रविवार, 31 अक्टूबर 2010

फूल हूँ मैं

फूल को
देखा है कभी
लगते हैं
कितने प्रिय
कितने मोहक
और
अपनी सुगंध से
सुवासित कर देते हैं
परिवेश

खुशबू 
पसर  जाती  है 
वातावरण में 
मनोहारी हो जाते हैं दृश्य 
मन महक जाता है 
फूलों का 
पा कर सानिध्य

लेकिन प्रायः
महसूस नहीं किया होगा
डाली से टूटने का
उसका दर्द
उसके पंखुडियो के
असमय बिखर जाने की वेदना से
परिचित नहीं होगी तुम

फूल है
मेरा प्रेम
जिसे भय है
तुमसे विस्थापन का,
तुम्हारी डाली से 
विच्छेदन का
असमय 
कुम्भला जाने का

फूल हूँ मैं
इसमें क्या कर सकती हो
तुम भी

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

समय से परे

घड़ी से बंधा नहीं होता है
समय
फिर भी
बांधे होते हैं हम
अपनी कलाई पर समय

समय
साथ नहीं चलता
कलाई पर बंधे होने के वाबजूद
और हमें अपने साथ
लेकर नहीं चलता

मैंने
बाँध रखी है
एक आभासी  घड़ी
अपनी कलाई पर
जो  टिक टिक करती है
तुम्हारी धडकनों के साथ

यह समय
रंग बदल लेता है
बिल्कुल हमारे तुम्हारे
मन की तरह
और सबसे बेहतर होता है
जब यह होता है
गुलाबी

लेकिन
नहीं चल पाते
हम और तुम
साथ साथ

फिर भी
सभी समय से परे है
हमारा तुम्हारा
सम्बन्ध !

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

प्रकाश के भीतर का अन्धकार

प्रकाश के
भीतर के अन्धकार को
देखो जरा
कितना घुप्प है
कितना विस्मृत कर देता है,
कर देता है
समय से दूर
बहुत भयावह होता है
प्रकाश के भीतर का अन्धकार


यह अन्धकार
सबसे पहले हमला करता है
ह्रदय पर
और बना देता है एक शून्य
चेतना के पटल पर
जो काम करता है
ब्लैक होल की तरह
और अपने भीतर खींच ले जाता है
समस्त ऊर्जा
समस्त सृजन

संभावनाएं सभी
नष्ट हो जाती हैं
पौधों की हरीतिमा
घुटने लगती है
और अमरबेल करती  है
अट्टहास 
प्रकाश के अन्धकार के बीच

दीपक तले
जो बसता है अँधेरा
वह बहुत भिन्न होता है
प्रकाश के भीतर के अन्धकार से
एक में समर्पण होता है दीपक का
दूजे में होता है अहं प्रकाश पुंज का
अब भी छंटता है अंधेरा
एक दीपक से .

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

भीतर मेरे कोई सिसकता है

जब

दुनिया का शोर

निस्तब्ध हो जाता है

भीतर मेरे

कोई सिसकता है



कभी

चाँद को देख कर

अपने एकाकीपन को

करता है दूर

तो कभी

जुगनुओं को बंद कर

मुट्ठियों में

रोशन करता है

अपने भीतर के

अँधेरे को



भेजता है

सन्देश हवाओं से

कि उनसे कहना

न हो उदास

होगी अवश्य

सुबह नई

मुस्कुराती सी



कहता है

गौरैया से

जाओ उन्हें जगाना

धीरे से

टूटने न पाए

मीठा स्वपन



दुनिया का शोर

शुरू होने से

पहले

खामोश हो जाता है

उसके

भीतर का अँधेरा

और एक हंसी मुखौटे सी

जाती है पसर

चेहरे पर.

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

पानी लगे पैर

बचपन से 
अब तक
सुनता आ रहा हूँ
पैरों में 

पानी लगने के बारे में 
सोचता भी आया
लेकिन कहाँ समझ पाया 
मैं भी

औरतें
जो करती हैं 

घरों/ खेतों में काम
उनके पैरों में
लगा होता है पानी 
फैक्ट्री और दफ्तरों में 
काम करने वाली औरतें भी 
अछूती नहीं रहतीं

घुटने भर पानी लगे खेतों में  
जो हरवाहे बनाते हैं  हाल
जो मजूर बोते हैं धान
उनके पैरों में भी लगा होता  है  पानी 
एक्सपोर्ट हाउस/एम् एन सी  के कामगार 
अपने सपनों के साथ 
पैरों में लगाये होते हैं
अलग  तरह  का पानी 


जो पैर
लक्ष्मी होते हैं
पूजे जाते हैं
उन पैरों में भी
लगा होता है पानी
बुरी तरह से
आज भी .

आँगन से घर 
घर से दालान 
दालान से खेतों तक 
चकरघिन्नी खाती माँ के पैरों में भी
 लगा होता था पानी
और लगा रहा वह
उमर भर
नहीं  समझा गया 
उसे या  
उसके पानी लगे पैरों को 
अलग बात है कि 
उसके नहीं रहने के बाद सूना हो गया था 
घर आँगन 
अनाथ हो गए थे 
खेत खलिहान, बैल-गोरु

जबकि
फटे हुए
विवाई भरे पैर
दिख भी जाते हैं
नहीं दिखता
पैरों में लगा हुआ पानी 
चुपचाप लिपटा रहता है पानी 
पैरों से किसी जोंक की तरह

आँखों के पानी की तरह
सुख-दुःख में
छलक नहीं उठता 
पैरों में लगा पानी.

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

पृथ्वी के गर्भ में






इन दिनों
पृथ्वी पर नहीं
इसके गर्भ में होने सा
लग रहा है मनु को 



कोई द्वन्द है
जिसका लावा
पिघला रहा है 
उसके अंतस के इस्पात को
और उसका पौरुष 
पिघल पिघल कर 
रह जा रहा है 

नहीं हो रहा कोई 
विस्फोट
ना ही कोई ज्वालामुखी 
फूट रहा है भीतर से
न ही हो रहा कोई सृजन
समस्त उथल पुथल 
भीतर ही भीतर 
हो रहे हैं 
मनु के 

न जाने 
वह कौन सी
वर्जना है 
जिसका कोलाहल 
इतना मौन है कि
वर्जना का मौन बल
हो गया है 
गुरुत्वाकर्षण बल सा 
और खींचे ही जा रहा है
अपने गर्भ में भीतर 
मनु को

कई बार
फेक दिया जाता है
कई कई प्रकाश वर्ष दूर
आकाशगंगाओं के प्रकाश पुंज के बीच
बल हीन, 
विषय हीन
भार हीन सा
किसी अपरिचित अंतरिक्ष में
पाता है स्वयं को
मनु

पृथ्वी के गर्भ में
संघर्षरत मनु
नहीं कर रहा कोई
प्रार्थना, 
याचना , 
कामना; 
किन्तु
'हे मनु !
लौट आओ मेरे पास '
सुनना चाहता है 
श्रद्धा के मुख से 
लौटने के लिए नहीं
बल्कि 
अपने भीतर के 
"मैं" की जीत के लिए 

पृथ्वी के गर्भ में
युद्धरत है मनु
स्वयं से 

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

तुम्हारी चौखट पर


तुम्हारी चौखट पर
कुछ अटक गया है मेरा
देखना
मिल जाए तो
रख देना घर के भीतर
ताख पर
जहाँ रखी हैं
तुम्हारी चूड़ियाँ


तुम्हारे ओसारे पर
कुछ रह गया है मेरा
देखना
मिल जाए तो
रख लेना
अपने सिरहाने
जहाँ रखा है
तुम्हारा अकेलापन


तुम्हारे आँगन में
कुछ छूट गया है मेरा
देखना
मिल जाए तो संभाल लेना
अपने आँचल में
जहाँ बसा है
किसी का मौन

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

एक दुआ है

एक दुआ है
कि घर से निकली बेटी
लौट आये
सही समय पर

एक दुआ है
कि किताबों के बोझ तले
मेरे बेटे का बचपन
कुछ पल के लिए ही
लेकिन लौट आये

एक दुआ है
कि झरोखे से
जो आती है धूप
मेरे एक मंजिले ढहे मकान में
न सूखे  कभी
अट्टालिकाओं की गर्मी से

एक दुआ है
कि कोई बेरोजगार
न खा जाये
मेरी नौकरी
कम पगार में

एक दुआ है
कि तुम्हारे गमले में खिले
वो गेंदे का फूल
जिसका पौधा
दिया था मैंने
तुम्हारे जन्मदिन पर

एक दुआ है
कि हंसी तुम्हारी यो ही
रहे प्रखर 
जब तक रोशन  रहे
ये सूरज
युगों  तक

एक दुआ है
कि कम से कम
एक दुआ तो
हो जाए कबूल
उसकी चौखट पर 

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

अज्ञातवास

१.
भीड़ से
अनंत प्रकाशवर्ष दूर
सृजित निर्जन मन पर  
वास
हे मानव !
यह निर्लज्‍जता है
या
तुम्हारा अज्ञातवास !

२.
इच्छा (एं)
तृप्‍त यात्रा प है
छोड़ सभी
भाव
वेदनाएं
साथ लिए
थोड़ी स्मृति
थोडा समय
थोडा "स्पेस",
हे इच्छा(एं)!
यह अतृप्‍ता  है
या
तुम्हारा अज्ञातवास !


रंग
अब रंगमय नहीं रहे
बना रहे हैं
भयभीत कोलाज
उनका शोर
पथरा रहा है आंखों को
ढूंढ रहे हैं
बुनियादी रंग
अपना अस्तित्व
हे रंग !
यह विस्मयकारी कोलाज
है नई दुनिया
या
तुम्हारा अज्ञातवास !

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

पहाड़ बदलना चाहते हैं



पहाड़ों को
सदा ही रहा है
भ्रम
आकाश को छूने  का
नदियों के लौट जाने  का
इसलिए रह गए हैं
पहाड़ 

निर्जल
अकेले . 





पहाड़ो को
सदा ही रहा है
दर्प
अपनी ऊंचाई का
इसलिए रह गए हैं
पहाड़ 

छोटे
अकेले

 

पहाड़ों को
सदा ही रहा है
अभिमान
अपने दुर्गम्य होने का
इसलिए रह गए हैं
पहाड़
निर्जन
अकेले.
 

पहाड़
तंग आ चुके हैं
अपने अकेलेपन से
और
बन जाना चाहते हैं
पानी
हवा
सुगंध
फूल

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

लोकतंत्र की छाती

 
 
 
 
 
 
 
 
हाथ में
नहीं दिख रहा
कोई हथियार
फिर भी
हो रहा है वार पर वार
हो कर सवार
लोकतंत्र की छाती

मरा नहीं
दिख रहा कोई
सरे बाजार
फिर भी
कर रहे हैं
हर चौक चौराहे 
भरपूर विलाप
पीट पीट कर
लोकतंत्र की छाती
 
ह्रदय में
भरी पडी है
मिथ्या ही मिथ्या
फिर भी
दिखा रहे हैं
जन गण मन को
चीर चीर कर
लोकतंत्र की छाती

बनाती है राह
संसद तक की
संसाधनों तक की
लोकतंत्र  की छाती

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

रुकना नदी की प्रकृति नहीं


प्रिये
बहुत दिनों बाद
कल रात मुझे आयी नींद

और नींद में देखा सपना


सपना भी अजीब था
सपने में देखी नदी
नदी पर देखा बाँध
देखा बहते पानी को ठहरा
नदी की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत



मैं तो डर गया था
रुकी नदी को देख कर
सपने में देखा कई लोग
हँसते, हंस कर लोट-पोत होते
ठोकते एक दूसरे की पीठ
रुकी हुई नदी के तट पर जश्न मानते लोग 


सपने में देखा सांप
काला और मोटा सांप
रुकी नदी के तल में पलता यह सांप
हँसते हुए लोगों ने पाल रखा है यह सांप
मैं तो डर गया
मोटे और काले सांप को देख कर
 

प्रिये
मैं तोड़ रहा था यह बाँध
खोल रहा था नदी का प्रवाह
मारना चाहता था काले और मोटे सांप को
ताकि
नदी रुके नहीं
नदी बहे , नदी हँसे
नदी हँसे ए़क पूर्ण और उन्मुक्त हंसी

क्योंकि  रुकना नदी की प्रकृति नहीं

प्रिये
मैं अकेला था
तोड़ते बाँध
मारते काले और मोटे सांप को
नदी भी मौन थी
लगता है उसकी मौन स्वीकृति थी
प्रकृति के विपरीत

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

ए़क खुला प्रेम पत्र

वर्षों से 
पड़ा है  
किताबों के बीच  
ए़क पोस्टकार्ड 
लिखी है  
उसपर ए़क कविता 
शीर्षक है 
"ए़क खुला प्रेम पत्र" 

वर्ष बीते 
किताबें बदली  
बदले विषय  
बदला समय  
बदला स्थान 
लेकिन नहीं बदला  
वह पोस्टकार्ड  
उसपर लिखी कविता भी   

छुपाया करता था 
पोस्टकार्ड को 
माँ से  
बाबूजी से 
बहन से 
दोस्तों से  
और तुम से भी  
आज खुले में पड़ा रहता है
पोस्टकार्ड
कोई देखता नहीं इसे

समय के साथ
पोस्टकार्ड का रंग
हो गया है
थोडा मटमैला
अक्षर भी हो रहे हैं
धुंधले से
फिर भी
नया सा लगता है
पोस्टकार्ड और 
ताज़ी है
स्मृतियों में वह कविता
शब्द शब्द
अक्षर अक्षर

तैयार है
पोस्टकार्ड अब भी
बस बाकी है
पता लिखा जाना
कहना तो जरा -
कहाँ  हो
इन दिनों .

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

रामचरित्तर की चाय दुकान

रोटी से
जो निकल पाता बाहर
घूम आता देश भर
देखता
कैसी है आज
अपने रामचरित्तर की चाय दुकान

हाँ
रामचरित्तर की चाय दुकान
आपके शहर में होगी
किसी और नाम से
लेकिन एक ही तरह की
हवा बहती होगी वहां
कुछ गंभीर पढ़ाकू आते होंगे
कुछ आवारा फ़ालतू आशिक मिजाज लोग आते होंगे
आते होंगे कुछ बूढ़े टाइम पास के लिए
अलग अलग समय पर
और पीते होंगे
कभी एक , कभी एक बट्टा दो रामप्यारी चाय

एक देश है तो
रामचरित्तर की दुकान भी
एक जैसी ही होगी
सुबह जो चढ़ती होगी
उसके अलमुनियम की हांडी और केतली
उतरती होगी
कस्बे के सोने के साथ ही

कई आईएएस, डाक्टर, इंजीनियर बने होंगे
यहाँ की बहसबाजी से,
 कुछ प्रोफ़ेसर, लेक्चरर निकले होंगे
गंभीर गुफ्त्गुओं से,
कई आवारा किस्म के अड्डा ज़माने वाले लफंदर
आई पी एस और इन्स्पेक्टर हैं ,
देश के कोने कोने में
और बचे खुचे लोग ऐसे भी हैं
जो हैं बैंक अधिकारी,
यही नहीं
कुछ कवि और कथाकार भी
जन्मे हैं
कुछ नेता भी बने हैं
रामचरित्तर के 'रामप्यारी' चाय पीकर

कितनी ही सफल असफल प्रेम कथाएं
भाप बनकर उड़ गई हैं
रामचरित्तर की चाय के साथ
वहां की
तीन टांग पर खड़ी बेंच पर
खुदे हैं कितने ही जोड़ो के नाम
जिनके बच्चे आज
हो गए होंगे जवान

कितने ही दंगे और फसाद
झेले हैं इस दुकान ने
और कस्बे की सबसे महफूज
जगह थी ये १९८४, दिसंबर ९२ में
सभी कौमों के लिए
कितने ही नगर निगम के आदेशों पर
नमकीन बाँध दिए
इस दुकान ने

सुना है
कोई रीटेल ऍफ़ डी आई नीति
बना रही है सरकार
और
रामचरित्तर की दुकान
खतरे में है
हर शहर में
आपके भी शहर में
अपनी पहचान के साथ

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

बटन

नहीं पता 
कब आया  
अस्तित्व में  
बटन  
लेकिन 
जरुरी हो गया है 
यह 

प्लास्टिक के/लोहे के/स्टील के / शीशे के /हाथी के दांत के/ सोने के/हीरे जड़े 
बटन पहचान बन गए हैं 
आदमी के .
रूप भी/ आकार भी/ 
बदल गए हैं 
जैसे जैसे बदल रहे हैं हम 
डिजाइनर हो रहे हैं  
बटन 
हूक/जिप/और भी कई नाम /काम हैं बटन के  
अर्थव्यवस्था के विविधिकरण की तरह  

शुरू शुरू में 
नहीं हुआ करता होगा यह  
तो भी 
बची होंगी 
मर्यादाएं 
ढके गए होंगे
बदन  
बिना बटन  

शालीनता/प्रतिष्ठा/ 
व्यक्तित्व के साथ साथ  
व्यक्त करता है 
आपकी धन सम्पदा/ 
शान शौकत भी .    
कई बार भीतर    
पाले होते हैं लोग  
पशु या राक्षस  
लेकिन जो पूरे लगे होते हैं बटन 
पाते हैं वे पूरी प्रतिष्टा  
इस तरह मुखौटे का भी काम करते हैं बटन  . 

कई माओं को देखा है 
जमा करते  
पुरानी कमीज/शर्ट/पैंट से  
सावधानी से उतरते बटन  
संभल कर रखती भी हैं 
ए़क छोटी सी डिबिया में 
मानो गहने हो  

मेरी कमीज़ में  
लगे हैं कई तरह के बटन   
एक बटन बाबूजी की पुरानी कमीज से
उतार कर लगाई है. 

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

दो रोटियों के सिंकने के बीच

बनाते हुए रोटियाँ
तुम ,
दो रोटियों के बीच
देखती हो स्वप्न



स्वप्न में उडती है
तितलियाँ रंग विरंगी,
आसमान में होता है
चाँद पूनम का, गोल
बिल्कुल रोटियों की तरह
लेकिन भूख मिटाने की बजाय
बढ़ा देता है
तुम्हारी प्यास
स्वप्न में .


जब तक
बेल रही होती हो
रोटियाँ
तुम्हारे भीतर
बह रही होती है
नदी ए़क
नदी में होती है
मछलिया, जिनकी आँखों में
होती है वही चमक
जो रहती हैं
तुम्हारी आँखों में
देख कर मुझे


तवे पर
डालते हुए ए़क रोटी
समानांतर
तुम सेंक रही होती हो
दूसरी रोटी भी
और
चल रहा होता है
तुम्हारे भीतर
द्वन्द ए़क
जिसमें
तुम ही तुम रहती हो
ए़क तुम्हारे भीतर का तुम
और ए़क तुम्हारे बाहर का


अपने कई चेहरे से
परेशान तुम भी
सिंकती सी लगती हो
तवे पर
भीतर और बाहर


दो रोटियों के बीच
तुम ढूंढ रही होती हो
स्वयं को
कभी मुस्कुराती सी
कभी खामोश


दो रोटियों के
सिंकने के बीच
तुम निभाती हो
कई भूमिकाएं

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

व्याकरण के बिना

ज्ञान नहीं
अक्षर का
पता नहीं
कैसे बनते हैं शब्द
अक्षरों से
कैसे शब्द मिलकर
बनाते है
वाक्य
और
वाक्य में क्या है
व्याकरण के सूत्र
नहीं पता मुझे

कहो ना
कैसे करे वह
प्रेम निवेदन
कैसे कहे अपने
ह्रदय की बात
कैसे जताए
अपनी प्रतिबद्धता...
कैसे बताये कि
आँखे बस देखती हैं तुम्हे
साँसों में बस बसी हो तुम
मन पर बस साम्राज्य है
तुम्हारा

कहो ना
कैसे लिखें
प्रेम का काव्य
बिना व्याकरण
बिना सूत्र

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

प्रेम में कुछ अलग नहीं होता

प्रेम में
नहीं उगता सूरज
पश्चिम से
न ही
अस्त होता है
पूरब में

बादलो का रंग
पीला नहीं हो जाता
न ही
हरा हो जाता है
गुलाब
प्रेम में


प्रेम में
मानसून नहीं आता
समय से पहले
न ही
वसंत आता है
ग्रीष्म में


पृथ्वी
नहीं बदल देती
परिक्रमा का रास्ता
न ही
कम या अधिक होती है
गति इसकी
प्रेम में


समंदर का पानी
नहीं हो जाता मीठा
न ही लहरे
लौटना छोड़ देती हैं
छू कर तटों को
प्रेम में


प्रेम में
नहीं बदलता
जरूरतें घर की
न ही कम हो जाती है
माँ की दवा


प्रेम में
कुछ नहीं होता
बस

पाने से अधिक
भय रहता है
खोने का

जैसे होता है
आम जीवन में

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

हाशिये पर महात्मा

हे महात्मा !
चौक चौराहों पर
करके कब्ज़ा
यदि सोच रहे तो तुम
कि
ह्रदय में वास कर रहे हो
या फिर
तुम प्रेरणा श्रोत हो
नए विश्व के
तो गलतफहमी में हो

हाँ,
सेमीनार और कांफ्रेंस के
अच्छे विषय जरुर हो
और तुम्हारी खादी
जो अब मशीनों से
जाती है बुनी
हो गई है
फैशन स्टेटमेंट

और
अपने सिद्धांतों व
आम आदमी के साथ
हाशिये पर हो
तुम