रकारों का एक दल
ट्रेंडी टीशर्ट और डेनिम में
हाथ में काफी का बड़ा मग लिए
उनकी चर्चा में है
विदेश में हुई किसी राजकुमार की शादी
नई रानी, उसके किस्से और तमाम विवरण
कोई बात नहीं कि अभी भी
घर नहीं लौटे हैं कई किसान, उनके जवान बेटे
और दहशत में हैं पत्नियां और बेटियाँ

लाउंज जहाँ मैं
अभी धंसा  हूँ देश के  सबसे बड़े फर्नीचर ब्रांड के
सबसे महंगे सोफे में
शायद इसके सामने ही है
कैफेटेरिया
जहाँ बारी बारी से
अलग अलग टोलियों में आ रहे हैं लोग
एक टोली ने पहन रखी  है
बाघ के छाल की  प्रिंट वाली  शर्ट
उस पर सन्देश भी है
बचाने को बाघ
बहुत प्रतिबद्धता दिख रही है
मुझे तो
बस तर्क समझ नहीं आया कि
एक आम आदमी जैसे मैं
कैसे रोक सकता हूँ
बाघ को मरने से/शिकार होने से
कैसे बढ़ा सकता हूँ इनकी संख्या
जो मैं खरीद नहीं सकता
एक जोड़ी एक्स्ट्रा कमीज़ अपने लिए
बच्चों के लिए 'कुछ मीठा हो जाये' वाला चाकलेट
इस उबलती  महंगाई में
कैसे खरीद सकता हूँ
बाघ की छाल से बने कपडे आदि
खैर उनकी प्रतिबद्धता देख
विश्वास हो चला है कि
बचा सकता हूँ मैं भी बाघ

अरे यह क्या !
ये तो कुछ जाने पहचाने चेहरे हैं
रोज़ ही दिखते हैं
कितना तेज़ होता है
इनके चेहरे पर
कितना भयभीत कर देते हैं
अपने खौफनाक संवादों से
लेकिन बड़ा शांत चित्त दिख रहे हैं यहाँ
ऐसा लग रहा है मानो
नाटक कर रहे हैं
शांतचित्त दिखने का
ये बात नहीं करते किसी से
हां अपने शो की टी आर पी ऐसे देखते हैं
जैसे हो कोई सटोरिया
स्टाक बाज़ार में

मेरी दायीं ओर
है कोई बड़ा सा सम्मलेन कक्ष
वहां आया है अभी अभी कोई
लाल बत्ती वाली बड़ी सी गाडी में
सुनाई  तो नहीं दे रहा मुझे कुछ
लेकिन होठों को पढने से लगता है
हो रही है कोई गंभीर मंत्रणा
भारी भरकम  चिंतन
कुछ लेन देन की  बातें
कुछ बंटवारा होना है आपस में
सूत्रों से जब होगा अधिक ज्ञात
जरुर बताऊंगा

हाँ ! इस बीच
पकड़ लिया गया है मुझे
ले जाया जा रहा है
घसीट कर बाहर
हो सकता है
बन जाये यह ब्रेकिंग न्यूज़ 

या कल के अखबार की सुर्खी 
'एक आम आदमी मीडिया हाउस में घुसा'

वटसावित्री : कुछ क्षणिकाएं



१.
पिता
नहीं होते सत्यवान
माएं होती हैं
फिर भी
सावित्री

२.
सावित्री
चल देती है
यमराज के साथ
सत्यवान के लिए
सत्यवान
नहीं चल सकता
कदम दो कदम
साथ सावित्री के

३.
धागा बाँध
जोड़ लेती है
सावित्री
कई जन्मों का
सनातन सम्बन्ध
वर्षो साथ रह
जो कई बार
बनता नहीं

४ .
वट
आस्था है
एक दिन में
गहराई नहीं हैं
इसकी जड़ें