नहीं निरपेक्ष
हम
जात से
पात से
भात से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्मं से
२
नहीं निरपेक्ष
हम
आहार से
व्यवहार से
त्यौहार से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्म से
३
नहीं निरपेक्ष
हम
उत्सव से
उद्भव से
विप्लव से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्म से
४
नहीं निरपेक्ष
हम
प्रार्थना से
साधना से
कामना से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्म से
५.
चलो निरपेक्ष हो जाएँ
धर्म से
उस से पहले
निरपेक्ष हो जाए
जाति
उपजाति
नाम
उपनाम से
लेकिन
ना भूलें
जो है
धारण योग्य
वही बस है
धर्म
सभी वाद विवाद से परे
समस्त वैभव से परे
प्रेम में पगा
प्रेम में बंधा
हम
जात से
पात से
भात से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्मं से
२
नहीं निरपेक्ष
हम
आहार से
व्यवहार से
त्यौहार से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्म से
३
नहीं निरपेक्ष
हम
उत्सव से
उद्भव से
विप्लव से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्म से
४
नहीं निरपेक्ष
हम
प्रार्थना से
साधना से
कामना से
फिर क्यों
निरपेक्ष हम
धर्म से
५.
चलो निरपेक्ष हो जाएँ
धर्म से
उस से पहले
निरपेक्ष हो जाए
जाति
उपजाति
नाम
उपनाम से
लेकिन
ना भूलें
जो है
धारण योग्य
वही बस है
धर्म
सभी वाद विवाद से परे
समस्त वैभव से परे
प्रेम में पगा
प्रेम में बंधा
बस एक बार इंसानियत का बाना ओढ लें तो निरपेक्ष हो जायें…………………बस यही इंसान नही सीख पाया……………बाकी हर बात सीख गया कैसे धर्म विरोधी बना जाये, कैसे खून से खून को लडाया जाये……………एक बहुत ही सशक्त रचना।
जवाब देंहटाएंलेकिन
जवाब देंहटाएंना भूलें
जो है
धारण योग्य
वही बस है
धर्म
इसका भान हो जाये तो झगडा ही समाप्त हो जाए ...बहुत अच्छी प्रस्तुति
अरुण भाई आपकी कविता एक बार फिर संवदेनशील विषय पर है। पर आपका जो मंतव्य है वह मैं समझ रहा हूं पर यहां कविता में वह उलझ रहा है। सब विचारवान लोग धर्म निरपेक्षता के पक्षधर हैं,उसका गहरा अर्थ है। हमें जो धर्म अच्छा लगता है वह हम अपनाएं लेकिन औरों के धर्म के प्रति भी सद्भाव रखें। आपकी कविता आज के सवाल को सुलझा नहीं रही है उलझा रही है।
जवाब देंहटाएंधारण योग्य
जवाब देंहटाएंवही बस है
धर्म
सभी वाद विवाद से परे
समस्त वैभव से परे
प्रेम में पगा
प्रेम में बंधा
ऐसा लगता है जिस दिन इन्सान ये स्वीकार कर लेगा उस दिन शायद वो इन्सान ही न रहे इसी डर से शायद वो इसे स्वीकार नहीं करना चाहता
चलो निरपेक्ष हो जाएँ
जवाब देंहटाएंधर्म से
उस से पहले
निरपेक्ष हो जाए
जाति
उपजाति
नाम
उपनाम से
लेकिन
ना भूलें
जो है
धारण योग्य
वही बस है
धर्म
बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश है आपकी रचना मे। धन्यवाद।
निरपेक्ष हो जाए
जवाब देंहटाएंजाति
उपजाति
नाम
उपनाम से
अरुण जी, बहुत समयोचित रचना है। हमने तो जीवन का यही लक्ष्य बना लिया है। इसलिए मेरे और मेरे बच्चों के नाम से जाति बोधक उपनाम हटा दिया। .... और ईश्वर से रोज़ प्रर्थना करता हूं,
बस मौला ज्यादा नहीं, कर इतनी औकात,
सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात
बहुत उम्दा रचना है!
जवाब देंहटाएं--
तुष्टिकरण के लिए हमारे आकाओं ने यह नाम दिया है!
--
प्रजातन्त्र का यह नकारात्मक पहलू है!
मुश्किल ये है की दुनिया फ़िल्मी sytle से ज्यादा चलती है .. विवेक से ज्यादा अभिताभ की फैन है .. जाओ पहले उस आदमी का sign ले कर आओ.. उसके बाद ही मैं sign करूंगा ... !
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना, लिखते रहिये ...
बहुत ही खुब कहा……। आभार
जवाब देंहटाएंचलो निरपेक्ष हो जाएँ
मान से अभिमान से
क्रोध से कषाय से
ईष्या और द्वेष से
मोह से माया से
उत्साही जी -आपकी कविता की पाकशाला में जो नुस्खे हैं , उसका अरुण सरीखे नौसिखिए रसोईये पालन नहीं कर पा रहे हैं .
जवाब देंहटाएंलेकिन इससे क्या ,आप पूरी निष्ठा से घर की सास जैसा टोका-टाकी का काम तो करते ही रहें .
वैसे भी किसी महान साहित्यकार ने कहा था कि आप कविता लिखते ही क्यों हैं ,अपनी बात को ऐसे ही क्यों नहीं कह देते .
यदि अरुण की समझ में यह बात आ जाये तो कविता के उलझने -सुलझने का संकट ही मिट जायेगा.
सदभावना सहित
निर्मल गुप्त
bahut sunder sahee disha dikhate vichar .
जवाब देंहटाएंsarahneey.
Aabhar
ना भूलें
जवाब देंहटाएंजो है
धारण योग्य
वही बस है
धर्म
सभी वाद विवाद से परे
समस्त वैभव से परे ...samsaamyik rachna..ek sarthak sandesh jiski aaj sabse jyada jarurat hai manavta ko bachane ke liye....
समभाव की जगह विद्वेष को निरपेक्षता समझ लिया गया है. अब क्या कहें?
जवाब देंहटाएंजो है
जवाब देंहटाएंधारण योग्य
वही बस है
धर्म
धर्म को परिभाषित करने की आवश्यकता है ही. पर परिभाषित करने वाले अपने अनुसार कर रहे हैं.
काश! लोग संदेश समझ पाते...सार्थक रचना.
जवाब देंहटाएंArun ji
जवाब देंहटाएंbahoot hi sarthak pahal ki hai....kas aaisa hi ho.
मै धर्म निरपेक्ष नही . पुत्र होने के नाते मेरा धर्म है पिता की सेवा और पिता होने के नाते मेरा धर्म है अपनी सन्तान का पालन पोषण करना अगर मै धर्म निरपेक्ष हो गया तो ...........
जवाब देंहटाएंअरुण जी, अभिभूत हूँ आपकी पंक्तियों से और उससे भी अधिक उसके अंतस में छिपे भाव से.. आज बस भाई मनोज जी के मेल पर उनके हस्ताक्षर स्वरूप अंकित दोहा उधार ले रहा हूँ. क्षमा माँग लूँगा, बड़ा हूँ उनसे, इतना तो हक़ है!!
जवाब देंहटाएंबस मौला ज्यादा नहीं, कर इतनी औकात,
सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात
एक दमदार प्रस्तुति। जब अन्य उपाधियों से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं तो यह कड़ी बीच में कैसे तोड़ दी जाये।
जवाब देंहटाएंनिर्मल जी,
जवाब देंहटाएंमैं कोशिश करता रहा हूं कि आपके प्रति निरपेक्ष रहूं। पर आप चाहते नहीं हैं। मुझे समझ नहीं आता कि जब मैं अपना धर्म निभा रहा हूं तो आपको उसमें टांग अड़ाने की जरूरत क्यों पड़ती है। आप उससे निरपेक्ष क्यों नहीं रह पाते। अरुण जी संभवत: आपके बहुत अच्छे मित्र हैं। जरा कभी उनसे ही पूछ लीजिए कि ये उत्साही जी को आपने इतना सिर पर क्यों चढ़ा रखा है,जो आपकी हर कविता में सास की तरह मीन मेख करने आ जाते हैं।
निर्मल जी मैं तो अरुण जी का जितना नुकसान कर रहा हूं वह सबको दिख रहा है। लेकिन आप उनका कहीं ज्यादा नुकसान कर रहे हैं,झूठी और दिखावटी तारीफ करके।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है!
जवाब देंहटाएंमध्यकालीन भारत धार्मिक सहनशीलता का काल, मनोज कुमार,द्वारा राजभाषा पर पधारें
सच कहा है ... धर्म को जीवन से जुड़ा करके देखना व्यर्थ है .... हमें धर्म सापेक्ष होना चाहिए ....
जवाब देंहटाएं