शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

लोकतंत्र की छाती

 
 
 
 
 
 
 
 
हाथ में
नहीं दिख रहा
कोई हथियार
फिर भी
हो रहा है वार पर वार
हो कर सवार
लोकतंत्र की छाती

मरा नहीं
दिख रहा कोई
सरे बाजार
फिर भी
कर रहे हैं
हर चौक चौराहे 
भरपूर विलाप
पीट पीट कर
लोकतंत्र की छाती
 
ह्रदय में
भरी पडी है
मिथ्या ही मिथ्या
फिर भी
दिखा रहे हैं
जन गण मन को
चीर चीर कर
लोकतंत्र की छाती

बनाती है राह
संसद तक की
संसाधनों तक की
लोकतंत्र  की छाती

14 टिप्‍पणियां:

  1. आज की हालात को बयान करती इस रचना पर अर्ज़ है
    निर्लज्जता का काम मगर आन बान से
    खिलबाड़ कर रहे हैं, लोग संविधान से।
    डलवा रहे हैं वोट को डंडे के चिह्न पर
    लड़ता है कौन यहां इलेक्शन निशान से।

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  2. आज के हालात का बेहतरीन चित्रण किया है………………सारे दर्द उभर कर आये हैं।

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  3. अब तो यही चिन्ह ही हथियार है, लोकतन्त्र का।

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  4. बनाती है राह
    संसद तक की
    संसाधनों तक की
    लोकतंत्र की छाती
    सचमुच ... इसीलिए तो इसे रौदने में लगे कुछ देशद्रोही......बहुत अच्छा लिखा आपने...

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
    बेटी .......प्यारी सी धुन

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