अलसाई सुबह
नरम धूप
मोटा सा अखबार
ख़बरों पर चाय
और
इन सब के बीच
तुम्हारी हंसी
खनकती
चाय के प्याले में,
फुसफुसाती
अखबार के पन्नो में ,
गुनगुनाती
धूप के साथ
रविवार का होना
इस तरह
ए़क अनुभव है
तुम्हें जीने का
हर हफ्ते ।
नरम धूप
मोटा सा अखबार
ख़बरों पर चाय
और
इन सब के बीच
तुम्हारी हंसी
खनकती
चाय के प्याले में,
फुसफुसाती
अखबार के पन्नो में ,
गुनगुनाती
धूप के साथ
रविवार का होना
इस तरह
ए़क अनुभव है
तुम्हें जीने का
हर हफ्ते ।
gungunati dhup me ravivar ka hona, ek jaandaar anubhav na.......:)
जवाब देंहटाएंkya kabiletarif soch hai aapki.......ameen!!
इस तरह
जवाब देंहटाएंए़क अनुभव है
तुम्हें जीने का
हर हफ्ते ..
बहुत खूब ... प्रेम का मधुर एहसास जग्मत्ाता रहता है आपकी लाइनों में ...
अरुण जी, आपका अनुभव आपकी अभिव्यक्ति में प्रकट होकर यह बता रहा है कि किसी आनंद का अनुभव इतना सुखद नहीं होता, जितना उसका स्मरण।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
शैशव, “मनोज” पर, आचार्य परशुराम राय की कविता पढिए!
waah..arun ji ..fursat ke ye rukh romani laga :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंअलसाई सुबह
जवाब देंहटाएंकी नरम धूप
में मोटे से अखबार की खबरों
के साथ गर्म चाय
और
इनके बीच
चाय के प्याले में खनकती
तुम्हारी हंसी
फुसफुसाती
अखबार के शब्दों में ,
गुनगुनाती
किरणों के संग
ऐसे रविवार
का आना इस तरह
जैसे सदियों के बाद कोई
कोई फूल खिला हो।
(अरुण जी क्षमा सहित)
बहुत खूबसूरत एहसास .... सुन्दर अभिव्यक्ति ...कहने को बहुत कुछ पर मौन ही बेहतर है :)
जवाब देंहटाएंउत्साही जी
जवाब देंहटाएंआप कविता कैसे लिखी जाये ,इस पर एक स्कूल क्यों नहीं खोल लेते .इस बार आपने जो संपादन किया है ,उसे देखने के बाद मेरी नम्र राय यही है .
आज के ब्यस्त जीबन में आदमी को खुद से मिलने के लिए रबिबार का इंतज़ार करना पड़ता है... मगर आज आपका कबिता पढने के बाद लगा कि हमलोग स्वार्थी हैं… इतवार को इन सबके बीच जीना उसको जीना भी तो है जो सायद पूरा हफ्ता इस एक दिन के लिए पलकों में गुजर दएता है..कोई उर्मिला के तरह!!
जवाब देंहटाएंनिर्मल जी सुझाव के लिए शुक्रिया। कोशिश तो यही कर रहा हूं। अब आपने घोषणा कर ही दी है तो कुछ विद्यार्थी भी आ जाएंगे,उम्मीद करता हूं।
जवाब देंहटाएंइस तरह
जवाब देंहटाएंए़क अनुभव है
तुम्हें जीने का
हर हफ्ते ..
आज के समय में चलो कोई तो है जो खुले आम मक्खन लगा रहा है और स्वीकार भी कर रहा है फिर चाहें जलने वाले जला करें
prem ki sundar abhivyakti, shubhkaamnaayen.
जवाब देंहटाएंराजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमैं दुनिया की सब भाषाओं की इज़्ज़त करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिन्दी की इज़्ज़त न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे
भारतेंदु और द्विवेदी ने हिन्दी की जड़ें पताल तक पहुँचा दी हैं। उन्हें उखाड़ने का दुस्साहस निश्चय ही भूकंप समान होगा। - शिवपूजन सहाय
हिंदी और अर्थव्यवस्था-2, राजभाषा हिन्दी पर अरुण राय की प्रस्तुति, पधारें
प्रेम का प्रगटीकरण होना चाहिये फिर चाहे जैसे भी किया जाये ………………वैसे हर लम्हे को जीना इसे ही कहते हैं………………प्रेम की खूबसूरत अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंravivar ke nam se kisi ki sukhad upasthiti ko jeena ravivar manae ka behtarin tareeka.....
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