अरुण चन्द्र रॉय की कविता - कुछ दिनों के लिए
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मुद्रित कीजिए
अखबारों को श्वेत श्याम में
संपादकीय पृष्ठ को कर दीजिए
पूरी तरह काला
स्थगित कर दीजिए
खेल पृष्ठ
आर्थिक पृष्ठ पर
कंपनियों के आंकड़े नहीं बल्कि
दीजिए आंकड़े
छूटे हुए काम वाले घरों के रसोई का
बंद कर दीजिए रंगीन विज्ञापन भी अखबारों में
कुछ दिनों के लिए।
कुछ दिनों के लिए
टीवी पर बंद कर दीजिए
रंगीन प्रसारण
ब्रेकिंग न्यूज के साथ चलने वाले
सनसनीखेज संगीत प्रभाव को
कर दीजिए म्यूट
पैनलों की बहसों को कर दीजिए
स्थगित
प्राणवायु के बिना छटपटाती जनता का
सजीव प्रसारण पर भी
लगा दीजिए रोक।
यदि छापना ही है
प्रसारित करना ही है
तो कीजिए
संविधान की प्रस्तावना
बार बार
बार बार
बार बार
कुछ दिनों के लिए।
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वाह समय के मन की बात, हरेक के मन की बात...। यही होना चाहिए....काश यूं ही हो जाता।
जवाब देंहटाएंसंविदान की प्रस्तावना बार बार .....
जवाब देंहटाएंऔर कहाँ हैं नागरिकों के अधिकार ...
बहुत संवेदनशील रचना .
प्रस्तावना भी कोरे शब्द बन के रह जाएँगे आज ...
जवाब देंहटाएंआवाज़ तूती बन कर रह गई है ... बहुत प्रभावी रचना है ...
जी।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (११ -०५ -२०२१) को 'कुछ दिनों के लिए टीवी पर बंद कर दीजिए'(चर्चा अंक ४०६३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत सटीक सुझाव, सार्थक लेखन !
जवाब देंहटाएंबहुत सही👍
जवाब देंहटाएंबेहद जरूरी सलाह,आज वक़्त की मांग यही है ,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंShukriya kamini ji
हटाएंअभी कुछ दिनों के लिए ऐसा ही होना चाहिए,अति सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भारती जी।
हटाएंयह कविता जहाँ एक ओर कोई इंक़लाबी नारा प्रतीत होती है, वहीं दूसरी इसके पीछे छिपा है एक दर्द, एक वेदना जो आज हमारे चारो ओर सुरसा की तरह मुँह बाए खड़ी है और हमें औषधि या ऑक्सीजन की भीख माँगने की स्थिति से गुज़रना पड़ रहा है... कहाँ है हमारा सम्विधान और चुप क्यों है!
जवाब देंहटाएंआपकी कविताओं में सदा एक संदेश होता है, जो पाठक को सदा छूता है, सहलाता है, गुदगुदाता है और सोचने पर विवश करता है!!
आपकी टिप्पणी हमेशा प्रेरणा देती है सर। आपको अपने ब्लॉग पर देखर लग रहा है मेरा पहले जैसा दिन लौट आएगा। शुभकामनाएं आपको।
हटाएंयदि छापना ही है
जवाब देंहटाएंप्रसारित करना ही है
तो कीजिए
संविधान की प्रस्तावना बार बार ....
शायद कुछ लोगों की खोई हुई याददाश्त वापस आ जाए उसे देख देखकर/ सुन सुनकर....
यदि छापना ही है
जवाब देंहटाएंप्रसारित करना ही है
तो कीजिए
संविधान की प्रस्तावना
बार बार
बार बार
बार बार
कुछ दिनों के लिए।
मन की व्यथा है जो कही नहीं जाती और कह दें तो कोई सुनाने वाला नहीं | सच में सच में औपचारिक सब प्रपंच बंद हो जाएँ तो जी को चैन मिले | मारिक रचना अरुण जी |
बार-बार संविधान की प्रस्तावना के प्रसारण से शायद संविधान जग जाय.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब सृजन
वाह!!!
👌👌वाह! बहुत ही बेहतरीन 👌👌👌
जवाब देंहटाएंहमारे ब्लॉग पर भी आइएगा आपका स्वागत है🙏🙏