जब नहीं होता
कहने को कुछ
तब भी
चल रही होती है
अकेली एक नदी
सागर की ओर
लौट रही होती है
गौरैया
लेकर एक दाना
अपने चोंच में
कोई किसान
रोप रहा होता है
एक बीज
विश्वास से
और कुछ बच्चे
बना रहे होते हैं
उगते सूरज का चित्र
उंगलिया लिखती हैं
मिटटी पर
किसी का नाम
जब नहीं होता
कहने को कुछ !
वाह अब तो मेरे पास भी नहीं बचा कुछ कहने को
जवाब देंहटाएंहाँ होता तो है ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर अहसास लिए अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंयह कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है अरुण जी . गुप्त जी ने भी कहा है -कोई पास न रहने पर भी जन मन मौन नही रहता ..
जवाब देंहटाएंकृपया उत्तर दें .
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
वाह सटीक।एकदम सही कहा अपने
जवाब देंहटाएंजब नहीं होता
कहने को कुछ
तब भी कहने को होता तो है कुछ
ये मन है आखिर चुप बैठता कहाँ है
सुन्दर अभिव्यक्ति
घट भरा हो तो पानी उँडेलना मुश्किल ,अंदर ही अंदर घूमता- टकराता - मंथन चल रहा हो जैसे .बाहर आने की राह नहीं मिलती .
जवाब देंहटाएंतब भी बहुत कुछ हो रहा होता है।
जवाब देंहटाएंगहन और सूक्ष्म अनुभूतियां।