रविवार, 14 नवंबर 2010

डरता हूँ मेरे बच्चे

अभिनव और आयुष जिन्हें यह कविता समर्पित है. 










कार्टून चैनलों के 
काल्पनिक पात्रों 
और चरित्रों में 
जब तुम्हारी 
डूबी आँखों को देखता हूँ
भविष्य का रंग
मुझे काला दिखने लगता है 
डांट नहीं पाता मैं
अपने पिता की तरह
क्योंकि स्वयं को 
कमजोर पाता हूँ मैं . 

तुम्हारे यूनिट टेस्ट के
सामान्य ज्ञान विषय के 
प्रश्न पत्र में जब देखता हूँ 
कुछ कारों के मॉडल,
टी वी  चैनलों के लोगो 
या फिर कार्टून के चित्र 
जिन्हें पहचानना होता है तुम्हे 
नाम लिखना होता है उनका 
मैं खुद हल नहीं कर पाता 
यह प्रश्न पत्र 
असफल पाता हूँ स्वयं को 
हताश हो जाता हूँ मैं . 

जब चाहता हूँ
लिखो तुम एक निबंध 
गाय पर
दिवाली पर
होली पर
नेहरु जी पर
गाँधी जयंती पर
बाढ़ की विभीषिका पर
या फिर किसी यात्रा वृत्तांत पर
तुम्हे तैयारी करनी होती है
डांस प्रतियोगिता की 
या फिर स्केटिंग  की
बदलते परिवेश में 
तुम्हारे बदलते तेवर को देख
खुश होते हुए भी
खुश नहीं हो पाता मैं 

तुम्हारी ख़राब होती 
लिखावट को देख 
चाहता हूँ थोड़ी और मेहनत करो तुम 
अपने हैण्ड राइटिंग पर 
तुम्हारी दलील कि आगे सब कुछ 
लिखा जाना है कंप्यूटर पर 
हार जाता हूं मैं लेकिन
ख़ुशी नहीं होती तुम्हारी जीत पर भी 

जब तुम 
सो रहे होते हो
तुम्हारे चेहरे पर
मंद मुस्कान तिरती रहती है
देवदूत से लगते हो तुम 
जिन्हें देख 
रोता हूँ 
हँसता हूँ
एक अदृश्य भय से 
डरता हूँ मेरे बच्चे 
और तुम्हे गले लगा 
सो जाता हूँ मैं भी 
ना जाने कब तुम कहने लगो
'पापा अलग कमरा चाहिए मुझे भी !'

24 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।
    बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.....

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  2. ye sab rachna vatvriksh me honi chahiye, taki kai logon tak aise kshubdh vichaar pahunchen....... bahut spasht soch hai - ek aahat soch !

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  3. अरुण जी,
    दो पीढ़ियों के बीच के परिणामी अंतर से उपजनेवाले सरोकारों और भय का सुंदर चित्रण. लेकिन यह एक सतत प्रक्रिया है जिससे कोई भी पीढ़ी अछूती नहीं रह पायेगी.

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  4. मेरे मन के भावों को बड़ी सरलता से उकेर दिया। पढ़कर लगा कि मैंने ही लिखी है, अपनी क्षमता से परे।

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति ..आज के समय शायद हर बढते बच्चे के पिता का दर्द ...

    मुझे काला दिखने लगता है
    डांट नहीं पता मैं

    इसमें पता को पाता कर लें

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  6. यही ज़िन्दगी है …………कल आज और कल मे फ़ेर मे सिमटी हुयी मगर कहीं रुकती नही हमेशा चलती रहती है…………वक्त अपने निशाँ छोडता ही है फिर कैसा डर? वक्त की जरूरतें बदलती रहती हैं और उसी हिसाब से सोच भी और इंसान भी।
    बाल दिवस की शुभकामनायें.
    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (15/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  7. एक अदृश्य भय से
    डरता हूँ मेरे बच्चे
    और तुम्हे गले लगा
    सो जाता हूँ मैं भी
    ना जाने कब तुम कहने लगो
    'पापा अलग कमरा चाहिए मुझे भी !'
    दिल को छू गयी ये पँक्तियाँ। सही मे बहुत कुछ बदल गया है। आने वाले समय से डर लगना ज़ायज़ है। बाल दिवस पर शुभकामनायें।

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  8. बहुत गहरी बातें कह गए आप. आज के हर माँ बाप कि यही परेशानी है. आज के हालात का सही आंकलन.

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  9. बाल दिवस पर व्‍यक्‍त एक पिता का सरोकार। बच्‍चा कब एकाएक बड़ा हो जाये, काश उससे पहले बड़ा हो जाये।

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  10. Thanx for writing about... my children.

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  11. 8/10

    बहुत ह्रदयस्पर्शीय कविता
    बदलते दौर का यह अदृश्य भय एक सच्चाई है.

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  12. bahut hi achchi rachna. aaj ke parivesh ko darshati hui! ek maa-baap ke dar ka sahi chitran!

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  13. एक अदृश्य भय से
    डरता हूँ मेरे बच्चे
    और तुम्हे गले लगा
    सो जाता हूँ मैं भी
    ना जाने कब तुम कहने लगो
    'पापा अलग कमरा चाहिए मुझे भी !'
    बिल्कुल सही मनोभाव........ यह डर शायद हर पिता के मन में होता है.....मन को छू गयी आपकी रचना .....

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  14. badalte hue samay ka prabhav har kisi par pada hai ...bachhe bhi achhoote nahi hain isse..aapka dar lazmi hai .... samvedna ko jhakjhorti hui nazm hai ...bahut pasand aayi

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  15. समय के साथ बच्चे, उनकी जरूरतें और अभिभावक सब बदलते हैं , जरुरी है खुद इसके लिए तैयार रहना..
    अच्छी कविता ...

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  16. वाह...वाह...वाह...अद्भुत रचना कही है आपने...इस कड़वी सच्चाई से आप ही नहीं आज के दौर का हर पिता आतंकित है...आज के बच्चे कार्टून में उनकी माएं सास बहु में और पिता क्रिकेट में डूबे हुए हैं...ये डर तो स्वाभाविक है...केवल इस में एक ही बात की सांत्वना है वो ये के आप अकेले नहीं हैं...
    शब्द और भाव दोनों विलक्षण प्रस्तुत किये हैं आपने...मेरी बधाई स्वीकार करें.

    नीरज

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  17. आधुनिक परिवेश पर आधारित सत्य को उजागर करती बहुत भाव पूर्ण रचना |बधाई
    आशा

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