अकारण ही
मन के आसमान में
बादल गहरा जाते हैं
और रौशनी छिन जाती है
कोई
खींचे लिए जाता है
तुम्हे
दूर बहुत दूर मुझ से
जिधर हो रहे हैं युद्ध
आसमान है लाल
बहुत लाल
क्रोध से तमतमाया है
और
धरती के गर्भ में लावा
निकलने को है आतुर
ए़क कोलाज सा
उभरता है
जिसमे
मैं
तुम
हम
सभी
बिना किसी रूप आकार के
प्रतीत होते हैं
पृथ्वी गोलाकार नहीं दिखती
और सूर्य का रंग
घोर काला दिखता है
वैसे ही जैसे
भय के क्षण में होता है मन का रंग
कहीं कोई तितली नहीं उडती
कहीं कोई नए पत्ते नहीं उभर रहे हैं
इस कोलाज में
मैं अकेला
नितांत अकेला
खड़ा
रोता
आँखों में आंसू का
सैलाब लिए
तुम्हारे तट पर
होता हू
बादल बरसता नहीं
गरजता बहुत है
अट्टहास करता है
मैं डर कर
तुम्हारी गोद में
छिप जाना चाहता हूँ
लेकिन तुम भी मुझे
उस ओर मिलती हो
जिस ओर
रौशनी बहुत है
लेकिन दिखता नहीं है
कुछ साफ़ साफ़
जिस ओर युद्ध है
तुम भी उसी ओर खड़ी हो
फिर
बादल बहुत बरसता है
नदी में उफान आ जाता है
मेरी नाव डूबने लगती है
मैं खुद को
बचाने की
कोशिश नहीं करता
छिन सी जाती है
मन के आसमान में
बादल गहरा जाते हैं
और रौशनी छिन जाती है
कोई
खींचे लिए जाता है
तुम्हे
दूर बहुत दूर मुझ से
जिधर हो रहे हैं युद्ध
आसमान है लाल
बहुत लाल
क्रोध से तमतमाया है
और
धरती के गर्भ में लावा
निकलने को है आतुर
ए़क कोलाज सा
उभरता है
जिसमे
मैं
तुम
हम
सभी
बिना किसी रूप आकार के
प्रतीत होते हैं
पृथ्वी गोलाकार नहीं दिखती
और सूर्य का रंग
घोर काला दिखता है
वैसे ही जैसे
भय के क्षण में होता है मन का रंग
कहीं कोई तितली नहीं उडती
कहीं कोई नए पत्ते नहीं उभर रहे हैं
इस कोलाज में
मैं अकेला
नितांत अकेला
खड़ा
रोता
आँखों में आंसू का
सैलाब लिए
तुम्हारे तट पर
होता हू
बादल बरसता नहीं
गरजता बहुत है
अट्टहास करता है
मैं डर कर
तुम्हारी गोद में
छिप जाना चाहता हूँ
लेकिन तुम भी मुझे
उस ओर मिलती हो
जिस ओर
रौशनी बहुत है
लेकिन दिखता नहीं है
कुछ साफ़ साफ़
जिस ओर युद्ध है
तुम भी उसी ओर खड़ी हो
फिर
बादल बहुत बरसता है
नदी में उफान आ जाता है
मेरी नाव डूबने लगती है
मैं खुद को
बचाने की
कोशिश नहीं करता
छिन सी जाती है
मेरी शक्ति
मेरा सामर्थ्य
मेरा पुरुषत्व
मेरा पुरुषार्थ
असहाय सा मैं
बन जाता हूँ वस्तु
फिर कुछ देर बाद
अब
शांत हो जाती है नदी
छट जाते हैं बादल
धूप फिर से
खिल उठती है
स्वप्न कहें
या दुस्वप्न
या फिर कोई
अतृप्त इच्छा
अव्यक्त विचार
फिर से
रह जाता है अधूरा
अकारण मेरा डर
जाता रहता है
लेकिन
मन के कोने में
दबा भय
ख़ामोशी से कहता है
अकारण कुछ भी नहीं
अकारण कुछ भी नहीं
असहाय सा मैं
बन जाता हूँ वस्तु
फिर कुछ देर बाद
अब
शांत हो जाती है नदी
छट जाते हैं बादल
धूप फिर से
खिल उठती है
स्वप्न कहें
या दुस्वप्न
या फिर कोई
अतृप्त इच्छा
अव्यक्त विचार
फिर से
रह जाता है अधूरा
अकारण मेरा डर
जाता रहता है
लेकिन
मन के कोने में
दबा भय
ख़ामोशी से कहता है
अकारण कुछ भी नहीं
अकारण कुछ भी नहीं
अकारण कुछ भी नहीं
जवाब देंहटाएंयकीनन अकारण कुछ भी नहीं
कुछ कारण पर अकारण भी होते हैं
और हम जान ही नहीं पाते कि
इस अकारण का कारण क्या है ....
फिर
जवाब देंहटाएंबादल बहुत बरसता है
नदी में उफान आ जाता है
मेरी नाव डूबने लगती है
मैं खुद को
बचाने की
कोशिश नहीं करता
छिन सी जाती है
मेरी शक्ति
असहाय सा मैं
वस्तु बन जाता हूँ
नियंत्रण विहीन
जैसे बच्चे हो जाते हैं
Kya kamal hai! Aise swapn mujhe bhi aate hain! Yaa shayad harek ko jab ham asurakshit mahsoos karte hain?
अपने मन की सच्ची बातें कवि सीधे-सीधे अपने ही मुख से उत्तम पुरुष में कह रहा है और पाठक को इस तरह उन भावों के साथ तादातम्य अनुभव करने में बड़ी सुगमता होती है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंछट जाते हैं बादल
धूप फिर से
खिल उठता है
शायद यहाँ धूप खिल उठती है ..होना चाहिए ....
बादलों में कोलाज ..अद्बुत बिम्ब है ...
अकारण कुछ भी नहीं
जवाब देंहटाएं-यही सत्य है, उम्दा रचना.
बहुत अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएं*** हिंदी भाषा की उन्नति का अर्थ है राष्ट्र की उन्नति।
इस अकारण का कारण क्या है
जवाब देंहटाएंकुछ भी नहीं
...... प्रशंसनीय रचना - बधाई
जवाब देंहटाएंस्वप्न कहें
जवाब देंहटाएंया दुस्वप्न
या फिर कोई
अतृप्त इच्छा
अव्यक्त विचार
फिर से
रह जाता है अधूरा
अकारण मेरा डर
जाता रहता है
लेकिन
मन के कोने में
दबा भय
ख़ामोशी से कहता है
अकारण कुछ भी नहीं
aisa hota hai
bhaiyya,
जवाब देंहटाएंmain to aapka chela ban chuka hoon , kya likhte ho yaar , ab ek baar to aapse aakar milna hi honga .. gazab , amazing ,awsome.. kya likha hai ..padhte samaya yun laga ki main ek paiting bana raha hoon ... jiyo sir ji
badhayi
vijay
आपसे निवेदन है की आप मेरी नयी कविता " मोरे सजनवा" जरुर पढ़े और अपनी अमूल्य राय देवे...
http://poemsofvijay.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html
सही कहूं तो इस कविता में कुछ भी समझ नहीं आया। पूरी कविता ही अकारण लगी।
जवाब देंहटाएंman ke avyakt bhavo ko swapn ke colaj me dekhana ,aur akaran hi pareshan hote hue karan dhundhna hi insani swabhav hai.yahi bhav vyak kar gayee apki rachna....
जवाब देंहटाएंarun jee
जवाब देंहटाएंnamaskar !
kavita kahi kahi oljhi hue lag rahi hai .
saadar
isiliye akaran kavita bhi to nahin banti
जवाब देंहटाएं