शनिवार, 3 जुलाई 2010

धूल हूँ मैं

धूल हूँ मैं
धूल

खेत में
जब होता हूँ
रंग होता है मेरा
सोने जैसा
सुनहरा
आशा से भरा
मेहनत कशों के माथे का
होता हूँ तिलक
तो किसी मजुरण के माथे की
बिंदी होता हूँ मैं
धूल हूँ मैं

धूल हूँ मैं
फैक्ट्रियों से निकलता हूँ
तो जलाता हूं
लाखों चूल्हे
पकाता हूँ खुशिया
बिखर जाता हूँ
पराग की तरह
किसी के चेहरे पर लिपट कर
जीवन बहुरंग बना देता हूँ
भविष्य का रंग हूँ मैं
धूल हूँ मैं

किसी गाडी के
पहिये से जब उड़ता हूँ
जीवन को गति देता
प्रगति को पंख देता
समय को चुनौती देता
आसमान को छूने का जज्बा लिए
रफ़्तार होता हूँ मैं
धूल हूँ मैं

सूक्ष्म
अदृश्य
आम होते हुए भी
हर जगह मौजूद
बेहद जरुरी हूँ मैं
धूल हूँ मैं

(कविता जारी है )

9 टिप्‍पणियां:

  1. धूल में भी इतनी गति भारी है आपने !रचना सार्थक हों गयी है . बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. सूक्ष्म
    अदृश्य
    आम होते हुए भी
    हर जगह मौजूद
    बेहद जरुरी हूँ मैं
    kitna bhi mujhe hatao per ghar ke kisi kone me rahta hun main

    जवाब देंहटाएं
  3. कहते हैं की धूल हल्की होती है उसका वज़न नहीं होता सो उड़ा करती है यहाँ से वहां तक पर इस धूल में वज़न की कहाँ कमी है हर जगह अपने होने का प्रमाड बखूबी जो दिया है

    जवाब देंहटाएं
  4. किसी गाडी के
    पहिये से जब उड़ता हूँ
    जीवन को गति देता
    प्रगति को पंख देता
    समय को चुनौती देता

    बहुत सटीक रचना...
    JAHAN NA PAHUCHE RAVI WAHAN PAHUCHE KAVI...

    जवाब देंहटाएं