शनिवार, 12 मार्च 2011

चार स्तंभों वाला असहाय पशु


कुछ लोग
एक पशु को
ले जा रहे हैं बांधे
जिबह घर की तरफ
सरे आम 
दिन दहाड़े

रेशम सी चमकीली
प्लास्टिक की डोरी से
बाँध दिया गया है
पशु  का मुंह  
जिस से कि वह 
बोल न सके 
चिल्ला न सके
जुटा न ले देश भर के 
पशुओं  को 

कहने की बात तो 
नहीं है लेकिन
जरुरी है
याद दिलाना कि
पशु के होते  हैं चार पाँव 
इन चार पाँवों पर
खड़ा होता था वह 
लाचार है आज

तोड़ दिया गया है 
उसका एक पाँव 
वही पाँव जो था तो पिछला 
लेकिन उसके शरीर का 
पूरा भार उठाता था 

पशु  के दूसरे पाँव को
निर्बल कर दिया गया है
देकर अलग तरह का 
नशा 
जिससे हो गया है बेकार 
उसका यह पाँव भी 
लड़खड़ा रहा है नशे में 
उसका यह पाँव 
जिसे अभी करना चाहिए था
 विद्रोह, आन्दोलन,क्रांति 

उसके बाकी के दो पाँवों  को 
जकड दिया गया है
मजबूती से
उसी चमकीली रेशम सी 
प्लास्टिक की रस्सी से
जो संवेदनहीन होती  है
प्लास्टिक के सभी गुण होते हैं
उस रस्सी में 

पाँवों  को  बेकार कर देने से
निर्बल हो गया है 
वह पशु और
बिना अधिक प्रतिरोध के
ले जाया जा रहा है वह 
जिबहघर की ओर 

हम देख रहे हैं
आप भी देख रहे हैं
सब देख रहे हैं
पशु  देखते देखते जिबह हो जायेगा
परोस दिया जायेगा 
राष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय भक्षियों के सामने 

चार स्तंभों वाला 
असहाय पशु  ! 

25 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक .
    खाने वालों को तो चटकारे लेकर खाने का इंतज़ार है.
    उफ़, ये विडम्बना.
    कब समझेंगे ये लोग ?

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  2. .सोच रहा हूँ कि लोकतंत्र को जिबह करने वाले नेता बाब बाज आयेंगे आख़िर.

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  3. सोच रहा हूँ कि लोकतंत्र को जिबह करने वाले नेता कब बाज आयेंगे आख़िर

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  4. अरुण जी, आपके द्वारा वर्णित दयनीय परिस्थिति और इस व्यथा कथा का एक और चित्र दो दिन पहले टीओआई में दिखा.. इसी पशु को जिबह घर ले जाने में होने वाले विलम्ब के फलस्वरूप उसकी एक पाँचवीं टाँग भी उगने लगी थी. नर्म और कोमल इस पैर में जैसे ही शक्ति का संचार प्रारम्भ हुआ, उस पैर को भी बाँधने और काटने का उपक्रम प्रारम्भ हो गया... कदाचित मूक पशु के भाग्य में बलिदान ही बदा है!!

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  5. हम देख रहे हैं
    आप भी देख रहे हैं
    सब देख रहे हैं
    पशु देखते देखते जिबह हो जायेगा
    परोस दिया जायेगा
    राष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय भक्षियों के सामने
    nindniy, dayniy , sochniy

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  6. अर्थजगत के अपने नियम कायदे.

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  7. चिन्ताजनक स्थिती है आज के मानव की। बाजारवाद और राजनिती की भेंट चडः गया है। बेहतरीन रचना बधाई।

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  8. सब उसका दूध दुह रहे हैं, कोई उसे पुष्ट नहीं कर रहा है।

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  9. Bahut khuchh kah diya hai aapne dost....
    sach me in bejubano ki koi nahi sunta....
    jo sunane wale hain o kuchh aur sunane ke dar se kano me pathar dal rakhe hain.

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  10. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (14-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  11. हम देख रहे हैं
    आप भी देख रहे हैं
    सब देख रहे हैं
    पशु देखते देखते जिबह हो जायेगा
    परोस दिया जायेगा
    राष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय भक्षियों के सामने
    गम्भीर कर देने वाली रचना है अरुण जी.

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  12. हाँ यह गंभीर विषय है. बेहतरीन रचना बधाई.

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  13. इसे भाग्य कहें की अपना ही क्या .. ?/ .. बहुत खूब ..

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  14. ये जो पशु है आज पाशविक प्रवृत्ति का शिकार हो रहा है। पशु तो इंसान बन गया, इंसान पशु।
    एक एक कर हमारी(देश की) सभी टांगें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने घुटने टेक चुकी हैं, अब तो आपने उससे भी भयानक तस्वीर खीच दी है जब इन्हें परोसा दिया जा रहा है, नर भक्षियों के आगे ...!

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  15. बहुत मार्मिक प्रस्तुति| धन्यवाद|

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  16. हम देख रहे हैं
    आप भी देख रहे हैं
    सब देख रहे हैं
    पशु देखते देखते जिबह हो जायेगा
    परोस दिया जायेगा
    राष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय भक्षियों के सामने
    चार स्तंभों वाला
    असहाय पशु ! .........

    तथ्यपरक एवं सारगर्भित कविता....

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  17. वाह...... ! लोकतंत्र की दुश्वारियों का बड़ा ही करुण चित्रण किया है आपने। नये विम्ब और प्रतीकों से व्यंग्य और भी मारक हो गया है। इस से आगे क्या कहूँ...
    “हो गयी है पीड़ पर्वत-सी पिघलनी चाहिये।
    इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।
    सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
    जिस तरह से हो मगर ये हालत बदलनी चाहिये।

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  18. हम देख रहे हैं
    आप भी देख रहे हैं
    सब देख रहे हैं
    पशु देखते देखते जिबह हो जायेगा
    परोस दिया जायेगा
    राष्ट्रीय बहुराष्ट्रीय भक्षियों के सामने

    चार स्तंभों वाला
    असहाय पशु !

    संवेदना को आहत कर गयी आपकी कविता !

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  19. सच में चार पाँव हो कर भी दो पाँव वाले के सामने असहाय है ...
    कितनी विडंबना है पशु की ...

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  20. अरुण जी इस कविता में लोकतंत्र को जिस तरह आपने दिखाया है वह कोशिश बढ़िया है.. कविता और कसावट मांगती है ... थोडा और अनुसन्धान मांगती है..

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  21. uff sach me kisi nihsahay ko kaise dard milta hai kaise wo kya kya sahta hai...usko kavita me aap hi jee sakte hain.........padh kar aisa laga, jaise mere paon bandh diye gaye hon..........!

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  22. उफ़ ! दिल को छू गयी यह अभिव्यक्ति .फिर एक बार आना पड़ेगा अपने विचार व्यक्त करने के लिए.अभी तो ताला लगा है मेरी जुबान पर.

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  23. कहा था एक बार फिर आना पड़ेगा विचार व्यक्त करने के लिए ,लेकिन दर्द इतना है की शब्द ही नहीं मिल पा रहें है व्यक्त करने के लिए.आपने किस गहराई से मूक पशु की व्यथा को उकेरा है ,और फिर इसी को प्रतीक रूप में निर्बल निसहाय मनुष्य/जनता का बहुराष्ट्रीय भक्षियों द्वारा क्रूर शोषण के रूप में व्यक्त किया है,वह आपके निर्मलह्रदय की गहन सम्वेदना को दर्शित करता है.
    कुमार पलाश जी थोडा अनुसंधान के लिए कह रहे है ,परन्तु मेरा कहना है आपकी यह अभिव्यक्ति ही बार बारदिल को टटोलने को मजबूर करती है और अनवरत अनुसंधान मांगती है.

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