देह के विज्ञान से परे
प्रेम का ए़क पृथक ब्रह्माण्ड है
जहाँ के ग्रह और नक्षत्र
परिक्रमा करते है
मन के भावों का
सितारे
अपने अपने स्थान पर
टिके होते हैं
दृष्टि के गुरुत्वाकर्षण से
और
साँसों के घर्षण से
होते हैं दिन और रात
हजारो आकाशगंगाएं
गेसुओं से
निकलती हैं
और अधरों के स्पर्श से
प्रकाश पुंज बन
विलीन हो जाती हैं
उस ब्रहमांड की
तुम हो
पृथ्वी
और मैं
सूर्य
इतनी सहज और सरल व्याख्या ? और वो भी प्रेम की ! लाजवाब !!!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंremarkable ...hats off!
जवाब देंहटाएंchha gaye aap, aapko to prem-guru kahna parega..........:)
जवाब देंहटाएंउस ब्रहमांड की
जवाब देंहटाएंतुम हो
पृथ्वी
और मैं
सूर्य इस कविता का अंत कविता के मिजाज़ के उपयुक्त नहीं है .वैसे कविता अच्छी है .
बहुत पसन्द आया
जवाब देंहटाएंआपने तो प्रेम को रेखांकित कर दिया………………बेहद उम्दा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं"तुम हो
जवाब देंहटाएंपृथ्वी
और मैं
सूर्य"
इस प्रस्तुती में मेरे लिए तो जगह है ही नहीं तो क्यों कबाब में हड्डी बनूँ !!!!!!
बहुत सुन्दर विश्व आप दोनों का।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा पोस्ट-सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट वार्ता पर भी है
देह के विज्ञान से परे
जवाब देंहटाएंप्रेम का ए़क पृथक ब्रह्माण्ड है
जहाँ के ग्रह और नक्षत्र
परिक्रमा करते है
मन के भावों का
adbhut satya
sundar atisundar badhai
जवाब देंहटाएंसितारे
जवाब देंहटाएंअपने अपने स्थान पर
टिके होते हैं
दृष्टि के गुरुत्वाकर्षण से
और
साँसों के घर्षण से
होते हैं दिन और रात
samast brhammand ko vyakt kiya aapke prem ne aur prem ko brhamand bana diya...sunder kalpana....
प्रेम की सुदर परिभाषा गढती हुई एक सुंदर रचना!
जवाब देंहटाएंजिसकी कोमल भावनाएं मन को नकारती हुई सीधे दिल में उतर जाती हैं. रचनाकार को मेरी ओर से हार्दिक बधाई!