सूरज जब तक
चूमता है चौखट
माँ बुहार लेती है
आँगन ओसारा
ले लेती हैं बलैयां
दे देती है दुआएं
चूल्हा धुआंने लगता है
और खिलखिलाने लगती है ख़ुशी
माँ के चेहरे की तमाम झुर्रियों के बीच
जब सूरज चढ़ता है
दोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथ
होता है जब
सूरज जाने को
चौखट पर
रख देती है माँ
एक ढिबरी
कहती है
सूरज की मोहताज नहीं रौशनी
माँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की रौशनी में
भाई राजेश उत्साही जी के सलाह पर इस पद को कविता से अलग कर रहा हूँ...
"जब चौखट से लग कर खड़ी हो
प्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे."
चूमता है चौखट
माँ बुहार लेती है
आँगन ओसारा
ले लेती हैं बलैयां
दे देती है दुआएं
चूल्हा धुआंने लगता है
और खिलखिलाने लगती है ख़ुशी
माँ के चेहरे की तमाम झुर्रियों के बीच
जब सूरज चढ़ता है
दोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथ
होता है जब
सूरज जाने को
चौखट पर
रख देती है माँ
एक ढिबरी
कहती है
सूरज की मोहताज नहीं रौशनी
माँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की रौशनी में
भाई राजेश उत्साही जी के सलाह पर इस पद को कविता से अलग कर रहा हूँ...
"जब चौखट से लग कर खड़ी हो
प्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे."
यही तो औरत की मर्यादा रेखा है जिसे वो लांघ नही पाती शायद तभी इंसानी वजूद मे जीवन्त रहती है खुदा की तरह्………………बहुत सुन्दर भाव संयोजन्।
जवाब देंहटाएंअरुण बाबू! आज आपने मेरी माता जी का शब्दचित्र खींच दिया. अतः इस कविता पर कुछ भी प्रतिक्रिया करके मैं इसकी पवित्रता और ममता को छोटा नहीं करना चाहता. दहलीज पर ढिबरी की तरह स्थित माँ का चित्र सीएफएल के ज़माने के लोग समझ पाएँगे!!
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत शब्दचित्र ! बधाई
जवाब देंहटाएंजब चौखट से लग कर खड़ी हो
जवाब देंहटाएंप्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे.
यही तो हमारी संस्कृति है सुंदर अतिसुन्दर
जीवन के बहुत उजले पक्ष के रूप में अपनी हाज़री देने वाली मान जैसे किरदार के पीछे के अँधेरे में धंसे जीवन की सच्चाई को उकेरने का पूरा प्रयास किया अरुण बाबू ने. इस कविता में भले ही कोई बड़ा व्यंग्य नहीं लिखा गया मगर फिर भी एक सादगी भरे लहेजे में अरुण जी ने देहरी तक रहते हुए घर को पूरा बनाए रखने में अपनी साँसों को आख़िरी दम तक ले जाने की हिम्मत रखने वाली माँ बहुत याद आती है. ख़ास तौर पर जब माँ को छोड़ हम परदेश में किराए के मकान में धरे पड़े होते हैं
जवाब देंहटाएंमर्यादा को बहुत मर्यादित रूप में कहा है ...अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंचौखट पर खड़े होकर प्रतिकार, सन्तुलन।
जवाब देंहटाएंकहती है
जवाब देंहटाएंसूरज की मोहताज नहीं रौशनी
माँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की रौशनी में
Kitne sundar bhaav sanjoye hain!Pooree rachana behad khoobsoorat hai....apni maa aur Dadi,dono yaad aa gayeen!!
बहुत सुन्दर लिखा है रचना बेहद सुन्दर है .. पुराने ज़माने सा माहोल बना दिया आपने एक दम जीवंत ..
जवाब देंहटाएंजब चौखट से लग कर खड़ी हो
जवाब देंहटाएंप्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे.
अरूण भाई पहली बात तो इस कविता में इन पंक्तियों की जरूरत ही नहीं है। मेरे हिसाब से ऊपर की कविता से इन पंक्तियों का कोई संबंध नहीं है। और अगर आप संबंध देखते हैं तो वह इस कविता को कमजोर बनाता है।
दूसरी बात इन पंक्तियों में आप मां के प्रतिकार का जिक्र करते हैं। लेकिन जिस तरह से उसके आगे की पंक्तियां आती हैं वह फिर उसे कमजोर बना देती है। और टिप्पणीकार भी उस बात को पकड़कर वाही वाही करने लगते हैं। कविता ऐसी होनी चाहिए कि उसका गलत अर्थ नहीं निकाला जा सके।
आखिरी का पद आप हटा दें तो यह कविता आपकी चुंनिदा बेहतरीन कविताओं में शुमार हो जाती है।
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूबसूरती से माँ के प्रतिकार को उल्लेखित कर दिया.
जवाब देंहटाएंअरुण जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरे भाव है....माँ तो होती ही है सभी गुणों का खजाना . बहुत सुंदर प्रस्तुति .
तकाजा,यादें,संस्कृति और विकृति
जवाब देंहटाएंअच्छी कही, जितनी कहीं
विचारों की नदी खूब बही। गोवा में हिन्दी ब्लॉगर मिलन संपन्न, रोहतक में रविवार को
जब सूरज चढ़ता है
जवाब देंहटाएंदोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथ
.....
Lovely creation !
.
हिलते बांस के पत्तों के साथ ...
जवाब देंहटाएंबहुत सी स्मृतियां जुड़ी है।
पुरानी यादों को समेटती, माँ के दुलार और समर्पण को सहेजती एक बेमिसाल प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दरता से व्यक्त किया है...बेहद उम्दा!
जवाब देंहटाएंशाहिद मिर्जा शाहिद जी ने ईमेल से कहा:
जवाब देंहटाएं"आदरणीय अरूण जी,
आपकी नई रचना बहुत अच्छी है...
जिसके संबंध में
राजेश जी का कमेंट हमने भी देखा है.
जो मामूली सी समझ हमें है, उसके मुताबिक..
पैरा हटाने में शायद जल्दबाज़ी की गई है
दरअसल इसमें बस इतना संशोधन हो सकता है कि ....
"जब चौखट से लग कर खड़ी हो
प्रतिकार करती है
दादाजी का
बाबूजी का
लेकिन लांघती नहीं
कभी चौखट
समझती है
मर्यादा इसे."
इसके बजाए
********
और मर्यादा की चौखट पर
खड़ी होकर खड़ी होकर
प्रतिकार करती है
ढिबरी की
मद्धम रोशनी के इर्द-गिर्द
फैले अंधकार का
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद"
सुन्दर विम्ब संजोये हैं!
जवाब देंहटाएंऔर शाहिद मिर्जा जी
जवाब देंहटाएं, मेरी मामूली समझ कहती है कि आप जो संशोधन सुझा रहे हैं वह तो कविता को पहले से भी ज्यादा कमजोर कर दे रहे हैं। सच तो यह है रोशनी ही अपने आप में अंधेरे का प्रतिकार है।
कविता अच्छी लगी ...हर कोई अपने उजाले की सीमाएं भी बना लेता है ..और वही उसे चलने का दम देती हैं ...
जवाब देंहटाएंसूरज की मोहताज नहीं रौशनी
जवाब देंहटाएंमाँ का चेहरा
दीप्त हो जाता है
ढिबरी की रौशनी में
बहुत सुंदर कविता...मां का वात्सल्यमय चेहरा प्रकृति में अनुपम है।
6/10
जवाब देंहटाएंमाँ के वात्सल्य और अपनत्व को प्रतिबिंबित करती मोहक रचना है. किन्तु रचना अपनी सम्पूर्ण क्षमता के साथ सामने नहीं आ पायी है. आपकी इस तरह की कवितायें श्रेष्ठ कवि राजेश जोशी की याद दिलाती हैं. कभी अवसर मिले तो आप उनकी लिखी माँ से सम्बंधित कवितायें पढ़ें.
दुलार और समर्पण को सहेजती
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.
जब सूरज चढ़ता है
जवाब देंहटाएंदोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथ
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
जब सूरज चढ़ता है
जवाब देंहटाएंदोपहर भी अलसाती है
सोती है चौखट भी
माँ की चटाई पर
चूल्हा सुस्ताता है
हिलते बांस के पत्तों के साथbahut khoobsurat....