गुरुवार, 30 सितंबर 2010

टांग दिया है हल

दो जोड़ी बैल थे
अब नहीं रहे
मेरे ही नहीं
गाँव में
किसी के भी
नहीं रहे
बैल


निरीह थे
जुत जाते थे
रुखा सूखा खा लेते थे
हमारी तरह
अपनापन भरी
हथेलियों के स्पर्श से
भर जाता था
उनका भी पेट
और आँखें
चमक उठती थीं
बच्चों की तरह

खेती तो बढ़ी नहीं
लेकिन बढ़ गई
उसकी लागत
और तौर तरीके
और इस बदलते समय में
नहीं बदल सकते थे
बैल
बाबा की तरह


धीरे धीरे
घुस गई मशीन
खेतों में
खलिहानों में
दालानों में
कुटाई में
पिसाई में
पेराई में
मशीनों के दखल से
बेदखल होने लगे बैल
ठीक वैसे ही
जैसे आज
बेदखल हो गए हैं
पिता जैसे हज़ारो किसान
और
परिवर्तित हो गई
आत्मनिर्भरता
निर्भरता में

बैलो के
जाने के साथ
टांग दिया गया
वर्षों पुराना हल
आँखों में
सवाल के साथ
शायद
नहीं है जिनका
कोई हल
आधुनिक अर्थशास्त्र में .

26 टिप्‍पणियां:

  1. एक बेहद ह्रदयस्पर्शी और सच से मुखातिब कराती रचना ……………………कुछ सवाल हमेशा अनुत्तरित रह जाते हैं।

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  2. adhunik takneeki jo na karaye kam hai..kitni hibaate aaj ka bachaa nahi janta..

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  3. उम्दा प्रतीकात्मक रचना, लिखते रहिये ....

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  4. तकनीकी विकास के साथ-साथ जीवन मूल्यों की अवधारणाएं बदल रही हैं, समय के अभाव में एक रचनाकार से इस दायित्व की अपेक्षा की जाती है कि वह रचना में जीवनानुभवों और घटनाओं को समकालीन समय के समांतर विश्लेषित करे।

    इसमें माटी की गंध और गंवई मिज़ाज पैहम है।

    इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं।
    आभार। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    चक्रव्यूह से आगे, आंच पर अनुपमा पाठक की कविता की समीक्षा, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  5. हल कोई हल नहीं रहा आधुनिक अर्थशास्त्र में।

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  6. बहुत उम्दां।
    अपना नंबर दीजिए या फोन कीजिए। मेरा नंबर है 09873425196..
    दिल्ली का पत्रकार हूं...संभव हो तो कीजिएगा.....
    ई-मेल-pandeypiyush07@gmail.com

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  7. आत्मनिर्भरता कब निर्भरता बन गई.. वास्तव में आत्मा जब सड़ जाए तो वह आत्मनिर्भरता से कट जाती है और रह जाती है सिर्फ निर्भरता.. हल आज भी टँगा तो है मस्तिष्क में आपके. जीवित रखिए, वही आत्मा है!!

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  8. शायद
    नहीं है जिनका
    कोई हल
    आधुनिक अर्थशास्त्र में .
    आधुनिकता के अर्थशास्त्र ने तो अनेक विसंगतियाँ दी हैं. बैलों का निर्वासन और पिता का निर्वासन शायद समानांतर ही है.
    बहुत गहराई की रचना

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  9. नयी तक्नीति के साथ परिवर्तन तो आते हैं ... पर सही समाज वो है जो पुराने का इस्तेमाल किसी दूसरी जागे उतनी ही शिद्दत से करता है ....

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  10. वर्षों पुराना हल
    आँखों में
    सवाल के साथ
    शायद
    नहीं है जिनका
    कोई हल
    आधुनिक अर्थशास्त्र में

    तकनीकी बदलाव से कुछ तो बदलेगा ही ...अच्छी रचना

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  11. किसी ने आरोप लगाया था कि मैं तुम्हारी झूठी प्रशंसा करके तुम्हें नुकसान पहुंचा रहा हूँ .अरुण जी नफा नुकसान की कोई दुकान नहीं होती कविता की तमीज .
    पर क्या करूँ ,तुम्हारी इस कविता की तारीफ न करूँ तो फिर क्या करूँ ?
    अब इससे नुकसान होगा या लाभ -तुम जानो .

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  12. आप की रचना 01 अक्टूबर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com


    आभार

    अनामिका

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  13. बैलों के खोने का दुःख बहुत सालता है कभी... लगता है कि हम उन्हें भुलाकर अपने देश की एक महत्वपूर्ण पहिचान ही भुला रहे हैं.. आभार अरुण जी इस बहुत ही बेहतरीन कविता के लिए.. मर्म को स्पर्श किया इसने..

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  14. dil ko choo jane wale alfazpiro lae hai aap ise marmik par aaj kee sthiti ko ( kiasano kee.ko ) ujagar karatee adbhut rachana.......

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  15. बहुत खूब ! आपके इस बेहतरीन ब्लाग का अनुसरण कर रहा हूँ ...आपको हार्दिक शुभकामनायें

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  16. अरुण जी आज समय की मांग हल नहीं है ट्रैक्टर है. अगर हल से खेती की तो कम अनाज मिलेगा जो आज के समय के लिए पूरा नहीं होगा. इसलिए समय के साथ चले और बदलाव को स्वीकार करे.

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  17. उर्फ सास उवाच....
    अरुण जी आप निश्चिंत रहिए। मै किसी के कहने से आपके ब्‍लाग पर आना नहीं छोड़ूंगा। आपकी कविता पर टिप्‍पणी मैं तभी करुंगा जब मेरा पास कुछ कहने होगा। यह कविता में तीन बार पढ़ चुका हूं। पर मेरे पास कहने को कुछ नहीं है सिवाय इसके कि आपने एक बार फिर विषय का चुनाव ठीक से नहीं किया। उसकी वजह से कविता कमजोर होनी ही थी।

    इस अनुभवी सास का यह भी एक सवाल है कि आपने हल तो टांग दिया। लेकिन आप थ्रेशर की गति से अपने अधपके विचारों की फसल काटने पर क्‍यों तुले हैं। इतनी जल्‍दी जल्‍दी अपनी कविता क्‍यों बदलते हैं। कविता लिखने के पहले जरा उसके बारे में सोचने में समय भी लगाइए।

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  18. सुन्दर ह्रदयस्पर्शी प्रस्तुति...आभार....

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  19. तकनीकी बदलाव से कुछ तो बदलेगा ही ...अच्छी रचना

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  20. आदरणीय अरुण जी जी
    नमस्कार !

    कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

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  21. भाई अरुण एक बार फिर बहुत अच्छी पोस्ट, मार्मिक भी एक सन्देश भी पर मैं इतना कहूँगी की समय के साथ थोडा बदलाव भी जरुरी है

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