शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

तलवार



जाति भी नहीं पूछता 
नहीं पूछता गली,
मोहल्ले का पता 
आदमी औरत में भी फर्क नहीं करता 
तलवार
एक ही धर्म होता है इसका 
उतार देता है गर्दन धड़ से 
या पेट से खींच लेता है अंतड़ियां बाहर 
बिना किसी भेदभाव के 

इधर भांज रहे हैं हम अब तरह तरह के तलवार, 
एक दूसरे पर 




10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-11-2015) को "ज़िन्दगी दुश्वार लेकिन प्यार कर" (चर्चा अंक-2147) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. गागर में सागर - गहरे भाव लिए समेटे प्रस्तुति

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  3. प्यार और भाईचारा ही इस तलवार की धार को बेअसर कर सकता है.
    सार्थक सन्देश देती कविता.

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