रविवार, 29 मई 2011

लेबर चौक खोड़ा

मुझे नहीं पता कि
देश का सबसे बड़ा
लेबर बाज़ार कहाँ है
लेकिन जब देखता हूं
दिल्ली, नोएडा और गाज़ियाबाद के बीच
नो मैन्स लैंड खोड़ा के चौक पर
हर सुबह
हजारों दिहाड़ी मजदूर
कुछ कुशल
कुछ अकुशल
सब मेहनतकश
आँखों में भर कर आकाश
पीठ पर कुछ अदृश्य जिम्मेदारियां
और ढेर सारे क़र्ज़ ,
लगता है
दुनिया की सबसे तेज़ी से
बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था
खड़ी है खोखली नींव पर
जहाँ मेहनत खड़ी है
बिकने के लिए

किसी की कूची में
भरा है रंग
तो किसी के फावड़े में है
धरती को चीरने का दम
किसी की भुजाओं में है
बल उठाने को
कई कई क्विंटल
जब देखता हूँ
हर सुबह कतार में खड़े
बीडी के कश के साथ
काटते प्रतीक्षा के बेचैन पल
याद आते हैं
सरकार के नारे
गूंजने लगता है
घोषणाओं का झुनझुना
किसी नीति में
नहीं देखा इन्हें शामिल
जिनके लिए
खड़ा नहीं होता कोई 

लेकर किसी भी रंग का झंडा  
आधा दिन होते होते 
आधे हाथ रह जाते हैं
खाली के खाली  
नहीं जलता उनके घरों में चूल्हा उस शाम 
अगले दिन 
किसी भी कीमत पर बिकती है 
खाली हाथें 
संज्ञा शून्य होती हैं उनकी कीमत
किसी भी सूचकांक के बढ़ने या गिरने से
नहीं बढ़ता है उनका भाव 
ऐसे में नो मैन्स लैंड में खड़ा 
यह बाज़ार लगता है 
किसी रेड लाईट एरिया की तरह ही

और सुना है कि
देश के हर शहर में
होता है लेबर चौक

32 टिप्‍पणियां:

  1. हर बार देखता हूँ, हर बार सोचने को मजबूर होता हूँ।

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  2. प्रभावित करती रचना .... विचारणीय और संवेदनशील

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रभावपूर्ण रचना, बेहद संवेदनशील अभिव्यक्ति प्रस्तुति. शुभकामनायें.

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  4. अरुण जी आपकी कलम हमेशा वहाँ चलती है
    जहां ज़िन्दगी छाती पिटती है ....

    आधा दिन होते होते
    आधे हाथ हाथ रह जाते हैं
    खाली के खाली

    हम अपने दर्द का रोना रोने वाले क्या जाने गरीबी का दर्द क्या होता है ....

    १०/१०

    'खाली हाथें' ...?

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  5. याद आते हैं
    सरकार के नारे
    गूंजने लगता है
    घोषणाओं का झुनझुना
    किसी नीति में
    नहीं देखा इन्हें शामिल
    जिनके लिए
    खड़ा नहीं होता कोई
    लेकर किसी भी रंग का झंडा
    जब मस्तिष्क ही बांझ हो ‘उन’ नीति नियंताओं का, तो उन्हें “लेबर पेन” कहां से होगा!

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  6. आर्थिक विषमता भारत में समृद्धि की नई पहचान है। इस कविता में आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता से उत्पन्न वर्गों के आंतरिक संसार के द्वंद्व रेखांकित होते हैं। लैंड खोड़ा में खड़े जो हैं, इस कविता में उन वर्गों के अस्तित्व रक्षा की बेचैनी और असहाय चिंता के विवरण स्पष्ट हैं।

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  7. विकास के नारों और आंकड़ों के बीच,आम आदमी की असलियत।

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  8. shayad hamare ye mehnatkash bhai kabhi bhavishy ki nahi sochte bas aaj kaise roti ka jugad hoga itna hi soch pate hain .bahut sarthak rachna .aabhar

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  9. yathart ko batatihui saarthak aur samvedansheel rachanaa.badhaai aapko.



    please visit my blog and feel free a comment.thanks.

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  10. badhiya rachana jo aaj ki sthiti ke bare men bahut kuch sandesh de rahi hai ...

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  11. बहुत सुन्दर रचना!
    बिम्बों के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है आपने!

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  12. रविवार, २९ मई २०११
    लेबर चौक खोड़ा
    मुझे नहीं पता कि
    देश का सबसे बड़ा
    लेबर बाज़ार कहाँ है
    लेकिन जब देखता हूं
    दिल्ली, नोएडा और गाज़ियाबाद के बीच
    नो मैन्स लैंड खोड़ा के चौक पर
    हर सुबह
    हजारों दिहाड़ी मजदूर
    कुछ कुशल
    कुछ अकुशल
    सब मेहनतकश
    आँखों में भर कर आकाश
    पीठ पर कुछ अदृश्य जिम्मेदारियां
    और ढेर सारे क़र्ज़ ,
    लगता है
    दुनिया की सबसे तेज़ी से
    बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था
    खड़ी है खोखली नींव पर
    जहाँ मेहनत खड़ी है
    बिकने के लिए

    किसी की कूची में
    भरा है रंग
    तो किसी के फावड़े में है
    धरती को चीरने का दम
    किसी की भुजाओं में है
    बल उठाने को
    कई कई क्विंटल
    जब देखता हूँ
    हर सुबह कतार में खड़े
    बीडी के कश के साथ
    काटते प्रतीक्षा के बेचैन पल
    याद आते हैं
    सरकार के नारे
    गूंजने लगता है
    घोषणाओं का झुनझुना
    किसी नीति में
    नहीं देखा इन्हें शामिल
    जिनके लिए
    खड़ा नहीं होता कोई
    लेकर किसी भी रंग का झंडा
    आधा दिन होते होते
    आधे हाथ रह जाते हैं
    खाली के खाली
    नहीं जलता उनके घरों में चूल्हा उस शाम
    अगले दिन
    किसी भी कीमत पर बिकती है
    खाली हाथें
    संज्ञा शून्य होती हैं उनकी कीमत
    किसी भी सूचकांक के बढ़ने या गिरने से
    नहीं बढ़ता है उनका भाव
    ऐसे में नो मैन्स लैंड में खड़ा
    यह बाज़ार लगता है
    किसी रेड लाईट एरिया की तरह ही


    सही कहा अरुण जी…………जब भी दोपहर मे देखा है तो यही दर्द उभर कर आया है मगर हम उसे शब्द नही दे पाते और आपने उसे शब्दों मे बाँध दिया और ये सिर्फ़ आप ही कर सकते हैं क्योंकि आप वहाँ देखते है जहाँ कोई देखना पसन्द नही करता।

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  13. सब मेहनतकश
    आँखों में भर कर आकाश
    पीठ पर कुछ अदृश्य जिम्मेदारियां

    हमेशा से आपकी नज़र उन चीज़ों पर ठहरती है..जिसे लोग अनदेखा कर निकल जाते हैं...
    बहुत ही संवेदनशील रचना

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  14. अरुण जी,

    आपके ब्लॉग पर हमेशा ही कुछ नया मिलता है.....बहुत मार्मिकता के साथ आपने उचित प्रश्न उठाये हैं.....आपकी नवीनता के लिए आपको सलाम |

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  15. खुद पे शर्मिन्दा भी होते है हम

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  16. हाँ ये बाजार हर जगह लगता है और इसी तरह से उनकी मानसिकता को पढ़ने की सामर्थ्य किसी में नहीं है. जिनमें देखने की सामर्थ्य है, जो उनके दर्द को समझ सकते हैं वह उनके लिए कुछ कर नहीं सकते हैं. उनके दर्द को बड़ी शिद्दत से उकेरा है.

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  17. बेहद संवेदनशील आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !...........अरुण जी

    जवाब देंहटाएं
  18. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 31 - 05 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    साप्ताहिक काव्य मंच --- चर्चामंच

    जवाब देंहटाएं
  19. अरुण जी जहाँ सब की सोच आ कर रूकती है
    वहां से आपकी सोच और लिखनी की शुरुआत होती है
    बहुत सच लिखा है अपने ...बहुत खूब

    जवाब देंहटाएं
  20. बहुत सुन्दर व संवेदनशील रचना,शुक्रिया ..

    - विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  21. इस बाजार की मांग और चरित्र साकार.

    जवाब देंहटाएं
  22. कुछ कुशल
    कुछ अकुशल
    सब मेहनतकश
    आँखों में भर कर आकाश
    पीठ पर कुछ अदृश्य जिम्मेदारियां
    और ढेर सारे क़र्ज़ ,
    लगता है
    दुनिया की सबसे तेज़ी से
    बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था
    खड़ी है खोखली नींव पर
    जहाँ मेहनत खड़ी है
    बिकने के लिए

    yun to puri hi rachna prabhvshali hai!
    lekin mkujhe ye panktiyan kuch jyada hi janchi!
    ek shaand dar rchna ke liye aur is nikammi vyavastha par ek karara prahaarkarne ke liye sadhuvaad!

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  23. और सुना है कि
    देश के हर शहर में
    होता है लेबर चौक.......dayneey sathti ka karun varnan.

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  24. मजदूर भारत में मच्छर की तरह मारे जाते हैं.. लेबर यूनियन में भी टॉप के लीडर पैसा खाते हैं और बेचारे मजदूर मारे जाते हैं..
    और अंतिम पंक्तियाँ पूरे पोस्ट को सार्थक कर रही हैं और अपना सन्देश सब तक पहुंचा रही है... पर उपाय क्या है? इसपर भी विचार किया जाना चाहिए...

    सुख-दुःख के साथी पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
    आभार

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  25. इनके नाम से कितनी क्रांतियां हुईं... कितने वाद बने.. कितने झंडे खड़े हुए..लेकिन पसीना रंगहीन होता है,इसलिए इनके लिए झंडे का कोइ रंग नहीं.. सही तुलना की है आपने..मन विचलित हो गया!!

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  26. कविता में प्रभावित करती हैं आपकी भावनाएं . आभार.

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  27. Bahut samvedansheel ... sach hai lebar chounk har jagah hota hai ... lebar bhi hoti hai ... par log unhe yaad nahi rakhte ....

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  28. ऐसे में नो मैन्स लैंड में खड़ा
    यह बाज़ार लगता है
    किसी रेड लाईट एरिया की तरह ही

    अद्भुत पकड़ की कविता ... चलचित्र की तरह

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  29. संज्ञा शून्य होती हैं उनकी कीमत
    किसी भी सूचकांक के बढ़ने या गिरने से
    नहीं बढ़ता है उनका भाव
    ऐसे में नो मैन्स लैंड में खड़ा
    यह बाज़ार लगता है
    किसी रेड लाईट एरिया की तरह ही

    betareen, adbhut kavya , badhai

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