गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

विदा 2020

 साल तुम जाओ अब 

जाते हुए तुम लेते जाओ 

सब उदासियाँ और अँधेरे 


मजदूरों की बेकारी लेकर जाओ

जाओ लेकर किसानों से साथ होने वाला 

विश्वासघात 

मशीनों के पुर्जों की घिसान भी लेकर जाना 

और लेकर जाना अबोलापन और अकेलापन 

आदमी और आदमी के बीच का . 


धर्म भी लेते जाओ तुम साथ अपने 

लेते जाओ तुम घृणा भी 

क्योंकि इनके बिना आदमी लागता है 

अधिक आदमी , अधिक मानवीय 


न जाने कितने पेड़ हमने काटे दुनिया भर में 

लाखों एकड़ जंगल जलने के कारण बने हम 

हो सके तो ले जाओ तुम अपने साथ 

दुनिया भर की वे मशीने जो 

जमीदोज करती हैं पेड़ पहाड़ पर्यावरण .


जाते हुए साल तुम साथ लेजाओ 

सब बीमारियाँ , सब रुदन 

छोड़ जाओ थोडा रंग बच्चों के मन में 

कुछ अच्छे बीज मानवता के जिन्हें उगा 

नए साल को हम बना सकें हरा-भरा . 


विदा 2020. 

अपनी परछाइयों को लौटने नहीं देना नए साल में 

बस इतनी सी प्रार्थना है . 


बुधवार, 9 दिसंबर 2020

लोकतंत्र

 1.

सत्ता के झुकने से 

मजबूत होती है 

लोकतंत्र की रीढ़।


2.

विरोध प्रदर्शन 

हमेशा विरोध ही नहीं होते 

कई बार ये लाते है 

लोकतंत्र की हड्डियों में 

लचीलापन।

3.

जनता की आवाज़ 

समय समय पर 

होती रहनी चाहिए ऊंची 

इससे पता चलता रहता है कि 

लोकतंत्र नहीं हो रहा है 

बहरा।

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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

विचारों का क्रम

 विचारों का क्रम

कभी नहीं टूटता

जब तक टूटे नहीं

सांसों की डोर।


दुख, सुख

आशा निराशा

उत्साह अवसाद

सब हैं

विचारों की स्थिति।


प्रेम, घृणा

अन्धकार, प्रकाश

स्वतंत्रता परतंत्रता

भी कुछ और नहीं बल्कि है

विचारों की अभिव्यक्ति।


विचार करते हैं

सृजन

विचार करते हैं

विनाश

विचारों ही 

तय करते हैं

मनुष्य का व्यवहार

मनुष्य से, प्रकृति से

सृष्टि से।


एक क्रम होता है

विचारों का 

वैसे ही जैसे 

गर्भ में पलता है शिशु

बीज में रहती है संभावनाएं

फिर वे पुष्पित प्लवित होते हैं

विचारों के वातावरण में। 


मृत्यु होता है अंतिम विचार

मनुष्य के जीवन में। 

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

अधूरी रह गई दिवाली


दीपक 
खरीद लाये 
बाज़ार से
कर आये मोल भाव
कुम्हार से 

ले आये 
गुल्लक
सिखाने को 
बचत
बच्चे को अपने

मिठाइयाँ भी
पटाखे भी
नए कपड़े भी
दिला दिए
बच्चों को

रटा दिया 
अभिवादन 
'हैप्पी दिवाली' आदि आदि 

भूल गया मैं बताना कि  
कैसे समर्पण करते हैं 
तेल और बाती  
एक दूसरे के लिए ,
नहीं बताया कि
अंधेरे से लड़ने के लिए 
कैसे जलती है बाती 
अकेली , 
रोशनी के लिए
कैसे दीपक छोडता नहीं 
हौसला 
तेल के अंतिम बूंद तक !

अधूरी रह गयी
दिवाली 
मिटा जो नहीं 
भीतर  का अँधेरा 
इस बार भी ।  

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

रेल की खिड़की से


धरती

भाग रही है पीछे

पेड़ पहाड़ सबके साथ

भ्रम ही तो है यह। 


पसरा हुआ अंधेरा 

कर रहा है संवाद

स्मृतियों में कौंध रहा है

गाव, खेत खलिहान

उदास दालान 

और सुख की इच्छा में 

हमारा भागना 

एक और भ्रम है। 


दुनिया भर की रोशनी 

रेल के दोनों किनारों पर 

जला देने से भी

छूटते हुए गांवों से उपजा अंधेरा 

नहीं हो सकता दूर। 


खिड़की बंद कर देने से 

बाहर की हवा भीतर नहीं आएगी

छूटने की पीड़ा हो जाएगी हल्की 

यह एक और भ्रम है।

मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020

लुईस ग्लूक की कविता "अक्तूबर"

 प्रस्तुत है लुईस ग्लूक की कविता "अक्तूबर" शृंखला की पहली कविता का अनुवाद 

अक्टूबर : लुईस ग्लूक

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क्या आ गई है फिर से सर्दी ,

क्या फिर से हो रही है ठंढ

क्या वह फिर से धंस गया है बर्फ में

क्या वह ठीक नहीं हुआ

क्या बसंत के बीज़ रोपे नहीं गए


क्या रात का अंत नहीं हुआ

क्या पिघलते बर्फ से बंद नहीं हुआ
छोटी नदियों को लबालब भरना !

 

क्या मेरा शरीर बचा नहीं

क्या मैं नहीं अब सुरक्षित?


क्या मेरे ज़ख्मों के निशान

हो गए हैं अदृश्य, नहीं दे रहे किसी को दिखाई?

 

आतंक और हाड़ कँपाती ठंड

क्या खत्म नहीं होंगे

क्या घर के पीछे का बगीचा

तैयार नहीं होगा, क्या रोपे नहीं जाएंगे इसमें पौधे !


मुझे स्मरण है कैसा महसूस कर रही थी धरती, 

लाल और गहन रोष

ऐसे में क्या 
समानान्तर नहीं लगाए गए थे बीज़

क्या लताएँ दक्षिणी दीवारों पर नहीं चढ़ी थी !


अब मैं फिक्र नहीं करती

कि कैसा लगता है किसी को

जब मुझे चुप कराया गया था

कैसा लगा था मुझे, बेमानी है अब इसका वर्णन करना

जिसे बदला नहीं जा सकता हो, उसके बारे में जानना कैसा लगता है ?


क्या रात का अंत नहीं होगा,

जब गर्भ में रोपा गया बीज़, 
क्या धरती नहीं थी सुरक्षित !


जब धरती के लिए बहुत जरूरी था 
तब क्या हमने नहीं रोपे बीज !


जो बीज़ रोपे गए, क्या उनमें फल लगे?


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मूल कविता 

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October :Louise Glück


Is it winter again, is it cold again,
didn’t Frank just slip on the ice,
didn’t he heal, weren’t the spring seeds planted

didn’t the night end,
didn’t the melting ice
flood the narrow gutters

wasn’t my body
rescued, wasn’t it safe

didn’t the scar form, invisible
above the injury

terror and cold,
didn’t they just end, wasn’t the back garden
harrowed and planted–

I remember how the earth felt, red and dense,
in stiff rows, weren’t the seeds planted,
didn’t vines climb the south wall

I can’t hear your voice
for the wind’s cries, whistling over the bare ground

I no longer care
what sound it makes

when I was silenced, when did it first seem
pointless to describe that sound

what it sounds like can’t change what it is–

didn’t the night end, wasn’t the earth
safe when it was planted

didn’t we plant the seeds,
weren’t we necessary to the earth,

the vines, were they harvested?




.

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

जंगली परिजात* लुईस ग्लूक

 वर्ष 2020 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार से पुरस्कृत कवयित्री लुईस ग्लूक की प्रसिद्ध  कविता "The Wild Iris" का अनुवाद ।   


जंगली परिजात* 

लुईस ग्लूक  
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जहाँ ख़त्म होते थे मेरे दुःख 
उसके आगे था एक दरवाजा 

तुम्हे बता दूँ कि  जिसे तुम मृत्यु कहते हो 
उसे मैं सदैव याद रखती हूँ ।  

बाहर का अनन्य शोर , देवदार की झूलती शाखाएं 
निढाल ढलता सूरज समा रहा है 
बंजर धरती के आगोश में । 

ऐसे मे बचे रहना चुनौतीपूर्ण है 
क्योंकि दफन हो रही हैं  संवेदनाएं 
धीरे धीरे धरती के अंधेरी कोख में । 

अचानक झुक रही है पृथ्वी एक ओर
भय से आत्मा सन्न है 
असमर्थ है बोलने से 
और खत्म हो रहा है सब कुछ 
जैसे खतरे में है झाड़ियों में रहने वाली चिड़िया । 

आप जैसे लोग 
जिन्हें याद नहीं इस दुनिया की यात्रा 
उन्हें बताना चाहती हूँ कि
उठा सकती हूँ मैं अपनी आवाज़ फिर से 
विस्मरण से जागने वालों की 
आवाज़ हूँ मैं । 

मेरे भीतर से निकलती है 
एक विशाल नदी
गहरे नीले समुद्र के वितान पर 
छाया हुआ नीला आसमान 
बसता है मेरे  भीतर  । 

- अनुवाद : अरुण चंद्र रॉय 
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*एक प्रकार का नीला फूल । 

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

बच्चे जो डूब गए - लूइस ग्लूक

वर्ष 2020 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार से पुरस्कृत कवयित्री लुईस ग्लूक की प्रसिद्ध  कविता "The Drowned Children" का अनुवाद । 



बच्चे जो डूब गए 
- लूइस ग्लूक 


 जब उनके पक्ष में 
नहीं है कोई निर्णय 
फिर बेहतर है  उनका डूब जाना ही।  

चलिए, भीषण सर्दी में सबसे  पहले 
उन्हें बर्फ के भीतर डुबोते हैं 
उनके पूरी तरह मर जाने के बाद 
जब शरीर पानी से ऊपर उठकर तैरेगा 
साथ में तैरेंगे उनके ऊनी स्कार्फ 
बर्फ से भरे तालाब ले लेगा उन्हें 
अपने असंख्य अँधेरे बाहों के गहन आगोश में।  

किन्तु उन बच्चों  को मौत आनी चाहिए
कुछ अलग तरह से  
जीवन के शुरू होने के बाद जल्दी ही  
हालांकि वे हमेशा से ही रहे हैं 
रतौंधी के शिकार और कम  वज़न वाले, कुपोषित।  
अतः बाकी सब स्वप्न है कि 
उनके मृत शरीर को नसीब हो 
रौशनी, और श्वेत धवल कफ़न
जैसे सजा होता है मेजपोश।  

सर्द तालाब में 
धीरे धीरे डूबते हुए उन्हें सुनाई देती है 
माता पिता की आद्र  पुकार - 
"क्या कर रहे हो वहां, किसका इन्तजार कर रहे हो !!
आ जाओ घर, घर आ जाओ,लौट आओ !!
और धीरे धीरे वे डूब जाते हैं गहरे नीले पानी में 
हमेशा के लिए। 

(अनुवाद : अरुण चंद्र राय ) 


मूल कविता 
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The Drowned Children

You see, they have no judgment.
So it is natural that they should drown,
first the ice taking them in
and then, all winter, their wool scarves
floating behind them as they sink
until at last they are quiet.
And the pond lifts them in its manifold dark arms.

But death must come to them differently,
so close to the beginning.
As though they had always been
blind and weightless. Therefore
the rest is dreamed, the lamp,
the good white cloth that covered the table,
their bodies.

And yet they hear the names they used
like lures slipping over the pond:
What are you waiting for
come home, come home, lost
in the waters, blue and permanent.

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गुरुवार, 20 अगस्त 2020

दुविधा

 मतदाता 

दुविधा में हैं कि 

किसके पक्ष में प्रकट करे 

अपना  मत 

एक तरफ रोटी छोटी हो गई है 

दूसरी तरफ रोज़गार गया है छिन

गांव उसका दह गया है बाढ़ में 

तो भाई शहर में बेकारी झेल रहा है 

वह किसके लिए दे अपना मत . 


जिसे वह देता है मत 

वही चढ़ कर कुर्सी पर भूल जाता है 

किये गए वायदे 

बिजली पानी, स्कूल, किताब , चूल्हा - चौका 

काम , धंधा पानी , दवाई 

सब रह जाती हैं बहस भर की बाते 

बाद में चर्चा में होता है 

सीमा पर युद्ध, 

युद्ध का भय 

फ़िल्मी सितारों की बातें 

खिलाडियों की कमाई 


वह दुविधा में है कि 

वह किस आधार पर तय करे अपना मत 

भाषणों पर या झंडे के रंग पर 

अपनी जाति के नाम पर या 

दंगे या युद्ध के भय के नाम पर 

या उन्माद पर . 

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

राम

1.
तलुवे में 
चुभने पर कांटा 
अनायास ही 
मुंह से निकलने वाले राम को
नहीं जरूरत किसी मंदिर की 
किसी भव्यता की । 

2.
थककर चूर होने के बाद
जब खाने का पहला निवाला
पहुंचता है पेट में 
तृप्ति का वह भाव 
पर्याय है राम का 
लेकिन ऐसे राम को रहने के लिए
जरूरत नहीं किसी मंदिर के गर्भगृह की। 

3.
जो नाम 
भरता हो जोश
देता हो ऊर्जा
प्रकट करे आश्चर्य या दुख ही
किसी भी परिस्थिति में
कहीं भी किसी भी तरह
उपयुक्त लगे
ऐसे राम रहते हैं मानस  के हृदय में 
इन्हे जरूरत नहीं किसी पताके की। 

रविवार, 2 अगस्त 2020

मित्रता

1.
उजाले की मित्रता दिखती है वह परछाई की तरह कराता रहता है अपने होने का एहसास हर क्षण ।

2. अंधेरे की मित्रता बसा रहता है भीतर बिना की नाम के
बिना किसी आकर के कभी देखी है परछाई अंधेरे में।

3.
अपेक्षाएं
आकांक्षाएं
मित्रता की हैं शर्तें
अनकही
अलिखित। ---- - अरुण चन्द्र रॉय

सोमवार, 20 जुलाई 2020

सब आम आदमी के लिए है

बाढ़ है
सुखार है
रोग है
सब आम आदमी के लिए है

बेकारी है
बेरोज़गारी है
वेतन में कटौती है
सब आम आदमी के लिए है

गलियों में पानी भरा है
अस्पताल का बिस्तर भरा है
स्कूल की सीट भरी है
सब आम आदमी के लिए  है 

भाषण है
कुपोषण है
घट-तौली राशन है
सब आम आदमी के लिए है

मंदिर है
मस्जिद है
दंगा है 
सब आम आदमी के लिए है .

अनाज उगाने की जिम्मेदारी है
कारखाना चलाने की जिम्मेदारी है
सेवा करने की लाचारी है
सब आम आदमी के लिए है .

जो वोट बैंक है
जो नेताओं का खिलौना है
जो कुचले सपनों का बिछौना है 
सब आम आदमी है , सब आम आदमी है .




मंगलवार, 14 जुलाई 2020

अंक

1.
बच्चे अब
अपने मृदुल मुस्कान
व्यवहार कुशलता
और सामाजिक सरोकारों से नहीं बल्कि
मापे जाते हैं
अंकों और अंकपत्रों से

2.
बच्चे अब
मानव नहीं  रह गए हैं
बदल गए हैं
कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस ) के औजार
या फिर कहिये हथियार में .

3.
घरों में बदल गई है परिपाटी
दीवारों पर संजाने के चित्र
वह टांगी जाती हैं
तरह तरह के मेडल, प्रमाणपत्र और ट्राफियाँ

4.
अंत में
वही बच्चे बुजुर्गों को पार कराते हैं सड़क
पकड़ लेते हैं पड़ोसियों का भारी थैला
आते जाते करते हैं अभिवादन
जिनके अंकपत्र नहीं होते औरों की तरह
वजनदार और चमकदार !

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

आत्महत्या : कुछ कवितायेँ


1.

 दौर
आत्महत्याओं का है
और हो भी क्यों न
जब सबने अर्थ और साधन को
बना ली है जीवन की धुरी
तो अर्थव्यवस्था के तनिक रुकने
साधनों के तनिक अभाव से
आत्महत्या को
स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए .

2.

पहली  कविता के तर्क पर तो
दुनिया के तमाम
साधनहीन, सुविधाहीन लोगों को
हक़ ही नहीं है जीने का
फिर भी वे जीते हैं, लड़ते हैं
आत्महत्या नहीं करते
तो उन्हें क्या कहा जाय !

3.
इनदिनों किसान बो रहे हैं धान
तमाम आशंकाओं के बीच वे बोते हैं धान कि
हो सकता है समय पर बारिश न हो
बारिश हो और इतनी अधिक हो कि धान हो ही नहीं
धान पके और घर पहुचे यह भी सुनिश्चित नहीं होता
फिर भी वे बो रहे हैं धान
क्योंकि धान का बोना केवल धान का बोना नहीं है
बल्कि यह है एक जिम्मेदारी किसी के हिस्से की भूख को मिटाने की .
जो समझते हैं जिम्मेदारी
वे रोपने हैं अपने भीतर आशा का बीज
लगाते हैं अपने आसपास रौशनी के पौधे
वे नहीं करते आत्महत्या .

4.
कई बार आत्महत्या
आत्महत्या नहीं होती
बल्कि हत्या होती है
एक सुविचारित, सुनियोजित
जिसकी पृष्ठभूमि ,
जिसके कारणों और प्रयोजनों से रहकर
तटस्थ और अनिभिज्ञ
हम  करते रहते हैं विमर्श घटना पर
जैसे लाठी से पीटा जाता है पानी .

5.
आत्महत्या और आत्महत्या में
होता है फर्क
उसकी आत्महत्या होती है बड़ी
जिसमे होती है सनसनी
गृहणियों, किसानों ,
अभावग्रस्तों और अकाल पीड़ितों की आत्महत्याओं पर
नहीं होती चर्चा क्योंकि
इस चर्चा में अधिक है ,पीड़ा और जोखिम
सत्ता को नहीं होता रुचिकर भी .


मंगलवार, 16 जून 2020

युद्ध


यदि युद्ध न हो
तो क्यों बने हथियार
क्यों बने बम , बन्दूक , बारूद !
जब दुश्मन के गावों में, स्कूलों में , बच्चों पर
बरसाने ही नहीं हैं गोले
फिर क्यों बनाएं हमने
तोप, तरह तरह के अत्याधुनिक बमवर्षक विमान !
सेनाओं को प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में लड़ने के
तैयार किया गया है इसीलिए तो
कि एक दिन वे लड़ें, मारें, मर जाएँ
और शहीद कहलायें !
दुनिया कभी युद्ध-मुक्त नहीं हो सकेगी
और जो कह रहे हैं जमा कर सीमा पर सेना
भण्डार कर तरह तरह के अत्याधुनिक शस्त्र-अस्त्र
कि नहीं चाहते युद्ध,
सरासर झूठ कहते हैं वे .

बुधवार, 10 जून 2020

भूत


 भूत
का नाम सुनते ही
डरते हैं हम
जबकि भूत ने अभी तक
कुछ भी नहीं बिगाड़ा हमारा।

कहते हैं भूत
आदमी को करता है परेशान
लेकिन देख रहा हूं मैं
आदमी को परेशान
भूख और लाचारी से
गरीबी और बेगारी से
दंगों और फसादों से
तो क्या समझ लिया जाय कि
भूख, गरीबी, बेरोजगारी और हिंसा
दुनिया के सबसे ख़तरनाक भूत हैं।

दादी नानी कहती थी
उल्टे होते हैं
भूत के पांव
वे उल्टी दिशा में चलते हैं
जबकि में देख रहा हूं
सत्ता को उलटी दिशा में चलते
मनुष्य के हितों के विपरीत दिशा में चलते
संकीर्ण मानसिकता में फंसा जनता का दोहन करते
तो क्या समझूं कि
सत्ता ही है वह डरावना भूत
जिसे किसी ने आज तक देखा नहीं
बस सुना ही है।

ठीक ही कहता है
नुक्कड़ पर बैठा अख़बार बेचने वाला बूढ़ा कि
अनुभव से बता रहा हूं
भूत से मत डरो
डरो तो उस आदमी से
जिसके भीतर का आदमी
मर चुका हो।

मंगलवार, 26 मई 2020

कोरोना

1.

यह युद्ध काल नहीं है 
आसमान में नहीं उड़ रहे 
बम वर्षक विमान 
या फिर सैनिक ही लड़ रहे 
सीमाओं पर 
फिर भी भयभीत हैं हम 
थमे हुए हैं कदम 

2. 

सूरज निकलता है पूरब से 
लेकिन दिन नहीं बदलता 
हमारी दिनचर्या से 
हटा ली गई है व्यस्तता 
और रुक गया है चक्का 

3. 
इन दिनों ईश्वर के चहरों की चमक 
पड़ गई ही फीकी 
अचानक बदल गए हैं 
प्रार्थनाओं के शब्द 
भय ने किया हमें स्तब्ध 

4. 
मनुष्य और मनुष्य के बीच
पहले से ही तरह तरह की दूरियां
वर्ग की, संघर्ष की
अब इसमें जुड़ गई है
एक और दूरी भय की।  


शुक्रवार, 15 मई 2020

महानगर

महानगर 
कोई गांव नहीं हैं
कि उसमें हो 
जानी पहचानी पगडंडियां
जिन पर आप अंधेरे में भी
चल सकते हैं सहजता से। 

महानगर 
कोई गांव नहीं है कि
इसके हर नुक्कड़ पर हो
कोई पुराना पीपल या बरगद
जिसकी छांव के लिए
नहीं चुकाना पड़े किराया या किश्त।

महानगर 
वाकई में गांव नहीं है
जहां सूखे होठों को देख
कोई भी पूछ ले हाल
पिला दे पानी, दे जाए खाना
बैठ जाए दो पल, बांट के सुख दुख। 

महानगर तो इस मामले में
बिल्कुल भी गांव नहीं है कि
यदि किसी आंगन से नहीं उठे धुआं
तो कोई दौड़ा आ जाए लेकर
आग चूल्हे के लिए
किसी के यहां कोई गमी हो जाए
तो पूरा गांव दो सांझ भूखा रहे
जबकि महानगर पटे हैं 
रंग बिरंगे व्यंजनों के लुभाते खबरों से
 लौट रहे हैं महानगरों को बनाने वाले
अपने अपने गांव, भूख और प्यास में डूबे हुए

भूख और प्यास से नहीं पसीजता 
महानगरों की छाती 
क्योंकि वे सचमुच गांव नहीं हैं ।


शनिवार, 9 मई 2020

आप क्या दौड़ेंगे सतीश सक्सेना जी !

(देश में स्वास्थ्य को लेकर बाजार तैयार किया जा रहा है . महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक नियमित रूप से मैराथन दौड़ आयोजित हो रहे हैं . युवा से लेकर बुज़ुर्ग तक इस बाजार का हिस्सा बन चुके हैं . स्वस्थ रहना एक और बात है और भीड़ का हिस्सा बनना एक और बात . खैर . इस लॉक डाउन में जिस तरह मजदूरों की घर वापसी हो रही है उसने व्यथित किया है . इनदोनो भावनाओं के घालमेल से उपजी है यह कविता . अपने मैराथन रनर मित्र और ब्लॉगर श्री सतीश सक्सेना जी से क्षमा सहित . ) 


सतीश सक्सेना जी
जानता हूँ आप दौड़ते हैं मैराथन
दस किलोमीटर , बीस किलोमीटर
चालीस किलोमीटर
लेकिन बता दूं कि
जो दौड़
दौड़ रहा है असोकबा, राकेसबा, अब्दुलबा या रहमनवा
वह न आप दौड़ सकते हैं
न आपके वे हजारों साथी
मेट्रो शहरों के हर हफ्ते होने वाले तमाम इवेंट्स में .

लगे हाथ पाठकों को बता दूं कि
मैं कोई दावा नहीं कर रहा कि
सतीश  सक्सेना कोई काल्पनिक नाम हैं
या काल्पनिक चरित्र है अशोक, राकेश, अब्दुल या रहमान ही .
मेट्रो  शहरों में होने वाले इवेंट्स वाले स्थान भी काल्पनिक नहीं हैं
न ही काल्पनिक वह दौड़ जो दौड़ रहे हैं अशोक , राकेश , अब्दुल या रहमान .
और इनका होना कोई संयोग भी नहीं है
बल्कि वह वास्तविक चक्र है जिनसे ये कभी निकल नहीं पाते और
जब स्थितियां सामान्य होती हैं
हमारे आसपास मौजूद होते हुए भी
हम भांप नहीं पाते हैं इनकी उपस्थिति .

ये जो दौड़ रहे हैं पैदल अपने गाँवों की ओर
ये वहीँ हैं जो बनाते हैं घर
चलाते हैं कारखाने
सिलते हैं कपडे
साफ़ करते हैं गाड़ियां
बुहारते हैं सड़कें
चमकाते हैं माल और थियेटर
आप नाम तो लीजिये
हर जगह मौजूद होते हैं ये
फिर भी आज दौड़ रहे हैं वापिस
अपने गाँव की ओर


यह दौड़ पहले शुरू होती थी गाँव से
और रूकती थी हजार दो हजार किलोमीटर जाकर
बसों, रेलों और पैदल की यह दौड़ अनवरत जारी थी
और यह पहली बार हो रहा है कि
दौड़ उलटी हो रही है
जैसे कई बार नदी बहने लगती है अपनी ही धारा के विपरीत
विषम परिस्थितयों में .

आज इस उलटी दौड़ के लिए जब उपस्थित नहीं है कोई साधन
हौसला देखिये कि ये दौड़ पड़े हैं पैदल ही
कोई हजार किलोमीटर का लक्ष्य लिए है
तो किसी का लक्ष्य डेढ़ हजार किलोमीटर है
सतीश सक्सेना जी एक बार गुना तो कीजिये कि
कितने फुल मैराथन समा जायेगे इस एक दौड़ में .

दौड़ना सबसे आदिम क्रिया है
जो भूल चूका था आदमी स्वयं ही
जो भूल चुकी थी सभ्यता
कंप्यूटर भी सोच नहीं सकता कि
कोई आदमी इस तरह आदम और असभ्य हो सकता है कि
हजार किलोमीटर पैदल दौड़ने का हौसला कर ले
जबकि विज्ञान और तकनीक ने जुटा दिए हैं
आधुनिक से आधुनिकतम साधन
क्या मानव सभ्यता फिर से ऋणी नहीं हो गई इनका
जो उठ चले हैं गाँवों की ओर पैदल ही धता बता कर
आधुनिक साधनों को . 

सतीश सक्सेना जी
देखा है मैंने कि जब आप दौड़ रहे होते हैं  मैराथन
जगह जगह पर खड़े होते हैं लोग
वे देखते हैं कि कितनी दूरी मापी है आपने
कितने समय में
समय और दूरी के इस अनुपात को आप गति कहते हैं
लेकिन ये जो  महानगरों को छोड़ कर जा रहे हैं गाँवों की ओर
इनकी गति की गणना क्या  संभव हो सकती है
क्योंकि महानगरों से जितनी दूर जायेंगे
विकास के गुणक उतनी ही तेजी से घटेंगे
शायद कोई कंप्यूटर इस उलटी गति की गणना करने में सक्षम नहीं
क्योंकि सभ्यताओं के विकास की नीव में पड़ा है इनका श्रम .

पैदल चलने वालों का एक जत्था चल पड़ा है
सूदूर दक्षिण से पूरब की तरफ
एक जत्था सुदूर पश्चिम से चल पड़ा है
उत्तर की तरफ,
उत्तर से कई जत्थे कूच कर दिए हैं  मध्य की तरफ
ये आपके  रनर्स कम्युनिटी की तरह नहीं हैं प्रतिस्पर्धी
इनका बस एक ही लक्ष्य है
जिसे कहते हैं घर
शायद घर ने ही आदिमों को पहली बार बनाया था सामाजिक
समाज की पहली इकाई ही कहते हैं न घर को परिवार को
और जब दुनिया घरों में बंद है
बंद है आपकी दौड़ , आपके इवेंट्स
ये सड़कों को माप रहे हैं 
और आप देख ही रहे होंगे कि इनके कदम
चालीस पचास किलोमीटर के बाद भी बिलकुल नहीं थके हैं
ये हांफ नहीं रहे हैं सतीश सक्सेना जी
बल्कि हांफ रही है सत्ता .


जब रोटी से बड़ी हो जाती है
मिटटी की जिजीविषा
दुनिया की हर दौड़ छोटी पड जाती है
और यदि आपको अपना नाम यहाँ पसंद नहीं  तो
सतीश सक्सेना जी क्षमा सहित  लीजिये
लिख देता हूँ अपना ही नाम -
तुम क्या दौडोगे अरुण चन्द्र रॉय
जो दौड़ रहा है तुम्हारे गाँव का असोकवा, राकेसवा, अब्दुलवा या रहमनवा ! 

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सोमवार, 4 मई 2020

लघुकथा - धर्म

यह उन दिनों की बात है जब समाज में धर्म के नाम पर खुल कर गोलबंदी होने लगी थी। वॉट्सएप के जरिए लोग खेमे में बांटने और बंटने लगे थे। 
मेरे कस्बे के कुछ लोगों ने निर्णय लिया कि वे अपने धर्म के लोगों से सामान खरीदेंगे, मजदूरी कराएंगे। यहां तक कि दर्जी, नाई, मोटर मैकेनिक भी अपने , दर्र्मधर्म विशेष का ढूंढने लगे। 
शहर भर घूम घूम कर सूची बना ली गई। विभिन्न वॉट्सएप समूहों के जरिए यह सूची मिनट भर में एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच गई। इतनी जल्दी तो जंगल की आग भी नहीं फैलती है।
कुछ दिनों में इसका फर्क दिखना भी शुरू हो गया। बाकी सब तो ठीक चल रहा था लेकिन धर्म विशेष का नाई इस कस्बे में एक ही था।
उसकी दुकान पर भीड़ रहने लगी थी। पहले पहल तो उसे बड़ा मज़ा आ रहा था । वह दुकान जल्दी खोलने लगा था। भीड़ इतनी होती कि दुकान बंद करते करते उसे रात हो जाती। घर देर से पहुंचता तो बीबी बच्चे नाराज़ मिलते। घर में कलह रहने लगा। वह तनाव में रहने लगा। उधर दुकान पर भीड़ की वजह से वह चिड़चिड़ा रहने लगा था। 
वह अपने दुकान पर एक और कारीगर रखने के बारे ने सोचने लगा। लेकिन उसे अपने धर्म विशेष का कारीगर मिल ही नहीं रहा था। तीन चार महीने में ही उसकी हालत खराब होने लगी। 

एक दिन उसने दूसरे धर्म के लड़के को समझा बुझा कर काम पर रख लिया। उसे सख्त हिदायत दी कि वह किसी से भी अपने धर्म के बारे में न बताए। एकाध महीना तो ठीक चला। उधर शहर में इस तरह के बंटवारे की वजह से समरसता खत्म हो रही थी। तनाव बढ़ता जा रहा था। 
एक रात वह नाई अपनी दुकान बंद करके घर लौट रहा था। साथ में उसके कारीगर भी था। एक मोड़ पर आकर नाई और उसका कारीगर अपने अपने मोहल्ले की तरफ चल दिए कि सामने शहर के बंटवारे के ठेकेदारों ने देख लिया और नाई की पोल खुल गई। 
अगले दिन वह नाई पास के नाले के किनारे मृत पाया गया। 
उस कस्बे में उस धर्म विशेष का अकेला वह नाई भी अब नहीं रहा। हारकर लोग दूसरे धर्म के नाई के पास धीरे धीरे जाने लगे। 

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

कारोना की मार - मालिक से मजदूर तक शिकार

केरल के एक बिजनेसमैन जॉय अरक्कल ने दुबई में पिछले सप्ताह आत्महत्या कर ली। केरल से खाड़ी देशों तक का उनका सफर सफलता का सफर था। उनके तेल के कुएं मध्य एशिया के कई देशों में थे। रिफाइनरी और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों का भी उनका व्यापार था।  कोरोना संक्रमण से जब दुनिया लॉक डाउन की स्थिति में है , दुनियां भर में क्रूड ऑयल का मूल्य इतिहास में इतना कम कभी नहीं रहा, उन्हें लगा कि व्यापार संभालना मुशकिल है। इस वित्तीय तनाव को जॉय आरक्कल झेल नहीं पाए। उन्होंने अपने दुबई स्थित कार्यलय के चौदहवीं मंजिल से झलांग लगा ली।
जब से लॉक डाउन शुरू हुआ है, वित्तीय तनाव के कारण जर्मनी के एक प्रांत के वित्तीय मंत्री ने प्रांत के खराब होते हालात को बेकाबू होते देख आत्महत्या कर ली थी।
विश्व में। शायद यह पहला मौका है जब पूरी दुनिया की आर्थिक गतिविधियां ठिठकी हुई है, पहिए रुके हुए हैं, एक साथ।
मजदूरों, किसानों का तनाव तो हमें अख़बारों के पहले पन्ने, टीवी स्क्रीन पर दिख जाता है किन्तु व्यापारियों का तनाव, उनकी चिंताएं इतनी महीन होती है कि हमें वह नहीं दिखता है। भारत में दो करोड़ से अधिक रोजगार कोरोना संक्रमण की भेंट चढ़ जाएंगे। इसमें छोटे छोटे उद्यमियों की संख्या भी कम नहीं होगी जिनकी फैक्ट्रियां किराएं पर हैं, मशीनें ठप्प पड़ी हैं, बैंकों का कर्जा है, सरकार और बाज़ार की देनदारियां हैं। उनके पास विकल्प बहुत कम है।
कोरोना के शिकारों में मजदूर से मालिक तक शामिल हैं।

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

किताब

विश्व पुस्तक दिवस पर पढ़िए मेरी कुछ छोटी कविताएं - किताब। 


क्या
तुमने भी
महसूस किया है
इन दिनों
खूबसूरत होने लगे हैं
किताबों के जिल्द
और
पन्ने पड़े हैं
खाली । 


क्या
तुम्हें भी
दिखता है
इन दिनों
किताबों पर पड़े
धूल का रंग
हो गया है
कुछ ज्यादा ही
काला
और
कहते हैं सब
आसमान है साफ़ । 


क्या
तुम्हें भी
किताबों के पन्ने की महक
लग रही है कुछ
बारूदी सी
और उठाये नहीं
हमने हथियार
बहुत दिनों से । 


क्या
तुमने पाया है कि
किताब के बीच
रखा है
ए़क सूखा गुलाब
जबकि
ताज़ी है
उसकी महक
अब भी
हम दोनों के भीतर । 

कोरोना का भारतीय अर्थवयवस्था पर प्रभाव

कोरोना महामारी के कारण उपजी नई परिस्थितियों में भारत का आर्थिक विकास दर घट कर एक से डेढ़ रह जाएगा। इस विकास दर का अर्थ लाखों लोगों का बेरोजगार होना, नौकरियां छिन जाना,  लघु उद्यमों का बंद हो जाना, छोटे कारोबारियों का कारोबार घट कर आधा रह जाना है।
यह एक ऐसी आर्थिक परिस्थिति है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी किसी विद्वान या अर्थशास्त्रियों ने।
कोरोना की यह कीमत बहुत बहुत अधिक होगी। दुनिया को इससे उबरने में कम से कम एक दशक तो लग जाएगा।
लेकिन इसका एक अलग पक्ष भी हो सकता है। जहां पश्चिमी देश में विकास का पहिया लगभग थम सा गया था उनके यहां विकास की गति थोड़ी बढ़ेगी। वे भी अपने यहां पहले से उन्नत स्वास्थ्य ढांचा को कोरोना के आलोक में देखेंगे। इस तरह वहां ग्रोथ के लिए कई सेक्टर खुलेंगे।
भारत के लिए यह चुनौती अलग तरह की होगी। नौकरियां नहीं होंगी तो समाज में अपराध बढ़ेंगे, सांप्रदायिक मतभेद के बढ़ने की आशंका अधिक होगी, सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से ऑटोमेशन की रफ्तार और बढ़ेगी,आदमी का स्थान रोबोट्स लेंगे।
सरकार को इतनी बड़ी जनसंख्या के पेट को भरने के लिए कृषि पर जोर देना होगा, छोटे कुटीर उद्योग पर फोकस करना होगा, अन्यथा स्थिति पर नियंत्रण रखना कठिन होगा। आयात को कम करने की चुनौती अलग होगी। निर्यात के क्षेत्र में संभावना क्षीण ही दिख रही होगी।
एक ही सुकून की बात है कि पूरी दुनिया किसी न किसी तरह से परेशान है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

घरबंदी

1.

कितना कठिन है न
घरों में बंद रहना
जबकि स्त्रियां
कैद हैं घरों में
सीमाओं में
सभ्यताओं की अंधेरी गुफाओं में
न जाने कब से।

2.

जिनके पास
नहीं है अपना घर
जिनके सिर पर नहीं है
अपनी छत
कहां रहेंगे वे बंद
कब सोचा है किसी ने
गंभीरता से !

3.
घरबंदी में
आप ले रहे हैं कई
किस्म की चुनौतियां
विभिन्न मंचों पर
क्या कोई लेगा चुनौती
मिटाने को हर पेट की भूख
देने को हर हाथ को काम !

***


रविवार, 19 अप्रैल 2020

पूछना खुद से चाहिए

1.
जब दुनियां
बंद थी घरों में
पूछना खुद से चाहिए
आसमान का रंग
क्यों हो रहा था नीला अधिक।

2.
जब मशीनों
और मोटरों की आवाज़
ख़ामोश थी
पूछना खुद से चाहिए
क्यों चहचहा रही थी चिड़िया अधिक।

3.
जब मौत के
आंकड़े गिन रहे थे तुम
बार बार
पूछना खुद से चाहिए
कौन थे वे लोग जो कर रहे थे
ड्यूटी काम के तय घंटों से अधिक।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कोरोना आपदा से रोज़गार को खतरा

इक्कीसवीं शताब्दी में जीवन शैली में सुधार, गरीबी में कमी और आर्थिक विकास की ग्रामीण क्षेत्रों तक धमक ने  दुनिया का चेहरा बदल दिया था . इस शताब्दी के दो दशकों में तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जितनी तेजी से प्रगति हुई वह पहले कभी नहीं हुई थी . जिंदगी को मानो पंख लग गए थे . हर दुसरे पल तकनीक पुरानी हो जा रही थी . गति, गति और तेज़ गति... यही तो नारा था इस शताब्दी का . और एक पल में दुनिया ठहर गई है . लॉक डाउन से . कोरोना महामारी ने महामारी शब्द को जिंदा कर दिया है . अन्यथा कुछ वर्षों में यह शब्द, शब्दकोष से बाहर निकल जाता .

कोरोना संक्रमण ने दुनिया के सभी बड़े अर्थव्यवस्थाओं की नीव हिला दी है . दुनिया की तमाम आर्थिक ताकतें आज ढहने के कगार पर खड़ी हैं . एक ओर जहाँ आने वाले कई सालों तक दुनिया भर में मांग की कमी रहेगी, बाजार सिमटा रहेगा वहीँ दुनिया भर में बेरोज़गारी सबसे बड़ी समस्या रहेगी .

नेशनल सैंपल सर्वे और पीरियाडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार गैर कृषि क्षेत्रों में 13.6 करोड़ रोज़गार के अवसर ख़त्म हो जायेंगे इसमें पर्यटन, बैंकिंग, ऑटोमोबाइल, वस्त्र उद्योग, निर्माण क्षेत्र आदि शामिल हैं .
एक अनुमान के अनुसार वस्त्र, सीमेंट, खाद्य प्रसंस्करण, प्लास्टिक , मेटल आदि क्षेत्रों में 9 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हो जायेंगे . इसमें छोटे और मझौले उद्योग, डीलर नेटवर्क और स्वरोजगार से जुड़े लोग अधिक बेरोजगार होंगे.
एक निजी रिसर्च एजेंसी ने अनुमान लगाया है कि पहले से मांग की समस्या से घिरा ऑटोमोबाइल उद्योग में बीस लाख लोगों के बेरोजगार होने की सम्भावना है . इसमें आधे लोग डीलर नेटवर्क और फ्रंट लाइन स्टाफ होंगे जो मांग की कमी की वज़ह से नौकरी से बाहर होंगे .

कहा जाता है कि वर्तमान में लगभग 4.6 करोड़ कामगार ऐसे असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं जहाँ उन्हें किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की सुविधा नहीं मिली हुई है . ऐसे मजदूरों और कामगारों पर रोज़गार छिनने का खतरा सबसे अधिक है .

आगरा के फुटवेयर क्लस्टर में लगभग दस लाख लोग रोज़गार में लगे हुए हैं . इनमे जहाँ एक तरफ असंगठित मजदूर हैं तो दूसरी तरफ छोटे छोटे स्वरोजगारी उद्यमी हैं . यहाँ दोनों पर ही बराबर खतरा है . इसी तरह तमिलनाडु का तिरुपुर टेक्सटाइल क्लस्टर है जहाँ एक सिलाई मशीन लेकर भी लाखों लोग अपना उद्यम चला रहे हैं . तमिलनाडु में वस्त्र उद्योग में लगभग एक करोड़ नौकरी जाने का खतरा है .

कोरोना महामारी के कारण वैश्विक निर्यात का परिदृश्य भी निराशा से भरा हुआ है . विगत दो महीनो में निर्यात के आदेश निरस्त हो रहे हैं चाहे वह वस्त्र हो, फैशन हो या फुटवेयर हो . निर्यात उन्मुख उद्यम अधिक से अधिक तीन महीने तक अपने कामगारों को काम पर रख सकते हैं . यदि इस दौरान बाज़ार में सुधार नहीं होता है तो लगभग एक करोड़ से अधिक लोगों को अपने रोज़गार से हाथ धोना पड सकता है .

इन से भी निराशाजनक स्थिति सेवा उद्योग यानी सर्विस सेक्टर की है . इस क्षेत्र में इवेंट मैनेजमेंट, रेस्तरा,  स्पोर्ट्स इवेंट्स, शादी व्याह, फोटोग्राफी, क्रिएटिव, एंटरटेनमेंट उद्योग आदि शामिल हैं जहाँ विगत दो महीनो से सब कुछ ठप्प पड़ा है और अगले दो महीनो तक कोई उम्म्मीद भी नहीं दिख रही है .

बाज़ार की रौनक मध्य वर्ग से आती है जो मांग को बढाता है , बाज़ार को विस्तार देता है लेकिन वह मध्य वर्ग जहाँ एक तरफ अपने रोज़गार के जूझेगा वहीँ वह अपनी बचत को खर्च करने से भी बचेगा . इसी मध्यवर्ग के ऊपर ईएम्आई का भी दवाब रहता है .

यदि विशेषज्ञों की माने तो देश में 13.6 करोड़ लोग कोरोना की मार से बेरोजगार हो जायेंगे और अर्थव्यवस्था की विकास दर घटकर 1-2% तक हो जायेगी . देश के वित्त मंत्री और भारतीय रिजर्व बैंक के अधिकारियों के चेहरे पर चिंता की लकीरों का गहराना वाजिब ही है .

गौर करने वाली बात होगी कि भारत कोरोना और उससे उपजी आर्थिक मंदी से कैसे निपटता है ? 

रविवार, 16 फ़रवरी 2020

बसंत

1. 


खिले हुए फूल 
धीरे धीरे मुरझा जायेंगे 
इनके चटक रंग 
उदासी में बदल जायेंगे 
बसंत की नियति है 
पतझड़
फिर भी बसंत लौटता है 
अगले बरस . 

2.

आम पर 
जब लगती हैं 
मंजरियाँ 
उन्हें मालूम होता है 
कुछ ही मुकम्मल हो पाएंगी 
अधिकाँश झड जायेंगी 
अपरिपक्व 
फिर भी मंजरियाँ महकती हैं 
हवाओं में . 


3. 
वह जो सुबह सवेरे 
साइकिल पर अखबार लादे 
तीसरी चौथी मंजिल तक फेंकता है अखबार
उसपर कहाँ असर होता है 
बसंत की मादक हवाओं का 
उसे फूलों पर मंडराते भौरे नहीं दीखते 
उसके लिए बसंत
ग्रीष्म, शरद या शिशिर से भिन्न नहीं 
कोई खबर भी नहीं 
फिर भी वह
गुनगुनाता है प्रेम गीत. 

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