शुक्रवार, 15 मई 2020

महानगर

महानगर 
कोई गांव नहीं हैं
कि उसमें हो 
जानी पहचानी पगडंडियां
जिन पर आप अंधेरे में भी
चल सकते हैं सहजता से। 

महानगर 
कोई गांव नहीं है कि
इसके हर नुक्कड़ पर हो
कोई पुराना पीपल या बरगद
जिसकी छांव के लिए
नहीं चुकाना पड़े किराया या किश्त।

महानगर 
वाकई में गांव नहीं है
जहां सूखे होठों को देख
कोई भी पूछ ले हाल
पिला दे पानी, दे जाए खाना
बैठ जाए दो पल, बांट के सुख दुख। 

महानगर तो इस मामले में
बिल्कुल भी गांव नहीं है कि
यदि किसी आंगन से नहीं उठे धुआं
तो कोई दौड़ा आ जाए लेकर
आग चूल्हे के लिए
किसी के यहां कोई गमी हो जाए
तो पूरा गांव दो सांझ भूखा रहे
जबकि महानगर पटे हैं 
रंग बिरंगे व्यंजनों के लुभाते खबरों से
 लौट रहे हैं महानगरों को बनाने वाले
अपने अपने गांव, भूख और प्यास में डूबे हुए

भूख और प्यास से नहीं पसीजता 
महानगरों की छाती 
क्योंकि वे सचमुच गांव नहीं हैं ।


10 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई दुखद स्थिति है।
    लाकडाउन करने में यदि 4 घंटे का नहीं बल्कि 4 दिन का समय दिया होता तो यह हालत नहीं होती।

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  2. गाँव में इंसान बसते हैं और महानगरों में सीमेंट और कंकरीट से बने ऊँचे ऊँचे मकान , जिनमें रहने वाले सिर्फ पैसा कमाने की मशीन हैं ।

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  3. आर्थिक पहलु ही जिनके लिए सबकुछ हो, वो गाँव कैसे बन जायेंगे !

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  4. आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-३ हेतु नामित की गयी है। )
    'बुधवार' 20 मई २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
    https://loktantrasanvad.blogspot.com/2020/05/blog-post_20.html
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    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  5. सही कहा महानगर गाँव नहीं...
    बहुत सुन्दर... लाजवाब।
    वाह!!!

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  6. गाँव और महानगर का यही अंतर तो हमें गाँव की तरफ खींचता है.

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  7. वाह!बहुत खूब लिखा आपने
    सादर प्रणाम 🙏

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  8. वाह ...सचमुच गाँव नहीं हैं महानगर लेकिन गाँव भी अब वे गाँव नहीं है . वहाँ भी शहर पहुँच रहा है . तन से न सही मन से ही .....अच्छी कविता

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  9. महानगर गाँव नहीं होते | सचमुच भले ग्रामीण संस्कृति - महानगरीय संस्कृति में समाने को आतुर है , पर ग्रामीण संस्कृति अब भी अपनी पहचान आप रखती है | सुंदर रचना जो चिंतन को प्रेरित करती है |

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