शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

संज्ञा की परिभाषा

बेटे ने कहा
पापा
संज्ञा
की परिभाषा है
'किसी
वस्तु या
स्थान के नाम को
कहते हैं
संज्ञा '
क्योंकि
आपके लिए
व्यक्ति भी
ए़क वस्तु ही है
और
कहते हैं आप
आज के समय में
भाव का
जीवन में
नहीं है
कोई स्थान

निरुत्तर मैं !

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

मंदिर की सीढिया

अनुत्तरित
प्रश्नों से घिरे
मेरे साथ
जब तुम
चढ़ रही थी
मंदिर की सीढ़िया
लग रहा था
मानो स्वयं
उत्तर हो
तुम


जब
तुम्हारे हाथ
स्पर्श कर रहे थे
मंदिर के दीवारों को
लग रहा था
मुझे
मेरे
सभी अवसादों पर
मरहम लगा रहा हो
कोई


जब
बजा रही थी
तुम
मंदिर की घंटिया
मेरे मन के भीतर
पैदा हो रहा था
नया संगीत

मंदिर की
आरती ले
जब तुमने
रखा
पहले
मेरे सिर पर
अपना हाथ
अचानक
माँ जैसी
लग रही थी
तुम

जब
उतर रहे थे
हम
मंदिर की सीढ़िया
नहीं रहा कोई
प्रश्न
मेरे भीतर

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

पर्स में रखी तुम्हारी तस्वीर

जब
थक जाती हैं
बाहें
खुद से दुगुना वजन
उठाते उठाते
और कंधे
मना कर देते हैं
देने को संबल
लेकिन फिर भी
जलते सूरज के नीचे
पूरी करनी होती है
दिहाड़ी ,
देख लेता हूँ
पर्स में रखी तुम्हारी
तुम्हारी तस्वीर


जब
भरी दुपहरी में
कंक्रीट के अजनबी शहर में
थक जाते हैं कदम
ढूंढते ढूंढते
नया पता
लेकिन
पहुचना जरुरी होता है
उस अधूरे पते पर,
देख लेता हूँ
पर्स में रखी
तुम्हारी तस्वीर



जब
थका हारा
तन सोना चाहता है
लेकिन
मन
रहना चाहता है
स्मृतियों में
जगे रहना
तुम्हारे साथ,
देख लेता हूँ
पर्स में रखी

तुम्हारी तस्वीर


तुम्हारी तस्वीर
के साथ होती है
तुम्हारी हंसी,
साथ देखे सपने,
और जरी वाली साड़ी
जो तुमने लाने को कहा था
छोड़ते समय गाँव

पर्स में रखी
तुम्हारी तस्वीर
है मेरी उर्जा
और इस अजनबी शहर में
अंतिम ठौर


बस
तुम्हारी तस्वीर
समझती है
अपनों के बीच दूरी
और
दर्द विस्थापन का

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

प्रतिस्पर्धा


नहीं चाहिए
मुझे
तुम्हारे हिस्से की
धूप
हवा
पानी
नहीं है
मेरे लिए कोई
प्रतिस्पर्धा


नहीं चाहिए
मुझे
आकाश
चाँद
सितारे
और आकाश गंगाए
नहीं है
मेरे लिए कोई
प्रतिस्पर्धा


नहीं पहुचना
मुझे
क्षितिज
तक
नहीं है
मेरे लिए कोई
प्रतिस्पर्धा


मुझे
देनी है तुम्हे
जरुरत भर
धरती
और
इसके लिए
प्रतिस्पर्धा है
मेरी
स्वयं से


शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

प्रेम का महाकाव्य

मन की स्लेट

पर

अंकित कर दूं

प्रेम का

महाकाव्य ।

सांसो के छंद

से करू

अनुराग ।

मुक्त है आज ज्यो आकाश

त्यों है प्रेम का इतिहास

मिल रहे हैं

जैसे क्षितिज

तेरा मेरा सान्निध्य ।

गीत तुम

कविता तुम

तुम ही सब

अलंकार

प्रेरणा सृजन

की तुम

भाव से करू अभिसार ।

मुरली तुम

वीणा तुम

तुम समय की सितार

वादक निपुण

नहीं मैं

कैसे करू

सुर श्रृंगार ।

ह्रदय के दीप में

सांसो की बाती है

तिल तिल जलूं

तेरे लिए

यही मेरी थाती है ।

स्मृतियों में जब

कभी

मेरा हो स्मरण

दामिनी सी इक

हंसी

करना मुझको

भी समर्पण ।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

पूरी दुनिया हो तुम

ठीक है
दुनिया
के लिए
कुछ नहीं
तुम

लेकिन
किसी के लिए
पूरी दुनिया हो।

तुम्हारे
इर्द-गिर्द
धूमती है
मेरी सुबह
और
दोपहर
तुम्हारे आँचल की छाव में
विश्राम करता है

शाम को
मेरे थके हारे सूरज को
मिलता है
तेरी बाहों का ठाव

चाँद
तेरे पहलू में ही
बिताता है अपनी रात
बदलते करवटों के साथ
करता है
ए़क नई सुबह का
इन्तजार ।


इस सुबह
दोपहर
शाम और
रात के बीच भी
होते हैं
कई पहर
जहाँ
तुम
रहती हो
मौजूद
मेरे लिए .

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

तुम्हारा होना

तुम्हारा होना
यज्ञ है
जब
गुंजित होती है
ऋचाएं
वातावरण में
परिवेश में
और स्पंदित होता है
मन
नवीनताओं से
आशाओ से

तुम्हारा होना
उत्सव है
जब मन
भरा होता है
रंगों से
उमंगों से
और
चारो दिशाओं में
बिखरी होती है
खुशियों की पंखुरिया


जीवन के लिए
कितने आवश्यक होते हैं
यज्ञ
उत्सव
और इन सब बढ़कर
तुम।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

पश्चाताप

आदम
और इव ने
की थी
नए सृजन के लिए
ए़क गलती

सदिया
गुजर गई
और
आदम
आज भी
जल रहा है
पश्चाताप की अग्नि में
अकेला
अपनी पहली
और
पहली गलती की
आवृती पर ।

हे आदम !
आज
तुम अकेले नहीं
मैं
खड़ा हूँ
तुम्हारे साथ
पश्चाताप की
अग्नि में
जलते हुए
और महसूस कर रहा हूँ
तुम्हारी
सहश्र सदियों की
पीड़ा

लेकिन
क्या
अगली बार
नए सृजन से
पीछे हट पाओगे
आदम...

क्योंकि
सृजन
तुम्हारा उत्तरदायित्व है
और पश्चाताप
तुम्हारी नियति !

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

समय के साथ


कम हो रहे हैं
खेत और खलिहान
बढ़ रही हैं
अट्टालिकाए
ए़क से बड़े ए़क
ए़क से ऊँचे ए़क
और सब के सब
प्रकृते के गोद में
पर्यावरण अनुकूल
हरे भरे खुले वातावरण में
होने के दावे के साथ...



चौड़ी हो रही हैं
सड़के
और अतिक्रमण
के शिकार हो रहे हैं
हवा
पानी और
धूप
अपने हिस्से की
जिंदगी नहीं
जी पा रहे हैं
वृक्ष


ख़रीदे
जा रहे हैं
खेत
बस रहे हैं
खाली शहर
बिक रहे हैं
स्वाभिमान
अस्मिता
और भविष्य


नए नए
समझौतो और
ज्ञापनो पर
हो रहे हैं
हस्ताक्षर
बंद कमरों में
बदले जा रहे हैं
भूगोल
और सौदा
हो रहा है
धरती के गर्भ का
विस्थापित
हो रही हैं
नदिया
जंगल
और
तथाकथित
जंगली जन

समय के साथ
कम हो रहे हैं
ख़त्म हो रहे हैं
विलुप्त हो रहे हैं
आप
हम
हमलोग


बुधवार, 14 अप्रैल 2010

निकटता

तेरे बिन
ए़क पल
काटने में
लग गए
कई प्रकाश वर्ष

क्यों
पैदा होती है
निकटता से इतनी
दूरी

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

शहर का इतिहास

जब भी
लिखा जाएगा
शहर का इतिहास
रखे जायेंगे
हाशिये के पार
कुछ लोग।

खातों में होंगे
दर्ज
कुछ खर्च
नहीं दर्ज होगा
असमय गिरे गर्भ
ईटो के बोझ तले
और
कोई हिसाब नहीं होगा
चट्टानों के बोझ के नीचे
उपजे बावासीरों का

प्राचीरों की नीव में
द्फ्ने
सपनो
हंसी
पसीनो का
कोई हिसाब
नहीं होगा
हां
हिसाब होगा
सीमेंट की बोरियों का।

और
किये जायेंगे
बही खाते
नहीं सुनी जायेगी
चौकीदार की फ़रियाद
जो पत्नी को ना ले जा पाया
समय पर हॉस्पिटल
और रास्ते में ही
दम तोड़ दी थी वह
पहले बच्चे को जन्म देते हुए।



जब भी
लिखा जाएगा
शहर का इतिहास
रखे जायेंगे
हाशिये के पार

कुछ लोग।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

कविता

कविता
मात्र शब्दों का विम्ब नहीं

यथार्थ के धरातल पर
उछली गई वह गेंद है
जो बार बार टकरा कर
प्रश्नों से
बिखरी हुई है चारो ओर

कविता
पूछती है
अर्थ
आदमी के आदमी होने का
और तमतमाए चेहरे से
भयभीत नहीं है यह

तुम्हारा भ्रम है कि
कविता गोसिप है
या टूटे दिलो के अवसादों पर
चढ़ाई जाने वाली लेप है यह।

मना कि
कविता क्रांति नहीं है
लेकिन तैयार करती है
क्रांति के लिए
उपयुक्त और पर्याप्त जमीन
और बोली है यह
भविष्य की जो
तुम्हे दिख नहीं रही

कविता
किसी बाला के उलझे बालो को
सुलझाने वाली गीत भी नहीं है
या उसकी गहरी नीली आँखों के रास्ते
दिल तक उतरने का साधन भी नहीं

कविता
कर्ण की वोह मंत्र शक्ति है
जो भूलता जा रहा है वह
परुशराम के शाप से
ए़क और महाभारत के युद्ध में

कविता
तुम्हारी धमनियों में
मूल्यों को प्रवाहित करने का
एकमात्र अस्त्र है
जिसके आभाव में
चेहरों पर
उग आयी है कई कई परते
और उगते आ रहे हैं
आँखों में लम्बे लम्बे नाखून

कविता
बड़े बड़े सभागारों में
चाय काफी की चुस्कियों के साथ
बहस का विषय भी नहीं है
या फिर
किसी पीली पत्रिका में
पूरी रंगीनियत के साथ
खुदे कुछ शब्द।

इन सबसे ऊपर
कविता वह फर्क है
जिससे तुम्हारी नजरे
नहीं ढूंढ पा रही
जैसे
मिटटी
पानी
हवा
रंग
आग
आकाश
मैं
माँ
तुम
और तुम भी

कविता की
यह अबाध सीमा है
फिर भी
कैद नहीं है
कविता

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

खाली हाथ

तमाम
उम्र
ताल तलैयों
नदी झरनों
सड़क फेक्टरियों
रिश्तो नातो
से गुजर
खाली हाथ
जो लौटा घर
विज्ञान ने कहा
दूरी (distance)
तो तुमने
बहुत तय कर ली
लेकिन
विस्थापन (displacement)
शून्य है तुम्हारा...

मुझे भी लग रहा
शायद
यही है
जिंदगी
खाली हाथ
कुछ भी नहीं।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

क्लोरोफिल

मेरे जीवन में
जो कुछ भी हरा है
वो तुम्हारे कारण से है
और
मुझ पर
पड़ने वाले तमाम
सूर्य किरणों को सोख
तुम बना देती हो
उन्हें उर्जा का श्रोत

जीवन को
उष्मित
पोषित
करती हो तुम
स्वयं को
अनगिनत रासायनिक
और भौतिक चक्रों से गुजर कर ।

अपने भीतर के
दर्द को
छुपा
दिखती हो हरा
सुनेहरा हरा
जो आँखों को
बेहद प्रिय लगते हैं
लेकिन
उस हरेपन के पीछे की
कालिमा को
कहाँ महसूस कर सका हूँ मैं ।

क्या
इतना काफी है कहना
कि
तुम हो
मेरे जीवन की
क्लोरोफिल !