गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

मंदिर की सीढिया

अनुत्तरित
प्रश्नों से घिरे
मेरे साथ
जब तुम
चढ़ रही थी
मंदिर की सीढ़िया
लग रहा था
मानो स्वयं
उत्तर हो
तुम


जब
तुम्हारे हाथ
स्पर्श कर रहे थे
मंदिर के दीवारों को
लग रहा था
मुझे
मेरे
सभी अवसादों पर
मरहम लगा रहा हो
कोई


जब
बजा रही थी
तुम
मंदिर की घंटिया
मेरे मन के भीतर
पैदा हो रहा था
नया संगीत

मंदिर की
आरती ले
जब तुमने
रखा
पहले
मेरे सिर पर
अपना हाथ
अचानक
माँ जैसी
लग रही थी
तुम

जब
उतर रहे थे
हम
मंदिर की सीढ़िया
नहीं रहा कोई
प्रश्न
मेरे भीतर

16 टिप्‍पणियां:

  1. वाह्…………अद्भुत्………………………अति सुन्दर भाव्।

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  2. फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  3. मंदिर की
    आरती ले
    जब तुमने
    रखा
    पहले
    मेरे सिर पर
    अपना हाथ
    अचानक
    माँ जैसी
    लग रही थी
    तुम
    kavita mein is khand ki jaroorat nahin hai. kavita achchhi hai,

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  4. मंदिर की सीढिया

    अनुत्तरित
    प्रश्नों से घिरे
    मेरे साथ
    जब तुम
    चढ़ रही थी
    मंदिर की सीढ़िया
    लग रहा था
    मानो स्वयं
    उत्तर हो
    तुम


    जब
    तुम्हारे हाथ
    स्पर्श कर रहे थे
    मंदिर के दीवारों को
    लग रहा था
    मुझे
    मेरे
    सभी अवसादों पर
    मरहम लगा रहा हो
    कोई


    जब
    बजा रही थी
    तुम
    मंदिर की घंटिया
    मेरे मन के भीतर
    पैदा हो रहा था
    नया संगीत

    जब
    उतर रहे थे
    हम
    मंदिर की सीढ़िया
    नहीं रहा कोई
    प्रश्न
    मेरे भीतर
    itni hi asardaar hai.

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  5. जब
    तुम्हारे हाथ
    स्पर्श कर रहे थे
    मंदिर के दीवारों को
    लग रहा था
    मुझे
    मेरे
    सभी अवसादों पर
    मरहम लगा रहा हो
    कोई
    bahut pavitra bhav aur sunder rachna hai...

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  6. कितनी आसानी से अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिल गए,बिना कुछ कहें ही. मानों कुछ भी अनुत्तरित था ही नहीं.यही तो है किसी की सांसों में बस जाने जैसा बहुत जबरदस्त अभिव्यक्ति बड़ी सकारात्मक बात
    आभार

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  7. जवाब बन गई तुम और मंदिर की पवित्रता

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  8. सुन्दर बहुत सुन्दर
    शांतिदायक भी

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  9. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ! बधाइ !

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  10. नहीं दोस्त ,हम आपसे अधिक सार्थक कविता की उम्मीद करते हैं .मंदिर की सीढ़ी पर सवालों के जवाब कभी नहीं मिलते .

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