शुक्रवार, 7 मई 2010

मेरी पहचान से असहज तुम

बहुत
प्रेम करते थे
तुम मुझे

किस दिन
क्या पहन रही हूँ
पता लग जाता था
तुझे

मेरे बिना
चेहरा धूमिल
हो जाया करता था
तुम्हारा

मेरे
ना होने के
एहसास भर से
भरी आँखों से
अपना चेहरा
छुपा लेते थे
मेरी आँचल में

कौन से रंग की शर्ट
फबेगी तुम पर
यह भी
पूछते थे
मुझ से ही

मेरे प्यार में पड़कर
सीखा तुमने
खाना
पानी पूरी
संभार बड़ा
और भी कई
लड़कियों वाले खाने

अपनी बाईक
पार्किंग में लगा
मेरे साथ
घूमते थे तुम
बस में

फिर
बहुत सोच समझ कर
तुमने दिया
शादी का प्रस्ताव

मैंने कहा
'सोच लो
ए़क बार फिर '

तुमने
'हां' कहा था

मैंने कहा
नहीं चाहिए
मुझे कुछ
बस चाहिए
मेरा अपना
नाम

नाम
जो माँ ने दिया
मुझे
है मेरी अपनी
पहचान

बस
नहीं लगा पाऊँगी
तुम्हारा 'उपनाम'

और
व्यथित हो गए
तुम
और
क्षत विक्षत हो गया
तुम्हारा अहम्

तुम्हारे भीतर के
कुंठित 'पुरुष' ने
कर दिया मुझे
अस्वीकार


तुम्ही कहो
कैसे जिया जा सकता है
सम्पूर्ण जीवन
उसके साथ
जो मेरी अपनी पहचान से ही
जो हो जाए
असहज

मेरी
पहचान से
असहज
तुम्हारे ना हो सकने का
अफ़सोस भी नहीं
मुझे

14 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....

    जवाब देंहटाएं
  2. मन की पवित्रता का परिचय देती सुंदर कविता

    जवाब देंहटाएं
  3. Arun jee ,behad sanjeedgi se likhi gai rachna hai.Day-to-day life ke beech se baharaati kavita.aapki rachnadharmita kamal ki hai.

    जवाब देंहटाएं
  4. तुम्ही कहो
    कैसे जिया जा सकता है
    सम्पूर्ण जीवन
    उसके साथ
    जो मेरी अपनी पहचान से ही
    जो हो जाए
    असहज

    Behtareen rachna, mere liye to apki rachnon mai naveen soch ka pehlu sabse akarshak hota hai...

    Kitne sanjeeda muddey ko kitni sehajta aur savedan sheelta se prastut kiya hai...

    जवाब देंहटाएं
  5. मैं तो आपकी बात से सहमत हूँ अच्छा लगा एक नए विषय पर पढ़ कर चलो पुरुष भी इस विषय पर कभी सोचते हैं (अन्यथा न लें ) आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. तुम्ही कहो
    कैसे जिया जा सकता है
    सम्पूर्ण जीवन
    उसके साथ
    जो मेरी अपनी पहचान से ही
    जो हो जाए
    असहज
    ....... sabkuch kah diya , ab aur kya kahna

    जवाब देंहटाएं
  7. आपने कितना सुंदर पुरुष -विमर्श रच दिया !!!!!

    जवाब देंहटाएं
  8. अरुण जी,
    आपकी इस रचना पर मैं अनायास आ गई, और पढ़कर चौंक गई| पुरुष मानसिकता...जो प्रेम तो कर सकता है लेकिन स्त्री का अपना वज़ूद उसे स्वीकार्य नहीं| बहुत अच्छी रचना है मन को छू गये ये शब्द और शायद यही उचित भी था जो इस नारी चरित्र ने किया...
    ''मेरी
    पहचान से
    असहज
    तुम्हारे ना हो सकने का
    अफ़सोस भी नहीं
    मुझे''

    बहुत बधाई और शुभकामनाएं.

    जवाब देंहटाएं