बुधवार, 23 मार्च 2011

कबाड़

कल तक
होता जो था धरोहर अनमोल
आज उसका तय कर दिया गया है 
अपना मोल
कुछ प्रति नग तो कुछ प्रति किलो

सहेज कर जो
रखे जाते थे बच्चो के कपडे
और रोमांचित हुआ करते थे
वर्षो बाद
सुखद स्मृतियों
कर लिया करते थे ताज़ी
अब नहीं हुआ करेंगी
बिकने लगे हैं
लगने लगे हैं भाव
पुराने कपड़ो के  भी

उतरन से
ढकी जाती थी 
दूसरो की देह
कई बार भरा होता था
इसमें भी नेह
अब नहीं हुआ करेगा
ऐसा
कबाड़ जो हो गए हैं
हमारे पहिरन
बिकने लगे हैं


कांसे पीतल
अलमुनियम
और फिर स्टील  की थाली, कटोरी, गिलास
इन पर खुदे होते थे
बच्चो के नाम
दादा दादी के नाम
माँ बाबूजी के नाम
पीढियां संजोती थी इन्हें
जीती थी इन्हें रोज़ ही
अब नहीं होगा कुछ ऐसा
पुराने बर्तनों के बदले
मिल जाते हैं बर्तन नए

बाबूजी उतार कर
दे दिया करते थे
अपना जूता
जब आने लगता था बेटे को
और गर्व से होता था
जूते की उम्र का जिक्र
पुराने जूते काटा नहीं करते एडियाँ
कहा करते थे पुराने लोग
और फिर आरामदेह भी हुआ करते थे
जूते अब नहीं बदलते 
पीढियां

व्याकरण, साहित्य, शब्दकोष
चलती थी कई पीढ़िया
कई बार मिल जाते थे उनके बीच
मोर के पंख
फूलों की सूखी किन्तु 
सहेज कर रखी गई पंखुड़ियां
लिख कर मिटाया गया किसी का नाम
सिले होते थे मोटे खादी के धागों से मोटी किताबें
रंग दिया जाता था सिलाई के धागों को
अब किलो के भाव बिक जाती हैं कहीं भी
खो जाते हैं, अनाथ हो जाते हैं
मोर के पंख, पंखुड़ियां और 
कुछ नाम भी

हो गए  हैं संदूक खाली
दालान के , मन के
सब यादें  हो गई  हैं अब कबाड़ .

23 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता सनातन मूल्यों से दुराव की वेदना की अनंत गाथा है. धन्यवाद !

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  2. "हो गए हैं संदूक खाली
    दालान के , मन के
    सब यादें हो गई हैं अब कबाड़"
    क्या ऐसा भी होता है अरुणजी. कुछ यादें तो जरूर सहज के रखी जाती ही होंगी.वैसे कहा गया है 'एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल,प्यारे रह जायेंगे जग में तेरे बोल'.शानदार बोलों को तो सहज कर रखना ही चाहिये.
    आपका मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट 'बिनु सत्संग बिबेक न होई'पर इंतजार है.

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  3. शानदार प्रस्तुति.यादें भी स्वरुप बदल चुकी हैं बदलते वक्त में.

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  4. वाह.....शानदार लगी ये पोस्ट......किस क़दर खूबसूरती से आपने व्यंग्य में लपेटा है इस नाज़ुक से मसले को....शानदार |

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  5. पुराने लोग घर की पुरानी चीज़ों को धरोहर समझ कर रखते थे,और देख देख कर ख़ुश होते थे मगर अब सब उलट गया है.आधुनिक सोंच का बेहतरीन चित्रण और उस पर अच्छा व्यंग आपकी कविता में देखने को मिला..

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  6. बहुत शानदार प्रस्तुति| धन्यवाद|

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  7. samano ke sath hi sambandhon aur yadon ki bhi umra bahut chhoti ho gayee hai....

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  8. यादें उनके मूल्य से रहती हैं, भौतिकता में सब तिरोहत हो गये हैं।

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  9. अरुण जी,
    हमारे यहां आज भी कपड़ों के बदले बर्तन खरीदने की परम्परा नहीं है.. जो जुड़ाव आपने दिखाया उन परिधानों के प्रति वो सचमुच अब बाकी नहीं.. कपडे रेडीमेड हो गए हैं इसलिए भावनाएं भी फैशन के दौर में टिकाऊ नहीं रह गईं.. बाप का जूता बेटे के पैर आने पर बेटा बाप का दोस्त बन जाता था.. ये दो पीढ़ियों का जुड़ाव सचमुच कबाड बन गया.. संवेदनशील अभिव्यक्ति, हमेशा की तरह!!

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  10. हो गए हैं संदूक खाली
    दालान के , मन के
    सब यादें हो गई हैं अब कबाड़ .
    apnepan kee yaadon kee khushboo kahin nahi milti

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  11. जूते अब नहीं बदलते
    पीढियां
    in do pangtion men jane kitna kuch kah diya...behad komal kavita.....ekdam man ke paas.

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  12. कल तक
    होता जो था धरोहर अनमोल
    आज उसका तय कर दिया गया है
    अपना मोल
    कुछ प्रति नग तो कुछ प्रति किलो.....

    और कुछ बेमोल .

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  13. हो गए हैं संदूक खाली
    दालान के , मन के
    सब यादें हो गई हैं अब कबाड़ ...

    आज के समय की सार्थक और सटीक चित्रण...बहुत सुन्दर

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  14. "हो गए हैं संदूक खाली
    दालान के , मन के
    सब यादें हो गई हैं अब कबाड़"

    बहुत ही संवेदनशील कविता लिखी है आपने....चीज़ों से लिपटी कितनी ख़ूबसूरत यादें बसती थीं,मन में ....पर आज सब कबाड़ में तब्दील हो गयी हैं.
    किसी कोने में पड़ी उपेक्षित वस्तुओं पर कविता लिख डालने की अद्भुत क्षमता है आपमें...

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  15. हर वस्तु बाज़ार की भेंट चढ़ गयी है...अब संवेदनाएं ही नहीं हैं तो कौन सहेजे गा पुरानी चीजें और पुराने पल...बेहतरीन रचना...बधाई

    नीरज

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  16. आदरणीय अरुण जी,
    नमस्कार !
    अच्छा व्यंग आपकी कविता में
    सार्थक और सटीक चित्रण............बहुत सुन्दर

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